पटना से पोटोमैक यानी परदेस में छठ
“उट्ठए जऔ पोती, भींसर भ गेल, मम्मी असगरे बना रहल छैथ, अहाँ सब सुतल रहू” छठ के मौक़े पर अकेले में भी दादी-अम्मा की आवाज़ें कानों में गूंजा करती हैं. मेरे लिए छठ का मतलब गांव का वह घर है, जहां आंगन में एक तरफ़ बनी रसोई में मिट्टी के चूल्हे पर सुबह चार बजे से ही ठेकुआ बनने लगता था. सबसे पहले उठकर दादी हम सारे बच्चों को जगातीं. हमें हिलाते-जगाते हुए वह कहती रहतीं कि ‘मम्मी अकेले सब काम कर रही है और तुम सब सोए हुए हो’, फिर हम सारे बच्चे नाक-मुंह बनाते हुए ठंडे पानी से नहा-धोकर धीरे-धीरे प्रसाद बनाने के लिए रसोई में घुस जाते.
दादी, चाची और मां सब मिलकर तब तक आधे से ज्यादा प्रसाद बना चुकी होती थीं, लेकिन हम लोगों को छठ और इसकी परंपराओं से जोड़ने के लिए ऐसा किया जाता था. छठ दरअसल सिर्फ़ ठेकुआ या माथे से खींचकर नाक तक लगाई जाने वाली सिंदूर की रेख भर नहीं है, बल्कि छठी माई का वह गीत है जिसे सुनकर आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं. इस पर्व में किसी को अर्घ्य देते हुए देखने से ज्यादा निर्मल, स्वच्छ शायद ही कुछ हो.
इस ज़माने में तकनीकी ने यह संभव कर दिया है तो हम सभी अपने अपनों को अर्घ्य देते हुए देख तो ज़रूर लेते हैं और आशीर्वाद भी ले लेते हैं पर वह भाव, वह उल्लास कहां से लाएंगे जो घाट पर मौजूद रहकर मिलता था. छठ में इतने काम होते हैं कि हमेशा एक हड़बड़ाहट सी लगी रहती है…कभी गेहूं सुखाना, कभी प्रसाद तो कभी घाट बनाना होता है. खरना की रात, कल के सूर्यास्त और सूर्योदय का समय अमूमन हर घर में देखा जाता है, साथ ही साथ सुबह-सुबह उठने के लिए हिदायत के साथ अलार्म भी लगा लिया जाता है. इंस्टाग्राम पर घंटों तक रील्स देखकर या दूसरों की टाइमलाइन पर त्योहार की तस्वीरें पाकर त्योहर के दिनों में भी मन उदास हो जाता है. घर नहीं जा पाने की कसक मन से नहीं जाती. आजकल छठ पर जो लोग अपने घर नहीं लौट पाते वे अपने हिस्से का उल्लास वीडियो कॉल या सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ढूंढते हैं.
कभी सोचा नहीं था कि घर से इतनी दूर यहां वाशिंगटन डी.सी. में छठ मनाने की अनुभूति महसूस कर सकूंगी. यहां वाशिंगटन मेट्रो एरिया में बिहार-झारखंड कम्युनिटी के लोग छठ मनाते हैं. कई देशों में जैसे ऑस्ट्रेलिया के सिडनी, मेलबर्न, अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया, टेक्सस, नॉर्थ कैरोलिना, न्यू जर्सी में बिहार-झारखंड एसोसिएशन की ओर से बड़े पैमाने पर इसका आयोजन किया जाता है. अमेरिका आने के बाद छठ का यह मेरा पहला अनुभव था, फ़ेसबुक से मैंने छठ पूजा के आयोजन का पता किया. जब तक आप अपने देश में होते हैं, अपनों के पास होते हैं तो आपको यह मालूम करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती और न ही कभी यह अहसास होता है कि पर्व-त्योहार मनाने के लिए भी कैसी-कैसी कोशिश करनी पड़ती है. कुछ चीज़ें बस हो जाती हैं, उनके लिए अलग से माहौल नहीं बनाना पड़ता.
यहां खरना में हम लोग भी सम्मिलित हुए और पता नहीं कितने दिनों के बाद लोगों को भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका और बज्जिका आदि अपनी-अपनी बोलियों में बात करते सुना. खरना का भोग खीर और रोटियां गैरेज में नए चूल्हे पर बनाया जा रहा था. प्रसाद बनाने में जिसे भी मदद करनी है, सीधे वहीं जा रहे थे. घर में प्रसाद के बाद खाने का इंतज़ाम बेसमेंट में किया गया था, ताकि गलती से भी ऊपर आकर कोई कुछ छू न दे. साथ ही घर के मुख्य किचन के सारे कैबिनेट में मोटे-चौड़े टेप लगा दिए थे. यह एहतियात इसलिए की गई कि कैबिनेट में रखे सामान्य दिनों के बर्तन और सामान ग़लती से भी पूजा के सामान में मिल न जाएं.
यहां भी उसी तरह पूरी साफ़-सफ़ाई, सतर्कता और नियमों को ध्यान में रखते हुए सारे फल और सब्ज़ियां लाई जाती हैं. चूंकि यह देशज पर्व है तो एक-एक फल या सब्ज़ियां – कच्ची हल्दी, सुथनी – ढूंढ पाना मुश्किल है, फिर भी लोग – पटेलब्रदर्स, लौटे प्लाज़ा, इंडिया बाज़ार, होलफ़ूड मार्केट, अमेज़न से – सभी फल-सब्ज़ी, सूप, डाला आदि सब कुछ जुटा लेते हैं. छठ में कुछ ऐसी फल सब्ज़ियां (गागर नींबू, सुथनी) भी अर्घ्य में चढ़ती हैं, जो पूरे साल नज़र नहीं आती लेकिन छठ पूजा में तो चाहिए ही चाहिए. इस लोक पर्व में जीवन के हर तबके को शामिल किया जाता है. खरना के दिन प्रसाद बनाते वक़्त शारदा सिन्हा के गीत जब कानों में पड़ते हैं तो हम सब शायद उसी घर-आंगन में पहुंच जाते हैं, जहां से हम सब जुड़े हैं. लेकिन अचानक प्रसाद बनाते हुए जब आपकी नज़र खिड़की से बाहर पड़ती है तो वहां पतझड़ के रंग-बिरंगे पत्ते दिखते हैं, तब लगता है, ‘अच्छा ये तो डी.सी. है.’
इस पर्व में स्वच्छता का बहुत ध्यान रखना होता है, बचपन में हम भाई-बहनों को छठ में हर वक़्त इसलिए ही डांट पड़ती थी कि कुछ भी छूने से पहले हाथ धोना होता था और फिर हाथ से छीटें नहीं उड़ाने होते थे. बचपन में सुने ठीक यही शब्द मेरे कानों में अर्घ्य के सूप सजाते वक़्त गूंज रहे थे. जब आप अपने घर-परिवार से दूर होते हैं तो आप अपने आस-पास के लोगों के साथ एक छोटी-सी दुनिया बना लेते हैं और उन्हीं स्मृतियों को जीते हैं, जिनसे आप बने हैं. वह चाहे अर्घ्य के लिए सूप सजाना ही क्यों न हो. आप यह सब करते हुए उसी घर-आंगन में पहुंच जाते हैं, जहां से आप बने हैं, जो आपके अंदर बसा हुआ है. जिसने आपकी निर्मिती में अहम् भूमिका निभाई है.
पहले अर्घ्य के दिन सुबह-सुबह जब अपने घर से हम लोग प्रसाद और घाट बनाने के लिए जा रहे होते थे तो हमने गाड़ी में छठ के गीत लगाए और इस वक्त हमने महसूस किया कि कभी-कभी इस भागती बड़ी सी दुनिया के बीच इंसान अपनी एक छोटी-सी दुनिया बनाकर अस्मी के बोध को बस जी लेता हैं. चार दिन का पर्व जब पूरा होता है तो अचानक जीवन में एक अजीब-सा खालीपन भर जाता है. हां, सुबह के अर्घ्य के बाद वह अपने अंदर निर्मलता, सौम्यता और परिपूर्णता का बोध करता है.
छठ इस बार सप्ताहांत पर था तो सभी का इसमें शामिल होना आसान हो गया था, किसी को अलग से छुट्टी लेने की ज़रूरत नहीं पड़ी. वाशिंगटन डी.सी. पोटोमैक नदी के किनारे बसा है. यहां वाशिंगटन मेट्रो एरिया के अल्गोंकियन रीज़नल पार्क से व्रती हर साल ढलते और उगते सूर्य को अर्घ्य देते हैं. छठ की शुरुआत यहां सन् 2006 में मनीषा सिंह और कृपाशंकर सिंह ने की और फिर यह सिलसिला बढ़ता गया. विदेश में रहने वाले हर परिवार की लालसा होती है कि अपने देश लौटकर अपनों के बीच छठ मनाना चाहता है मगर कई बार नौकरी और छुट्टियों का ताल-मेल नहीं बैठ पाता. कई परिवारों में बच्चों के स्कूल, कॉलेज में छुट्टियाँ नहीं होने की वजह से भी धीरे-धीरे लोगों ने इसे यहीं मनाना शुरू कर दिया. अपने बच्चों को अपनी संस्कृति से जोड़ने के लिए भी उन्हें यह उचित लगा.
इस पर्व में सिर्फ़ बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश के लोग शामिल नहीं होते बल्कि नेपाली समाज की हिस्सेदारी भी बढ़-चढ़ कर होती है. छठ के पोस्टर्स चूंकि इंडियन स्टोर्स (पटेल ब्रदर्स, इंडिया बाज़ार) और हिन्दू मंदिरों मंग लगा दिए जाते हैं, इसलिए इसमें शामिल होने के इच्छुक लोगों को स्थान-समय की जानकारी मिल ही जाती है. छठ देखने की लालसा लोगों को सात डिग्री तापमान में भी खुले आसमान के नीचे खींच लाती है. पहली बार शामिल होने वालों को उनके दोस्त साफ़ और धुले कपड़े पहन कर आने की सलाह देते है ताकि घाट पर मौजूद सारे लोग अर्घ्य दे सके.
यहां अंग्लोकियन रीज़नल पार्क में छठ करने के लिए पार्क की अथॉरिटी से परमिट लेना पड़ता है. साथ ही यह ज़िम्मेदारी भी लेनी होती है कि पार्क में कोई भी गंदगी नहीं फैलाई जाएगी और न ही किसी जानवर को परेशान किया जाएगा. इस पार्क में बहुत सारे हिरण हैं, और अक्सर पार्क की तरफ़ जाने वाली सड़क के किनारे या कभी-कभी बीच सड़क में भी बैठे हुए मिल जाते हैं. इसलिए बीस मील की रफ़्तार से धीरे-धीरे गाड़ी चलाते हुए हम सभी छठी माई के दर्शन को पहुंचते हैं. इस अंग्लोकियन पार्क में छठ के लिए पोटोमैक नदी किनारे एक ख़ास जगह तय कर दी गई है. यह ध्यान रखा जाता है कि अर्घ्य देने की जगह पार्किंग से नज़दीक हो.
पहले अर्घ्य के दिन छठ समिति के सदस्य और स्वयंसेवी सुबह-सुबह पहुंचकर घाट की सफ़ाई करते हैं, बिजली और बैठने का इंतज़ाम करते हैं. पूरे घाट को बीचों बीच एक रस्सी से बांट दिया जाता है, रस्सी के एक तरफ़ टेंट लगाया जाता है, जिसमें अर्घ्य देने के पहले व्रती इंतज़ार करती हैं. टेंट के पीछे कुर्सियां रहती हैं ताकि बच्चे या बुज़ुर्ग बैठ सकें. रस्सी के दूसरी तरफ़ की जगह कायाकिंग, फ़िशिंग आदि के लिए ख़ाली छोड़ देते हैं. घाट पर आने वाले अपने चप्पल-जूते दूसरी ओर उतार कर ही आते हैं. अपने परिवार के साथ बच्चे भी छोटे-छोटे सूप, डाला लेकर नंगे पांव पार्किंग से घाट की तरफ बढ़ते मिले.
अक्टूबर से पारा गिरना शुरू हो जाता है तो सुबह और शाम को तापमान अमूमन दस डिग्री से कम ही रहता है. शाम के अर्घ्य के लिए जैसे ही आप नदी में उतरते हैं, मालूम होता है कि पांव बिलकुल जम गए है, रोम-रोम में सिरहन भर जाती है लेकिन दो-एक मिनट बाद सहज लगने लगता हैं. उमंग और लालसा से भरे लोग इतने ठंडे पानी में भी किनारे पर नहीं रुक रहे थे, छोटे-छोटे समूह में आकर व्रती के सूप में अपनी बारी के अनुसार जल-दूध से अर्घ्य देते हुए नदी से बाहर निकलते जा रहे थे. शाम के अर्घ्य में शामिल हुए लोग सुबह साढ़े पांच बजे से घाट पर पहुंचना शुरू कर देते हैं.
सुगंधित फूल, अगरबत्तियों और दीपों से सजे घाट का माहौल, आपकी स्मृति में दर्ज पटना, बनारस या दिल्ली के घाट-सा ही लगता था. स्त्रियां ख़ुद ही सभी सुहागिनों को नाक से सिंदूर लगाते हुए उन्हें मंगल जीवन का आशीर्वाद दे रही थीं. यह परंपरा भी है कि जिनके घर किसी वजह से छठ नहीं मनाया जाता, वे अपने छठ का डाला किसी दूसरे परिवार के सुपुर्द कर देते हैं- अर्घ्य देने लिए. यहां भी व्रत नहीं रख सके लोग अपनी ओर से छठ करने वालों को सूप लाकर सौंप देते हैं. इसलिए छठ किसी एक घर-परिवार का नहीं बल्कि पूरे लोक का पर्व होता है. चूंकि यहां कुछ परिवारों में ही छठ होता हैं तो इस बात का ख़ास ध्यान रखा जाता है कि प्रसाद सभी को मिले.
घाट से बाहर निकलने वाले रास्ते पर छठ समिति के दो सदस्य प्रसाद और फल के दो बड़ा बैग लेकर बैठे हैं – जिससे सब लोगों को प्रसाद मिल सके. घाट पर चाय, कॉफ़ी का इंतज़ाम भी है, अर्घ्य के बाद नाश्ता करने के इच्छुक पार्किंग के पड़ोस में लगे स्टाल्स पर पकौड़े या समोसे भी खा सकते थे. पूरे घाट पर व्रती प्रसाद बांट रही थीं, कुछ लोग खाने में व्यस्त थे, बच्चे आतिशबाज़ी में मग्न थे और कुछ लोग इस दिलकश मंज़र की तस्वीरें बनाने में मशगूल थे. उत्सव के इंतज़ाम के काम यहां छोटे-छोटे ग्रुप में बांट दिए जाते हैं, ताकि किसी एक पर सारी ज़िम्मेदारी न आ जाए, पोस्टर, बैनर, साइनबोर्ड्स बनाने हो या इंडियन शॉप्स, मंदिर में जाकर उन्हें लगाना या घाट सजाना हो. पूजा पूरी होने पर कुछ ख़ास लोगों को ज़िम्मेदारी सौंपी जाती है कि वे देख लें कि पूजा के बाद कोई फल, दूध की बोतलें या प्लास्टिक बैग घाट पर फेंके हुए न छूट जाएं.
परदेस में दरअसल यही दोस्त या कहें कि कम्युनिटी आपका परिवार बन जाते हैं, एक दूसरे के सुख-दुख के साथी. वतन से दूर इस तरह के पर्व-त्योहार की भूमिका इसलिए और बढ़ जाती हैं क्योंकि ये अपनी संस्कृति सहेजने का मौक़ा देते हैं, पराई जगह में अकेलेपन के बोध से निजात दिलाते हैं. भारत की घड़ी यहां से साढ़े नौ घंटे आगे हैं, इसलिए जब यहां शाम का अर्घ्य देकर व्रती कोसी पूजन कर रहीं होतीं तो भारत में सुबह के अर्घ्य का इंतजार हो रहा होता. दोनों ही जगह व्रती छठी माई के गीतों से सूर्य देव को जल्दी दर्शन देने की प्रार्थना कर रही होतीं. व्रती चाहे यहां वाशिंगटन डी.सी. में पोटोमैक नदी के घाट से ढलते सूर्य को अर्घ्य दे या पटना में गंगाघाट से, हर व्रती के मन में अपने कुल, परिवार और संसार के लिए मंगलकामना ही रहती है.
(डॉ.शांभवी हिंदी में पीएचडी हैं और वाशिंगटन डीसी में रहती हैं.)
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