फूलों में ख़ुशबू, आग में तपिश की तरह ही नाटकों में थोड़ी नाटकीयता भी बची रहे
भेड़िए सिर्फ ख़ूंख़ार और आदमख़ोर नहीं होते. वे अव्वल दर्जे के चालाक और धूर्त भी होते हैं. भेस बदलने की कला भी उन्हें ख़ूब आती है. वे भेड़ों के झुण्ड में भेड़ बनकर शामिल हो सकते हैं और मौक़ा हाथ लगते ही अपने पैने दांतों से उनकी खाल चीर सकते हैं. भेड़ बेचारे इतने मासूम होते हैं कि अपने बीच छुपे भेड़िए की शिनाख़्त तक नहीं कर पाते!
भेड़िए अपनी छोटी-मोटी जांच-समिति भी गठित कर सकते हैं, जहां मेमने के खिलाफ आरोप तय किए जा सकें और फिर उसे माक़ूल सज़ा सुनाई जा सके. मेमने का दोष बस इतना है कि वह हरी-मुलायम घास चरने और कुलांचे भरने के फेर में अपने झुण्ड से अलग हो गया है. भेड़िए जिरह करते हैं और चूंकि वे बहुत न्यायप्रिय होते हैं इसलिए मेमने को सफ़ाई का मौक़ा भी देते हैं. अंततः यह साबित हो जाता है कि सारा क़सूर मेमने का है. उसे सज़ा सुनाई जाती है. नर्म-मुलायम गोश्त वाले गदबदे मेमने को लोलुप भेड़िए और क्या सज़ा सुना सकते हैं? भेड़िया मेमने से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या?
खारू का खरा किस्सा अभी कुछ आगे चलकर शुरू होने वाला है. यह तो वे बोध-कथाएं हैं, जो दादाजी अपने पोते को सुना रहे हैं. भेड़िए सिर्फ़ बाहर नहीं होते. वे इंसान के भीतर भी होते हैं. अपने भीतर छुपे भेड़िए को पहचानने की ज़रूरत होती है. जाने-अनजाने इसका जितना पोषण किया जाएगा यह उतना ही हिंस्र और ख़ूंखार होता जाएगा और आख़िरकार जीत भी उसी की होगी.
भेड़ियों के उत्पात मचाने के लिए मंच को बिल्कुल ख़ाली छोड़ दिया गया है. यहाँ बस एक सन्नाटा पसरा हुआ है, जैसे किसी रेगिस्तान में पाया जाता है. यहां से भुवनेश्वर की मूल कथा शुरू होती है, जो आज़ादी से भी बहुत पहले प्रेमचंद की ‘हंस’ में छपी थी. यह आख्यान रोंगटे खड़े कर देने वाला है. जान पर बन आए तो इंसान वह सब कुछ कर सकता है जो उसे करना चाहिए और वह सब भी जो उसे नहीं करना चाहिए. जान पर बन आए तो पशुओं के पंख उग आते हैं. वे भागते नहीं उड़ते हैं. उनका उड़ना भी काम नहीं आता है. एक-एक कर सारे मारे जाते हैं. तीन नटनियां मारी जाती हैं जो बेचारी पंजाब के हल्के में बिकने जा रही थीं. वे बिक जातीं तो उनका नसीब सुधर जाता, पर उनकी क़िस्मत में बिकना भी नहीं बदा था. दादाजी भी मारे जाते हैं जो बक़ौल उनके कुछ ज्यादा ही जी चुके हैं और अब समय के मुंह पर थूककर ज़बरदस्ती ज़िंदा हैं. बच जाता है सिर्फ खारू. खारू किसी से नहीं डरता-सिवाय भेड़ियों के!!!
मंच पर सचमुच कुछ भी नहीं था. सिर्फ़ एक बक्से और पहिए के सहारे गड्डे का ताना-बाना रचा गया और घुंघरुओं की आवाज़ गड्डे की गति का आभास दे रही थी. अभी थोड़ी देर पहले एक नटनिया बैलों के गले में बंधे घुंघरुओं की आवाज़ से मस्त होकर नृत्य करने में लगी हुई थी. दादाजी अनुभवी हैं. सारी आवाज़ों से ऊपर भेड़ियों की आवाज को पकड़ लेते हैं. लड़का मसखरी में है. उसे लगता है कि बुढ़ऊ उम्र की वजह से थोड़ा सनकी हो गया. पार्श्व में भेड़ियों की आवाज़ें बढ़ती जा रही हैं. बैल अब गड्डे को भगा नहीं उड़ा रहे हैं पर भूखे भेड़ियों की गति उनसे कहीं ज्यादा है. भेड़ियों का झुंड अब बिल्कुल नज़दीक है. उन्हें देखा जा सकता है पर गिना नहीं जा सकता. वे एक-दो नहीं, दस-बीस नहीं बल्कि कोई दो सौ से भी ऊपर हैं. भूखे हैं!!
मंच पर थिरकती रहस्यमयी रोशनी, घुंघरुओं की क्रमशः तेज़ होती आवाज़, कलेजे को चीर देने वाला भेड़ियों का सामूहिक क्रंदन, भेड़िए बने अभिनेताओं की लय और गति, और इन सबके बीच खारू की खरी क़िस्सागोई! दर्शकों के ज़ेहन में ख़ौफ़-सा तारी हो गया है. लग रहा है कि वे ख़ुद बैलगाड़ी में सवार हैं और किसी तरह जान बचा लेनी चाहिए. जान बच तो जाती है पर लगता है कि लहू थोड़ा सूख-सा गया है!
जंगलों में भेड़िए अब बहुत थोड़े बचे हैं. उनका ठिकाना बदल गया है. भेड़िए भेस बदलने में भी माहिर होते हैं. वे आपके आस-पास भी हो सकते हैं और आपके अंदर भी. भेड़ियों से बचाव का पहला उपाय भेड़ियों की शिनाख्त है.
निर्देशक प्रवीण शेखर और उनकी पूरी टीम ने नाटक खेलने के साथ-साथ यह भी बताया कि नाटक क्या होता है. जैसे फूलों में ख़ुशबू या आग में थोड़ी तपिश रहनी चाहिए, वैसे ही नाटकों में थोड़ी नाटकीयता भी बची रहनी चाहिए. डिज़ाइन और डिवाइस के जिस्म में ड्रामे की रूह घुट रही है. यह नाटककारों की अपनी और दर्शकों की सेहत के लिए भी अच्छी बात नहीं है. प्रवीण शेखर का नाटक इस चलन का पूरी ताकत के साथ प्रतिकार करता है.
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