काष्ठ-शिल्प | चित्रकूट की एक और पहचान

इस बार की चित्रकूट की यात्रा के दौरान एक एजेंडा सीतापुर गाँव जाना और उन काष्ठ-शिल्पियों से मुलाक़ात का भी था, जो अपने शहर को एक और पहचान देते हैं और जिनके हाथों से गढ़े खिलौने वर्षों से देखता आया हूँ. उस्ताद शिल्पी गोरेलाल की याद भी उनके गाँव सीतापुर तक जाने की वजह बनी.

गुरुदेव रविंद्र नाथ ठाकुर की कुछ पंक्तियां अचानक याद आ गईं,
बहु दिन धोरे, बहु कोस दूरे,
बहु व्यय करि, बहु देश घूरे,
देखिते गियेछि पर्वतमाला, देखिते गियेछि सिंधु,
देखा हय नाई, चक्षु मिलिया,
घर होते शुधु दूई पा फेलिया,
एकटि धानेर शिशिर ऊपरे एकटि शिशिर बिंदु.

आश्चर्य यह है कि बहुत पैसा ख़र्च करके बहुत दूर पर्वतमाला, सागर देखा किंतु अपने घर के बाहर धान के पौधे के ऊपर ओस की एक बूँद को नहीं देखा.

हमारी भी हालत भी कुछ ऐसी ही थी, जब हम चित्रकूट के काष्ठ-शिल्पियों के गांव सीतापुर में उनके कला-शिल्प को देखने पहुंचे. बरसों-बरस तक दार्जिलिंग, शिमला, गोवा, पुरी, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई घूमते रहे लेकिन इलाहाबाद से सवा सौ किलोमीटर दूर चित्रकूट को कभी एक पर्यटक, जिज्ञासु यात्री या सैलानी की नज़र से नहीं देखा-परखा.

नाज़ुक सिल्वर फ़ॉयल की तरह परत दर परत हटाते जाइए, चित्रकूट की ख़ूबियों की कई चमकीली परतें खुलती चली जाएंगी. वनवासी राम का ठिकाना, तुलसी की चित्रकूट वंदना, साहित्य में चित्रकूट, पुरातत्व, इतिहास, पर्यटन, प्रकृति और पर्यावरण, राजनीति की हर परत पर आपको बहुत कुछ दर्ज मिल जाएगा. यह वही चित्रकूट है, जहां डॉक्टर लोहिया की परिकल्पना के अनुरूप पहली बार 1973 में रामायण मेला लगा.

यह वही चित्रकूट है, जिसे नानाजी देशमुख जी ने अपने ग्राम स्वराज, रामराज्य की प्रयोगशाला बनाकर काम किया. यह भगवान कामतानाथ की भूमि है, जहां दीपावली की अमावस्या को लाखों-लाख तीर्थयात्री दीया जलाकर, परिक्रमा करके मन्नत मांगते आए हैं. मंदाकिनी की मद्धम-मद्धम गति जलधारा है, राम घाट की आरती है, श्रद्धा-विश्वास की तमाम जगहें हैं, जिन्हें देखकर आप अपनी आस्था की गठरी में कुछ और बाँध सकते हैं.

पर इस बार इन सब के साथ एक और एजेंडा था- चित्रकूट में सुपारी और लकड़ी के खिलौने बनाने वाले शिल्पकारों के गांव जाने का. मेरे एनसीज़ेडसीसी के दिनों में वहाँ के शिल्पकार गोरेलाल अपने सुपारी के खिलौने लेकर शिल्पमेला में आते रहते थे. उन्हीं से बातचीत में मालूम हुआ था कि चित्रकूट में शिल्पकारों का एक छोटा-सा गांव सीतापुर है, जहाँ लकड़ी के खिलौने बनाने वाले क़रीब पचास परिवार आबाद हैं.

ये शिल्पी स्थानीय लकड़ी से ख़ूब चटख़ रंग वाले आकर्षक खिलौने बनाते हैं. गाँव पहुंचकर पूछने पर मालूम हुआ कि गोरेलाल जी अब नहीं रहे. उनके बेटे सुरेंद्र से भेंट हुई. वह बताते हैं कि सुपारी के खिलौने बनाना उन्होंने अब कम कर दिया है, और ज़्यादातर लकड़ी के खिलौने ही बनाते हैं. उनका बेटा पुनीत भी इसी पुश्तैनी काम में लग गया है. गुप्त गोदावरी के पास उन्होंने अपनी दुकान भी खोल ली है.

दूसरी और कलाओं की तरह ही खिलौने बनाने का उनका काम भी कोविड की वजह से ख़ासा प्रभावित हुआ है. चित्रकूट के खिलौने ओडीओपी (एक ज़िला एक उत्पाद) में शामिल होने के बाद उन्हें अपने बेटे के बेहतर भविष्य की ज़रूर उम्मीद बंधी है. वह कहते हैं कि सीएचसी यानी कॉमन फ़ैसिलिटी सेंटर बनने के बाद जब कच्चे माल से लेकर निर्माण और बिक्री तक सभी सहूलियतें एक जगह मिलने लगेंगी तो यहां के शिल्पियों के दिन बहुरने की आशा है.

सुरेंद्र बताते है कि खिलौना बनाने के लिये वे स्थानीय लकड़ी का ही उपयोग करते हैं. वन विभाग के ज़रिये वे कौराई और दूधी की लकड़ी ख़रीदते हैं. खराद पर उन्हें आकार देने के बाद गर्म पानी में लाख गलाकर रंग मिलाते और यही रंग खिलौनों पर करते हैं.

सुपारी से शिल्प गढ़ने के लिए अच्छी और बड़े आकार सुपारी की ज़रूरत होती है. सुपारी के खिलौने हाथ से ही बनते हैं, इसलिए इसमें समय ज़्यादा लगता है. यह बताना नहीं भूलते हैं कि उनके पुश्तैनी हुनर की पहुंच पहले शिल्प हाट और मेलों तक सीमित थी, मगर अब वे दुकानों और इम्पोरियम के ज़रिये भी क़द्रदानों तक पहुंच रहे हैं.

सुरेंद्र के पिता स्वर्गीय गोरे लाल इस हुनर के उस्ताद थे. उन्हें राज्य सरकार और केंद्र सरकार की ओर से शिल्प गुरु सम्मान भी मिला था. पिता को मिला तामपत्र दिखाते हुये सुरेंद्र गर्व से बताते है कि उनके पिता के बनाए हुए खिलौनों को किन-किन विशिष्ट लोगो के संग्रह में जगह मिली है.


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