साहिर लुधियानवी | मेहनकशों और मजलूमों के साथ खड़ा शायर

  • 3:46 pm
  • 25 October 2020

लाहौर छोड़ने के बाद दिल्ली में कुछ वक़्त बिताकर साहिर लुधियानवी जब बंबई गए, तब तक उनका पहला संग्रह ‘तल्ख़ियाँ‘ छप चुका था और वह मशहूर हो चुके थे. अपनी ग़ज़लों, नज़्मों की बदौलत उन्हें ख़ूब शोहरत और अवाम का ढेर सारा प्यार मिला. कम समय में यह सब हासिल हो जाने के बाद भी रोजी-रोटी का सवाल उनके सामने बना रहा. मुल्क की आज़ादी के बाद उन्हें नई मंज़िल की तलाश थी. यही तलाश 1949 में उन्हें बंबई ले गई.

वहाँ आजीविका के लिए उन्होंने कई छोटे-मोटे काम किए. उनकी लिखावट बहुत साफ़ औऱ सुंदर थी. और इसका फ़ायदा यह हुआ कि फ़िल्म की पटकथा लोग उनसे लिखाने लगे, ताकि अभिनेता उसे ढंग से समझ-पढ़ सकें. साहिर पन्ने के हिसाब से अपना मेहनताना वसूल करते. इस काम की वजह से वह कई फ़िल्म निर्माताओं के सीधे संपर्क में आ सके. मौक़ा देखकर कभी-कभार उन्हें अपनी रचनाएं भी सुना देते. फिर वह दिन भी आया, जब उन्हें गीत लिखने का मौका मिला. फ़िल्म ‘आज़ादी की रात’ (1949) के लिए पहली बार उन्होंने चार गीत लिखे. लेकिन न तो वह फ़िल्म चली और न ही उनके गीत.

यों फ़िल्म की दुनिया में क़ामयाबी के लिए उन्हें ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा. 1951 में आई ‘नौजवान’ उनकी दूसरी फ़िल्म थी. एसडी बर्मन के संगीत से सजी इस फ़िल्म के सभी गाने सुपर हिट हुए. ख़ासतौर पर लता मंगेशकर का गया हुआ गाना ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं…’ फ़िल्म संगीत के चाहने वाले आज भी यह गीत यह गीत पसंद करते हैं. ‘नौजवान’ के गीतों की क़ामयाबी के बाद नवकेतन फ़िल्म्स की ‘बाज़ी’ अगले साल आई, और इसने साहिर को बतौर गीतकार स्थापित कर दिया. इसका संगीत भी एसडी बर्मन ने ही तैयार किया था. एसडी बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी ने कई सुपर हिट फ़िल्में दीं – ‘जाल’, ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘हाउस नं. 44’, ‘मुनीम जी’, ‘देवदास’, ‘फंटूश’, ‘पेइंग गेस्ट’ और ‘प्यासा’ ऐसी ही फ़िल्में हैं. ‘प्यासा’ बॉक्स ऑफिस पर भले ही क़ामयाब नही रही मगर इसके गीत खूब चले. फ़िल्मी दुनिया में साहिर को बेशुमार शोहरत मिली. एक वक़्त ऐसा भी कि अपने गीत के लिए उन्हें लता मंगेशकर से एक रूपया ज्यादा मेहनताना मिलता था.

उनके फ़िल्मी गानों में भी अच्छी शायरी होती थी. साहिर के आने से पहले हिन्दी फ़िल्मों में जो गाने होते थे, उनमें शायरी कभी-कभार ही दीखती. मजरूह, कैफ़ी आजमी और साहिर की आमद के बाद फ़िल्मों के गीत और उनका मिज़ाज भी बदला. गीतों की जबान बदली. हिन्दी, उर्दू से इतर गाने अब हिन्दुस्तानी ज़बान में लिखे जाने लगे. इश्क-मोहब्बत के अलावा समाजी-सियासी नज़रिया भी इनमें झलकने लगा. सबसे बड़े बदलाव का श्रेय साहिर को जाता है. अपने शायराना गीत फ़िल्मों में रखने को लेकर कई बार फ़िल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से वह भिड़ भी जाते थे. अपने फ़िल्मी गीतों की किताब ‘गाता जाए बंजारा’ की भूमिका में साहिर लिखते हैं,‘‘मेरी हमेशा यह कोशिश रही है कि यथासंभव फ़िल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के नजदीक ला सकूं और इस तरह नए सामाजिक और सियासी नज़रिये को आम अवाम तक पहुंचा सकूं.’’

उनकी यह बात सही भी है. उनके फ़िल्मी गीतों पर ग़ौर करें तो ज्यादातर में कोई ऐसा विचार मिलेगा, जो सुनने वालों को सोचने पर मजबूर करता है. ‘वो सुबह तो आएगी..’ (फिर सुबह होगी), ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर…..’, ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है..’ (प्यासा), ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमां बनेगा…’ (धूल का फूल), ‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को….’ (साधना) जैसे कई गीत हैं, जिसमें ज़िंदगी का फ़लसफ़ा नज़र आता है. ये फ़िल्मी गीत मनोरंजन से आगे जागरूक भी करते हैं, एक सोच, नया नज़रिया देते हैं.

साहिर से ग़ैरत को हमेशा तवज्जो दी और इस पर कभी समझौता नहीं किया. फ़िल्मों में अब तो रिवायत बन गई है कि संगीतकार पहले धुन बनाते हैं, फिर उस धुन पर गीत लिखे जाते हैं. पहले भी ज्यादातर संगीतकार ऐसा ही करते थे, लेकिन साहिर अलग मिट्टी के बने थे. वह इस रिवायत के ख़िलाफ़ थे. अपने फ़िल्मी कॅरिअर में उन्होंने गीत को हमेशा धुन से ऊपर रखा. पहले गीत लिखा और फिर बाद में वह संगीतबद्ध हुआ. ओपी नैय्यर के संगीत निर्देशन में ‘नया दौर’ का गीत ‘मांग के साथ तुम्हारा, मैंने मांग लिया संसार…’ ही अकेला इसका अपवाद है.

‘वह सुबह कभी तो आएगी….’ मेहनतकशों, कामगारों और नौजवानों ने बहुत पसंद किया. सुने वालों को इस गीत में अपने जज़्बात की अक्काशी दिखी. बंबई की वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इस गीत के लिए साहिर का सार्वजनिक अभिनंदन किया और कहा,‘‘यह गीत हमारे सपनों की तस्वीर पेश करता है और इससे हम बहुत उत्साहित होते हैं.’’ एक गीत और एक शायर को इससे बड़ा मर्तबा भला और क्या मिल सकता है. और गीत है भी ऐसा, जो लाखों लोगों में एक साथ उम्मीदें जगा जाता है, ‘वह सुबह कभी तो आएगी/ बीतेंगे कभी तो दिन आखिर, यह भूख के और बेकारी के/ टूटेंगें कभी तो बुत आख़िर, दौलत की इजारेदारी के/ जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी/…वह सुबह हमीं से आएगी/ जब धरती करवट बदलेगी, जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे/ जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब जुल्म के बन्धन टूटेंगे/ उस सुबह को हम ही लाएंगे, वह सुबह हमीं से आएगी..’

‘नया दौर’ के एक और गीत में मेहनतकशों को ख़िताब करते हुए लिखते हैं, ‘साथी हाथ बढ़ाना/ एक अकेला थक जाएगा/ मिलकर बोझ उठाना/ माटी से हम लाल निकालें, मोती लाएं जल से/ जो कुछ इस दुनिया में बना है, बना हमारे बल से/ कब तक मेहनत के पैरों में दौलत की जंजीरें/ हाथ बढ़ाकर छीन लो अपने ख्वाबों की तस्वीरें.’ जिस विचार के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी, उसे अपने गीतों के जरिए उन्होंने आगे बढ़ाया. कई ऐसे गीत और है, जिसमें उनकी विचारधारा मुखर होकर सामने आई है. मेहनतकशों और वंचितों के हक़ की ख़ातिर वह हमेशा साथ खड़े रहे. ‘अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है/ रूह गंगा की, हिमालय का वतन आज़ाद है/ दस्तकारों से कहो, अपनी हुनरमन्दी दिखायें/ उंगलियां कटती थीं जिस की, अब वो फ़न आज़ाद है.’, (मुझे जीने दो, 1963).

साहिर साम्रज्यवाद और पूंजीवाद के साथ-साथ साम्प्रदायिकता के भी सख़्त ख़िलाफ़ रहे. उनके एक गीत का यह पैगाम ग़ौर करने लायक़ है, ‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा/ इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा..’ (धूल का फूल). महिला-पुरुष समानता के हामी थे और औरतों पर अत्याचार और शोषण का उन्होंने अपने गीतों में जमकर प्रतिरोध किया. 1958 में आई फ़िल्म ‘‘साधना’ में उनका गीत ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को/ मर्दों ने उसे बाज़ार दिया/ जब भी चाहा मसला, कुचला/ जब जी चाहा दुत्कार दिया.. या ‘दीदी’ का गीत ‘नारी को इस देश ने देवी कहकर दासी जाना है/ जिसको कुछ अधिकार न हो/ वह घर की रानी माना है/ तुम ऐसा आदर मत लेना/ आड़ जो हो अपमान की/ बच्चों, तुम तकदीर हो कल के हिन्दुस्तान की’ सुनते हुए उनके नज़रिये को अच्छी तरह महसूस किया जा सकता है.

औरतों के दुःख-दर्द को वह अच्छी तरह से समझते-महसूस करते थे. यही वजह है कि उनके गीतों में इसकी संजीदा अक्काशी बार-बार मिलती है. ‘‘मैं वह फूल हूं कि जिसको/ गया हर कोई मसल के/ मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढल के’’ (देवदास). ‘‘प्यासा’ में साहिर ने खोखली परंपराओं, झूठे रिवाज़ों और नारी उत्पीड़न को लेकर जो सवाल खड़े किए, वह आज भी प्रासंगिक लगते हैं, ‘ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के/ ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के/ कहां हैं, कहां हैं, मुहाफ़िज़ ख़ुदी के..’ ‘वह सुबह कभी तो आएगी’ में दुनिया की आधी आबादी के लिए पूरी आज़ादी का तसव्वुर वह कुछ इस तरह करते हैं, ‘दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जाएगा/ चाहत को न कुचला जाएगा/ग़ैरत को न बेचा जाएगा/ अपनी काली करतूतों पर जब यह दुनिया शर्माएगी.’

‘गाता जाए बंजारा’ में साहिर लुधियानवी के सारे फ़िल्मी गीत एक जगह मौजूद हैं. उनके फ़िल्मी गीतों के लिए वह नौ बार फ़िल्मफेयर अवार्ड के लिए नामित किए गए, दो बार उन्हें यह अवार्ड मिला – 1964 में ‘ताज महल’ के गीत ‘जो वादा किया, वो निभाना पड़ेगा….’ के लिए और दूसरी मर्तबा ‘कभी-कभी’ के गीत ‘‘कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है…’’ के लिए. वह जब तक रहे अपने गीतों की बदौलत लोगों के दिलों पर राज किया, संजीदा विचारों को महसूस करने वाले दिलों में साहिर लुधियानवी अब भी बसते हैं.

जन्म | 08 मार्च, 1921.
निधन| 25 अक्टूबर,1980.

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