रामजानकी भवन को दुष्यंत संग्रहालय बनाने की तैयारी

  • 3:38 pm
  • 20 January 2022

बिजनौर | राजपुर नवादा गाँव में पाँच कमरों और बड़े से आंगन वाली वह हवेली काफ़ी जीर्ण-शीर्ण दिखने लगी है. हवेली में दाख़िल होने के दो रास्ते हैं और इन्हीं में से एक के माथे पर लिखा ‘रामजानकी भवन’ वक़्त की मार से हालांकि अभी बचा रह गया है. सौ साल से ज़्यादा पुरानी यह हवेली दुष्यंत के पुरखों की है. यहीं वह जन्मे और उनका बचपन भी यहीं बीता.

सन् 1950 के आसपास दुष्यंत ने गांव छोड़ दिया था. बिजनौर के बाद नहटौर, मुज़फ्फ़रनगर और इलाहाबाद में रहकर उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की. नौकरी के सिलसिले में कुछ अर्से तक मेरठ और दिल्ली में भी रहे. और फिर जो भोपाल में आबाद में हुए तो वहीं के होकर रह गए. उम्र कुल 42 बरस पाई मगर इस मुख़्तसर-सी ज़िंदगी में अपनी सोच और क़लम से जो छाप छोड़ गए, देश भर में उससे मुतासिर कितनी ही पीढ़ियाँ हैं, जो जब-तब ख़ुद को ज़ाहिर के लिए उनके लिखे को ज़्यादा पुरअसर मानती हैं. उनकी सादा मगर लौह ज़बान शायरी में रुमान के चलन से कहीं आगे हालात और निज़ाम के हाथों बेबस लोगों के अंतस की तर्जुमानी जो करती थी.

राजपुर नवादा नजीबाबाद से 13 किलोमीटर की दूरी पर लबे सड़क आबाद ऐसा गाँव है, जहाँ उनकी ग़ज़लें और शेर बच्चे-बच्चे की ज़बान पर मिल जाते हैं. पिछले पाँच सालों से उनकी पुण्यतिथि और सालगिरह के मौक़े पर बाक़ायदा जलसा भी होने लगा है. गाँव वालों की शिरकत से यह भी हुआ है कि नई पीढ़ी दुष्यंत को ज़्यादा बेहतर जानने-समझने लगी है और वह उनके लिए फ़ख़्र का बायस बन गए हैं.

भोपाल में उनके नाम पर संग्रहालय है, उनके ख़त, पाण्डुलिपियाँ और तस्वीरें वहाँ सहेजी गई हैं. सप्रे संग्रहालय में भी कुछ सामग्री संरक्षित है, मगर उनके गाँव में उनकी स्मृतियाँ संजोने का कोई बंदोबस्त नहीं हो सका हालांकि समय-समय पर यह मांग होती रही थी. हाल ही में बिजनौर के डीएम उमेश मिश्र ने जनसहयोग से इस दिशा में पहल की तो एमएलसी अश्विनी कुमार त्यागी ने भी केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल से मिलकर दुष्यंत के नाम पर संग्रहालय बनाने में मदद का आग्रह किया. वह राज़ी भी हो गए.

इस बीच दुष्यंत के बेटे आलोक त्यागी और कर्नल अपूर्व त्यागी भी बिजनौर आए. संग्रहालय बनाने के लिए उन्होंने अपनी पैतृक हवेली प्रशासन को देने की औपचारिकताएं पूरी कीं. अफ़सरों ने उनके साथ जाकर हवेली देखी भी. डीएम के मुताबिक यहाँ एक सभागार और लाइब्रेरी बनाने की योजना है. इसका नक्शा भी बनवा लिया गया है. इस योजना में आगे का काम चुनाव पूरा हो जाने के बाद ही हो सकेगा.

गाँव में मिल गए मनोज कुमार त्यागी याद करते हैं कि एक बार दुष्यंत दो साल के लिए गांव आ गए थे और यहां रहकर खेती भी की. उन दिनों गाँव के तमाम लोग जब उनके पास जुटते तो साहित्य के बारे में सुनते-जानते, कुछ लोगों ने उनसे लेकर किताबें पढ़ीं. मनोज बताते हैं कि एक बार दुष्यंत ने उन्हें ‘रागदरबारी’ देकर पढ़ने को कहा था. बक़ौल मनोज, गंगा स्नान के मेले में शिरकत के लिए वह भोपाल से आ जाते थे. दशहरे पर रामलीला में लक्ष्मण की भूमिका करते.

गांव के ही आलोक त्यागी ने बताया कि उनके पिता सत्य कुमार त्यागी और दुष्यंत बाल सखा रहे हैं. सत्य कुमार त्यागी याद करते हैं कि गाँव की रामलीला में दुष्यंत लक्ष्मण बना करते थे. और जिस रोज़ मंच पर उनकी भूमिका नहीं होती थी, वह बच्चों के बीच में बैठ जाते और रामलीला देखा करते. सन् 1971 के गंगा मेले में दुष्यंत ने ‘हौले-हौले पांव हिलाओ, जल सोया है छेड़ो मत…’ लिखी थी. और सबसे पहले यह ग़ज़ल सुनने का मौक़ा मुझे मिला था.

उनसे जुड़ी हुई कितनी ही यादें हैं – कुछ एकदम चटख़, कुछ धुंधला गई हैं. बताते हैं – वह जब भी गाँव आते थे, अपनी पुरानी फ़िएट से ही आते थे. वो कहते थे कि रास्ते में कार ख़राब हो जाती है, और इस चक्कर में रास्ते भर के मिस्त्री सारे मित्र हो गए हैं. मैं उनमें अपनी ग़ज़लें ढूंढता हूं. बताया कि दुष्यंत कुमार का आख़िरी ख़त उन्होंने बहुत संभालकर रखा था. मगर कुछ समय पहले वह कहीं इधर-उधर हो गया. वह आज भी जब याद आते हैं तो आंखें छलक आती हैं.


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.