राजा ‘आलू’ की सत्ता छिनी, पर ‘लहसुन’ के ‘अच्छे दिन’ आए

  • 6:03 pm
  • 26 September 2020

देश की संसद में खेती-किसानी से जुड़े विधेयकों के पारित होते ही सब्जियों के साम्राज्य में हलचल मच गई. सब्जियों के राजा आलू को पहली बार अपनी सत्ता पर ख़तरा मंडराता दिखा. कभी बहादुर शाह जफ़र को बादशाह होते हुए भी यह भान न हुआ था कि उनकी सत्ता ख़त्म हो रही है, नतीजा यह हुआ कि उन्हें देश निकाला दे दिया गया. लेकिन आज आलू ने पहली मर्तबा जब ख़ुद पर संकट महसूस किया तो उसने तुरत-फुरत कमर कस ली.

बादशाह जफ़र ने तो सचेत होने में काफी देर कर दी थी, विद्रोहियों ने भले ही उन्हें अपना नेता चुन लिया था लेकिन वे ख़ास कुछ न कर सके थे, लेकिन आलू, जफ़र से पहले सचेत हो गया. उसने ने तत्काल सब्जियों के पूरे कुनबे को आपात बैठक का न्यौता भेजा. अपने राजा को ख़तरे में देख सभी सब्जियां बैठक में फ़ौरन पहुँच भी गई. बैठक को संबोधित करते हुए आलू ने सबसे पहले अपनी व्यथा सुनाई. आलू ने कहा कि आज तक इस देश में बनने में वाली हर सब्ज़ी का साथ उसने दिया है, कभी भी सब्ज़ी कम पड़ी तो लोगों ने कहा ‘सब्ज़ी में आलू बढ़ा दो’, नाश्ते में कचालू बनाकर खाया तो बारिश में पकौड़ी भी बनाई, यहां तक की नवरात्र, सावन और दिनवार पड़ने वाले देवी-देवताओं के व्रत में भी मेरे भरोसे ही उपवास का पारायण होता है. इस देश के अमीरों और ग़रीबों सभी ने बराबर मुझे चाहा है, लेकिन अब देखो तो देश की संसद ने ही मेरा ‘आवश्यक वस्तु’ का ओहदा ख़त्म कर दिया.

आलू भरे हुए गले के साथ बोलता जा रहा है – राष्ट्रवादियों की थाली में अपना सबसे ज़्यादा जीवन बिताया है, और आज ख़ुद को अकेला महसूस कर रहा हूँ. मरकज़ी हुकूमत के कितने ही नुमाइंदों से सबेरे के नाश्ते में ही मुलाकात हुई थी तो क्या सूची से मेरा नाम हटाते हुए उन्हें मेरी याद भी न आई. ‘वन मैन पार्टी’ वाले नेताओं ने सरकार का जितना साथ दिया है, उससे कहीं ज़्यादा मैंने इस देश के भूखे लोगों का साथ दिया है. और धुर विरोधी नेताओं के बीच साझेदारी को देखते हुए अब तो अंडे के साथ भी एडजस्ट हो जाता हूँ. लेकिन अफ़सोस कि आज हमें ही बाहर कर दिया गया. उन लोगों की आवाज़ भी अनसुनी कर दी, जिनको मेरी फ़िकर थी. अब तो मुझे कोल्ड स्टोरेज में भी जगह नहीं मिलने वाली. उनने किसानों को साफ़ कर दिया है कि अगर आलू पैदा करो तो रखने का इतज़ाम भी ख़ुद ही करो. अब बताइये भला, थोड़ी-सी गर्मी में मैं बेचैन हो उठता हूं, तो नौ महीने की गर्मी वाले इस मुल्क में कोल्ड स्टोरेज के बिना मेरा क्या होगा? नहीं जानता कि मेरी बादशाहत बचेगी भी या नहीं. हाय, अब तो मर ही जाऊंगा. राजा के गले से निकलती भावुक करने वाली आवाज़ सुनकर और उनकी पीड़ा को देखकर सभी सब्ज़ियाँ दुःखी हो गईं.

अपने राजा आलू की हालात देख सबकी आंखों में आँसू ला देने वाले प्याज़ की आंखों में खुद ही आँसू आ गए. आलू अपनी बात कह ही रहा था कि प्याज़ ने सुबुकना शुरू कर दिया था, सभी सब्ज़ियां मुड़कर प्याज़ की ओर सहानुभूति से देखने लगीं, फिर प्याज़ ने भी अपनी व्यथा सरे महफ़िल सुनाई. कहा – माना कि वज़ीरे-ख़ज़ाना का निगाहे-करम मुझ पे नहीं है, नवरात्र के दिनों में त्याज्य हो जाती हूं, बहुत से ऐसे हैं जिन्हें फूटी आंख नहीं सुहाती मगर तमाम सब्ज़ियों को रंग-स्वाद देने के साथ-साथ दाल के बघार में, चावल फ़्राई करने और पकौड़ों को ज़ाइक़ा देने का ज़िम्मा भला और किसके पास है. और सलाद का नाम लेना तो भूल ही गई. पकौड़ों में रोजगार तलाशने वाले कितने ही नौजवानों ने खाना कम मगर ज़्यादा ख़रीदना शुरू कर दिया था. ज़रिया-ए-माश हुआ तो मांग बढ़ी और रुतबा भी. फिर मुझे सूची से बाहर करने की क्या ज़रूरत पड़ गई. दाम तेज़ होते ही साल भर में तीन-चार महीने तो आवश्यक वस्तुओं की सूची से मैं ख़ुद ही बाहर हो जाती हूँ.

आलू और प्याज़ के बाद अब बारी थी तेल की. तेल, जिसने हमेशा सब्ज़ियों का साथ दिया था. तेल ने सरकार की बहुत सेवा की थी. यों उसे पक्का भरोसा था कि वह सूची से बाहर नहीं होगा, लेकिन संसद से ख़बर सुनकर उसे बड़ा धक्का लगा. बैठक में तेल ने भी अपना दर्द दर्ज कराया – दाम तो ख़ैर हमेशा ही ऊंचे रहे, लेकिन सब्जियों से भी पहले जलता मैं हूं. राजा आलू और पूरे सब्ज़ी परिवार के लिए जलना भी मंजूर. और पूड़ी-पकवान किसके भरोसे सजाते हैं? मेरे नाम पर इतना घटिया-नकली बेचकर कितने ही धन्नासेठ बन बैठे लेकिन मैंने कभी शिकवा किया क्या? मेरे बूते कितने पहलवानों ने अखाड़े में कुश्ती जीती, कितने बच्चे जवान हो गए, मैंने हड्डियाँ मज़बूत की हैं तो लाठियों को भी ताक़त दी है. लोग मेरा मोल ख़ूब समझते हैं, मगर नेताओं को मेरी क़द्र नहीं.

इन सबको सुनते-सुनते लहसुन के कान पक गए. अंदर ही अंदर उसे गुस्सा आने लगा, तेल की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि लहसुन सरे बज़्म उठ खड़ा हुआ, और पूरे झोंक में बोलने लगा. आलू, प्याज़ और तेल सभी की बात ख़ारिज करते हुए लहसुन ने हमला शुरू किया. कहा- तुम लोग देशद्रोही हो. जो किसान सड़कों पर सरकार का विरोध कर रहे हैं, उन्हें दिखाई नहीं देता कि महामारी के दिन हैं? अभी लोगों को आलू, प्याज़ की नहीं, काढ़े की जरूरत है. देश चौतरफ़ा संकट से जूझ रहा है. हमारा स्थायी दुश्मन पाकिस्तान तो था ही, अब ड्रैगन भी विषैले पंख फड़फड़ाने लगा है.

लहसुन बिना सांस लिए बोलता चला गया – तुम्हें सूची की पड़ी है कि बाहर हो गए तो तुम्हारी सत्ता कमज़ोर हो जाएगी, एकाधिकार ख़त्म हो जाएगा. सरकार तो एकाधिकार ख़त्म करने ही आई है. देखो, कांग्रेस का एकाधिकार ख़त्म कर दिया, और अब तुम जैसों का थाली पर एकाधिकार ख़त्म कर देगी. तुम्हारे दिन अब लदने वाले हैं, तुम्हारा भाव अब अस्थिर रहने वाला है. तुम अब ज़रूरी नहीं बचे. किसान नहीं, कम्पनी उगाएगी और तुम्हारा मनमाफ़िक दाम लगाएगी. अब तुम्हारे ‘अच्छे दिन’ गए और मेरे ‘अच्छे दिन’ आ गए.

सब्जियों के कुनबे में विद्रोह फैलते देखकर राजा आलू ने फ़िलहाल बैठक यह कहते हुए स्थगित कर दी कि उन्हें नेताओं का नहीं, देश के किसानों का ही भरोसा है. असली वक़त वह उगाने वाला किसान ही जानता है.

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