अहमद फ़राज़ः मुंह से आग लगाए घूमने वाला शायर
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तारीख़ 17 फरवरी 2007. अलीगढ़ के होटल मेलरोज़ इन का कमरा नंबर 202. थोड़े से खुले दरवाज़े को खटखटाने पर अंदर आने का आमंत्रण गूंजता है. सोफ़े पर शहरयार और धुएं के छल्लों के पीछे बेड पर अहमद फ़राज़ बैठे मिले. सामने मेज पर पड़ा रॉथमैंस का पैकेट और पास ही ऐश ट्रे में भरे टोटे. मेंहदी हसन, ग़ुलाम अली, बेगम अख़्तर, जगजीत सिह के सुरों में सजे जिस शख़्स के अशआर लाखों-करोड़ों दिलों में हलचल पैदा कर जाते हैं, जिसकी शायरी में इतनी आंच महसूस की जाती हो कि वह हुकूमत को ख़तरा लगने लगे, वही शख़्स यहां मुंह से आग लगाए बैठा है. थोड़ी-थोड़ी देर में उनकी सिगरेट ऐश ट्रे के हवाले होती रही और नई सिगरेट के फ़िल्टर को गिलास के पानी में डुबाकर जब वह जलाते तो शोले की आंच में उनके चेहरे की रंगत भी सुर्ख़ हो जाती. बुलंद आवाज़ में ठहर-ठहर कर बोलने वाला यह शायर ज़िंदादिल और बेफ़िक्र इंसान है. गंभीर बातचीत के दौरान भी उनकी चुटकियां इस बात की गवाही देती हैं.
फ़राज़ मानते हैं कि बड़ी शायरी कहीं ठहरती नहीं. समय के साथ उसके नए-नए मायने खुलते जाते हैं. हवाला देते हैं कि छोटी क्लास में ग़ालिब को जितना पढ़ा और समझा, बीए-एमए तक आते-आते उससे कहीं ज़्यादा और अलग समझ में आए ग़ालिब. और बाद में उन्हें और तरह से समझा. शायरी की ज़बान को आमफ़हम बनाने को कोशिश के वह क़ायल नहीं. तर्क देते हैं कि अदब और अवाम की ज़बान कभी एक नहीं रही और इसकी वजह साफ है. अदब का अपना मेयार है और इसे निबाहे बिना चलेगा नहीं. अवाम को भी अदबी ज़बान समझने के लेवल तक आना होगा.
ख़ुद अपनी शायरी के चस्के के बारे में पूछने पर स्कूल के दिनों की दोस्त सआदत और उसकी सोहबत में बैतबाज़ी के सिलसिले को याद करते हैं, जिसकी बदौलत ख़ुद शेर कहने का ख़्याल आया और जिसकी कोशिश ने उन्हें कॉलेज के दिनों में ही शायर बना दिया और इस शायरी की बदौलत ही उन्हें रेडियो की पहली मुलाज़मत का मौक़ा मिला.
हिंदुस्तान और पाकिस्तान में होने वाले मुशायरों में फ़र्क के बारे में अहमद फ़राज़ बताते हैँ कि पहले कराची और लाहौर में मुशायरों का चलन था मगर अब वह भी नहीं रहा. हिंदुस्तान में लोकतंत्र है और पाकिस्तान में फ़ौजी हुकूमत. प्रोटेस्ट की शायरी वहां हरगिज़ गवारा नहीं. आयोजक घबराते हैं और टीवी-रेडियो पर प्रसारण भी ख़ासी पड़ताल के बाद ही होता है. साथ ही यह भी जोड़ते हैं कि अच्छी शायरी के क़द्रदान दोनों जगह कम हुए हैं. यही हाल मुशायरों के मंच का भी है, पहले के शायर तहरीरी भी होते थे मगर आज के दौर में तो सिर्फ़ ज़बान के होकर रह गए हैँ. मंच पर पढ़ते हैं और मंच के लिए ही लिखते हैं.
कहते हैं कि नई नस्ल के शायर चमक-दमक वाले हैं. कुछ चल निकलते हैं तो मीडिया-टीवी की तरफ खिंच जाते हैं और जुगनू की तरह कुछ दिन ही टिमटिमा पाते हैं. उनमें जुनून की हद तक का सफ़र तय करने का माद्दा नहीं होता, जबकि शायरी लंबा सफर है. यही हाल हिंदुस्तान का भी लगता है. और पिछली पीढ़ी के मुकाबले ज़बान का फ़ासला भी है. सिर्फ़ हिन्दी और संस्कृत नहीं, अरबी और फ़ारसी के लिटरेचर से नावाकफ़ियत की वजह से उनको तजुर्बे की वह सौग़ात मिली ही नहीं, जो दरअसल उनकी पिछली पीढ़ियों की थाती थी. नतीजा यह कि उनका जख़ीरा-ए-अल्फ़ाज़ मामूली बनकर रह गया.
शायर के समाजी सरोकारों के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि सिर्फ़ पॉजिटिव देखना ठीक नहीं, उसके विपरीत देखना भी जरूरी होता है. तमाम बार निगेटिव सोचना भी पॉजिटिव की तरह ही होता है.
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