लोग-बाग | हौसले से हरियाली लाने वाले पुरुषार्थियों की दास्तान

यों कहावत है कि ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता’ मगर कहा तो यह भी गया है कि ‘हिम्मत-ए-मरदां तो मदद-ए-ख़ुदा’. ये कहानियाँ उन लोगों की हैं, जिन्होंने अपने संकल्प पूरे करने की ठानी और हौसला नहीं छोड़ा.

रुद्रप्रयाग | जिस दो हेक्टेयर ज़मीन पर जंगल उगाने का इरादा जगत सिंह चौधरी ने किया था, जहां महीनों लगाकर उन्होंने बांज, बुरांश, काफल, चम खड़ीक, रिंगाल समेत साठ से ज्यादा देशी और विदेशी प्रजातियों के एक लाख पौधे रोपे, चालीस साल बाद आज वहाँ मिश्रित वन खड़ा है. और अगस्त्यमुनि में कोट मल्ला गांव के जगत सिंह चौधरी का उपनाम ही जंगली पड़ गया.
सन् 1980 में सेना से रिटायर होने के बाद जगत सिंह ने गांव में ही रहकर पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने का संकल्प लिया. अपनी दो हेक्टेयर बंजर भूमि पर उन्होंने पौधे रोपने शुरू किए और लगातार इसी में जुटे रहे. उनकी इस मेहनत का नतीजा केवल मिश्रित जंगल नहीं है, इलाक़े में वर्षों पहले सूख चुके पानी के स्रोत भी वह पुनर्जीवित कर सके. आज यहाँ जंगल हैं, जानवर हैं, साथ ही मिट्टी में नमी और उर्वरता बढ़ रही है.
जंगत सिंह जंगली उत्तराखंड वन विभाग के ब्रांड एंबेसडर हैं, साथ ही केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय की समिति में बतौर विशेषज्ञ सदस्य भी.
(विनय बहुगुणा की रिपोर्ट)

चंबा (टिहरी) | ‘बांज बुरांश की डाली, न काटा न काटा यों रखा जग्वाली, पात्यों मा छा दूध, जड़ियों मा पाणी….’ लोक कवि घनश्याम सैलानी की एक कविता में बांज के पेड़ बचाने का इस आग्रह से प्रेरणा लेकर साबली गांव के एक शख़्स ने अकेले दम पर वीराने में बहार ला दी है.
52 साल के गोपाल बहुगुणा पिछले तीस सालों से वनों के संरक्षण में लगे हुए हैं. गांव को हरा-भरा बनाने के लिए उन्होंने गांव के सौड़ नामे तोक में सन् 1990 से बांज का जंगल उगाने की शुरुआत की. उनकी इस जी-तोड़ मेहनत का नतीजा गांव में बांज का हरा-भरा जंगल है.
(विनोद चमोली की रिपोर्ट)

नई टिहरी | पेड़-पौधे, जंगल, ज़मीन और पानी को कैसे बरतना है, भिलंगना ब्लॉक में निवालगांव के लोगों का हुनर इसकी मिसाल है. यहां के लोगों ने किसी सरकारी सहयोग या मदद के बिना ही उजाड़ हो चुके सौ साल पुराने जंगल को फिर से हरा-भरा कर लिया.
गाँव के पुरखों ने पशुओं के चारापत्ती और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए गांव के ऊपर जंगल पनपाया था, लेकिन बेहिसाब दोहनकी वजह से वर्ष 2003 आते-आते यह जंगल उजाड़ हो गया और हरियाली ग़ायब.
जंगल ख़त्म देख तत्कालीन प्रधान बावन सिंह बिष्ट के साथ लुदर सिंह गुनसोला, सूरत सिंह पंवार, राम प्रसाद पैन्यूली और प्रेम सिंह पंवार ने जंगल को फिर आबाद करने की ठानी. लोगों को जंगल से चारा और लकड़ी न काटने के लिए प्रेरित किया. सन् 2003 से लेकर 2013 तक जंगल में किसी तरह की आवाजाही पूरी तरह से रोक दी गई.
इन दस वर्षो में जंगल फिर से लहलहाया और हरियाली लौट आई. वर्ष 2014 में जंगल को तीन भागों में बांटकर चारापत्ती और सूखी लकड़ी काटने के लिए प्रति वर्ष दो माह के लिए जंगल खोलने की व्यवस्था बनाई गई. तीन साल के अंतराल में जंगल का एक भाग जनवरी और फरवरी में चारापत्ती के लिए खुलता है. इस दौरान हर परिवार से सिर्फ़ एक ही व्यक्ति चारे के लिए जंगल जाता है.
गांव के जंगल में बांज, बुंराश, मोरू, भमोरा, अंग्यार के 60 हजार से अधिक पेड़ हैं. जंगल को दुबारा संरक्षित करने के बाद कभी चारापत्ती की कमी नहीं हुई.
(गंगादत्त थपलियाल की रिपोर्ट)

औरैया | पर्यावरण की कद्र मल्हौसी वालों ने जानी है. 400 हेक्टेयर का इलाक़ा और चार हज़ार की आबादी वाले इस गांव में पीपल के 245 पेड़ इस बात के गवाह हैं.
बेला ब्लॉक के मल्हौसी गांव के शिवा राठौर, राजन गुप्ता, शिवम, गोपाल सोनी का कहना है कि बुजुर्गों ने ये पेड़ वरदान के रूप में दिए हैं. ग्राम प्रधान उर्मिला देवी ने तय किया है कि वे बुजुर्गों की परंपरा बरकरार रखेंगी. पाँच जून को पीपल के ज़्यादा से ज़्यादा पौधे लगाए जाएंगे.
कहते हैं कि काली मंदिर में मन्नत मांगने वाले संतान का जन्म होने पर गांव और मंदिर के आसपास पीपल का पौधा लगाते रहे हैं. राजा लाल नारायण सिंह राव ने मंदिर का वर्ष 1944 में जीर्णोद्धार कराया था. जो लोग पेड़ लगाते हैं, वे पेड़ की हिफ़ाज़त भी करते हैं.
120 वर्ष पहले राजा लाल नारायण सिंह राव ने पीपल के कई पेड़ लगवाए थे. गांव के शिवराज, रामबाबू स्वर्णकार, ओमप्रकाश, जमील, मुश्ताक, याकूब, विवेक त्रिपाठी कहते हैं कि राजा नारायण राव भले आज नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें साथ हैं. वह कह गए थे कि इन पेड़ की छांव में शिक्षा-दीक्षा लें और आने वाली पीढ़ी की सेहत के लिए पीपल के पेड़ लगाते रहें.
(रियाज़ अहमद की रिपोर्ट)

कवर | जगत सिंह जंगली का उगाया हुआ जंगल.


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