रिपोर्ट | अ डेट विद बुक फ़ेयर
सुबह-सुबह जब तैयार होकर निकलने की तैयारी कर रहा था, तो किसी ने टोका था – तैयारी तो ऐसे कर रहे हो जैसे डेट पर जा रहे हो! मैंने भी सहमति जताते हुए सिर हिलाया – हां, मैं डेट पर जा रहा हूं, अपनी पसंदीदा किताबों से मिलने, वह भी क़रीब 25 साल बाद.
पिछली बार 1997 में, कोलकाता पुस्तक मेला देखने गया था, तो वहाँ पंडालों में लगी भयावाह आग में मेले का कुछ हिस्सा ख़ाक हो चुका था. हालांकि बाद में उसी मैदान में पुस्तक मेला फिर जुटा, और किताबों से प्रेम करने वालों को ‘बोई मेला’ फिर से आबाद होने का सुकून मिला. किताबों के लिए कलकत्ते के किताब प्रेमियों की ललक ग़ज़ब की है, तभी तो पिछले 45 वर्षों से यह मेला जुटता आया है. उस बार का पुस्तक मेला देखकर किसी अख़बारनवीस ने एक रिपोर्ट लिखी थी – आखर की अग्नि परीक्षा. आज 25 वर्षों बाद भी स्थितियां कुछ वैसी ही जटिल हैं.
कोरोना की वजह से 45वां पुस्तक मेला पिछले साल नहीं लग पाया. छपे हुए शब्दों की अग्नि परीक्षा तो आज भी चल रही है. कोरोना के दिनों में बहुतेरे लोगों ने तो अख़बार पढ़ना तो दूर, छूना तक बंद कर दिया था. पत्र-पत्रिकाओं की, अख़बारों की घरों-दुकानों से जैसे विदाई हो गई. अख़बारों की प्रसार संख्या प्रभावित हुई, कितनी ही पत्रिकाएं परिदृश्य से ग़ायब हो गईं. व्हीलर के कितने ही बुक स्टॉल भी बंद हो गए. और नौबत यहां तक आ गई कि व्हीलर के बुक स्टॉल पर बिसात-ख़ाने का सामान और बिस्कुट, चिप्स, मंजन, ब्रश, क़लम और मोबाइल का सामान तक बेचना पड़ रहा है. प्रयाग, कोलकाता, बोलपुर, महोबा, मुगलसराय के प्लेटफॉर्म पर किताबें कौन कहे, पत्र-पत्रिकाएं मयस्सर नहीं हैं या फिर स्टॉल की शक़्लोसूरत बदल गई है.
यों तमाम शहरों की यही कहानी है. एक दुकानदार ने बताया अब वो पत्रिकाएं नहीं रखते क्योंकि कोई ख़रीदता ही नहीं है. लोग ऑनलाइन या पीडीएफ फ़ाइलों से पढ़ने लगे हैं. ऐसे दौर में जब किताबों का वजूद भी संकट में दिखाई देता हो, साल भर के अंतर पर एक बार फिर जब कोलकाता अंतरराष्ट्रीय बुक फ़ेयर (केआईबीएफ़) यानी ‘कोलकाता बोई मेला’ की घोषणा हुई और कि मेला 28 फ़रवरी से 13 मार्च तक फिर से कोलकाता के सेंट्रल पार्क में जुटेगा तो पुस्तक प्रेमियों ही नहीं, मनोरंजन फ़ौजियों के लिए भी यह सुसमाचार की तरह थी.
कोलकाता का बोई मेला भद्र लोक के लिए किताबों का महाकुंभ है, पढ़ाकू लोगों के लिए बोई मेला तीर्थ-यात्रा पर जाने या फिर प्रयाग के महाकुंभ में डुबकी लगाने जैसा है. यह कैसा आयोजन है, जिसमें अवाम के साथ-साथ लेखक, कवि, प्रकाशक, पत्रकार, कलाकार, शिल्पकार सब मिलकर मेले को महामानव समुद्र बना देते हैं. यह पुस्तक मेला पढ़ने-पढ़ाने से वाबस्ता लोगों को किताबों के साथ खड़े होने, पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनाने, किताब के अड्डों पर चर्चा करके उसे जीवंत बनाने और सही मायने में अपने शौक़ को समय देने का होता है.
कोलकाता के सेंट्रल पार्क करुणामई मैदान में लगने वाला यह पुस्तक मेला फ्रैंकफुर्त और लंदन के बाद किताबों का सबसे बड़ा आयोजन होता है, जिसमें शरीक होने वालों की तादाद 25 लाख के आसपास होती है. इस बार पुस्तक मेले में किताबों के 600 से ज़्यादा स्टॉल लगे, लघु-पत्रिकाओं के प्रकाशक-विक्रेताओं की संख्या भी संख्या भी क़रीब दो सौ थी. संगोष्ठी, बातचीत, कविता-पाठ, विमोचन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के 300 से ज़्यादा आयोजन हुए. आयोजकों ने इस बार यह सहूलियत और जोड़ दी कि जो लोग किसी वजह से अपनी पसंद के ऐसे आयोजनों में शरीक नहीं हो सकते, वे पुस्तक मेले का एप्लीकेशन डाउनलोड करके इन आयोंजनों को ऑनलाइन भी देख सकते थे.
शुरुआती दौर से मेले के साक्षी लोग बताते हैं कि दो साल के विमर्श और प्लानिंग के बाद पहला पुस्तक मेला मार्च 1976 में शुरू हुआ. कोलकाता पुस्तक मेले का सूत्र वाक्य किताबों का थोक व्यापार नहीं, बल्कि लेखकों, प्रकाशकों और पाठकों को आपस में मिलने-जुलने, चर्चा-परिचर्चा और विमर्श का मंच बनाना रहा है ताकि वे अपने विचार आपस में साझा भी कर सकें. मेले के लिए पब्लिशर एण्ड बुकसेलर गिल्ड बनाया गया, और वही आज तक यह मेला आयोजित करता आ रहा है. शुरुआती दौर में इसे कलकत्ता पुस्तक मेला के नाम से जाना गया, बाद में यह अंतरराष्ट्रीय बुक फ़ेयर हो गया. पहले मेला कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में लगता था. शहर की आबादी में हुए इज़ाफ़े, ट्रैफ़िक की मुश्किलों के साथ ही किताब के चाहने वालों की तादाद भी बढ़ी तो इसे मैदान से हटाकर सॉल्ट लेक के सेंट्रल पार्क में लगाया जाने लगा. सुशील मुखर्जी इसके पहले संस्थापक अध्यक्ष और जयंत मानक ताला इसके पहले संस्थापक महामंत्री रहे.
यह तो मेले का इतिहास हुआ, अब इस बार में मेले के बारे में बताता हूँ. मेले में घुसते ही अपने प्रिय हिंदी प्रकाशकों के ठिकाने खोजने शुरू किए, मगर इतनी बड़ी तादाद में स्टालों के बीच उन्हें ढूंढ पाना मुश्किल हो रहा था. तभी वहाँ किसी ने सुझाया कि सामने इन्फ़ॉर्मेशन सेंटर से पुस्तक मेले का नक्शा ले लीजिए, आसानी से मेला तभी देख पाएंगे, और अपनी पसंद के प्रकाशकों को ढूंढ भी पाएंगे. उनकी बात सही निकली. नक्शा जुटाया तो पता चला कि इस बार मेले में वाणी प्रकाशन, राजपाल, ज्ञानपीठ के साथ ही चिल्ड्रन बुक सेंटर, आनंद प्रकाशन भी आए हुए हैं. वाणी के स्टॉल पर ख़ासी भीड़ थी, फिर भी अपना इरादा पक्का था कि किताबें देखनी हैं और कुछ किताबें तो जरूर लेनी हैं.
सन् 1991 से पुस्तक मेला किसी एक राज्य पर ख़ासतौर पर केंद्रित होता आया है, जिसे ‘थीम स्टेट’ कहा जाता था. फिर 1997 में राज्य की जगह देश ने ले ली. असम ऐसा पहला ‘थीम स्टेट’ और फ्रांस ऐसा पहला ‘थीम कंट्री’ है. इस बार बांग्लादेश ‘थीम कंट्री’ रहा. यह जानकर भला लगा कि बांग्लादेश के क़रीब 50 स्टॉल इस मेले में शामिल हुए. और मेला बंगबंधु मुजीबुर्रहमान की जन्मशती और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की 50वीं सालगिरह की स्मृतियों को समर्पित है.
बांग्लादेश के साथ ही फ्रांस, रूस, जापान, इटली, अमेरिका, यूके, मेक्सिको, ईरान और स्पेन से आई किताबों के स्टॉल भी मिले. मेले की जीवंतता और इसमें जनभागीदारी इसे अलग पहचान देती है. परवल के साथ पत्रिका ख़रीदने वाला सामान्य भद्रलोक से प्रकाशकों के साथ ही लघु पत्र-पत्रिकाओं, कविता-संग्रह, कहानियों और उपन्यासों को लेकर लेखक ख़ुद रूबरू होता है. ज़ोर-ज़ोर से पुस्तक अंशों का पाठ करके लेखक आपको यह भी बताते हैं कि उनकी किताब में क्या है? ‘दादा, यह कविता इस पुस्तक में है, ले लीजिए’ के आग्रह के बाद किताब में आपकी दिलचस्पी स्वाभाविक रूप से जागती है.
इस बार मेले में छोटे प्रकाशकों और लेखकों के लिए दो पवेलियन अलग से बनाए गए हैं. जहां पर 200 लघु पत्रिकाओं के लेखक-कवि ख़ुद अपनी पुस्तकों से आप का परिचय कराते. इनमें बहुतों को पढ़-सुनकर आपको लगेगा कि उनको लघु की श्रेणी में रखना सतसइया के दोहरा की तरह की बात है, जो देखने में ही छोटे लगते हैं मगर घाव गंभीर करते हैं.
मेले में एक ख़ास पवेलियन लता मंगेशकर की स्मृति को समर्पित था. अलग-अलग क्षेत्र और विधा की सोलह और शख़्सियतों को भी याद किया गया, और उनके नाम पर अलग-अलग जगहों पर पवेलियन बनाए गए हैं. इनमें बुद्धदेव गुहा, बिरजू महाराज,शंखो घोष शामिल हैं.
मेला अब पुस्तक प्रेमियों के साथ शिल्प प्रेमियों का भी अड्डा बना है. पोट्रेट बनाते कलाकार, अपने शिल्प लेकर कलाकार, जगह-जगह छोटी-सी दुकानों में तमाम तरह की कलाकृतियां मेले के कैनवस को और विस्तार देती हैं. ज़ायक़े के क़द्रदानों का भी एक संगम है – फुचका, झालमुड़ी, मुगलई पराठा, नींबू वाली चाय के साथ-साथ इस बार मेले में घूमते हुए लोकनाथ के पापड़-अचार की दुकान भी दिखाई पड़ गई.
यह मेला सही अर्थों में स्वाद का महाकुंभ है फिर चाहे वह किताबों का स्वाद हो या व्यंजनों का रसास्वादन या तरह-तरह के शिल्प देखने-ख़रीदने का आनंद. पाठ-परिचर्चा, लेखकों से मुलाक़ात का सुख, लोक संस्कृतियों का दर्शन भी अब मेले का हिस्सा है. बांग्ला के किसी कवि की दो पंक्तियों के साथ इस मेले को जोड़ना चाहता हूं, जो भद्र लोक का जीवन दर्शन है – अगर आपके पास एक पैसा है तो उसे अपने पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए ख़र्च कीजिए. और यदि आपके पास दो पैसा है तो उससे एक फूल लीजिए. पुस्तकों के बारे में भी उनका यही दर्शन है.
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