अब घोड़ों की ज़रूरत है

  • 4:10 pm
  • 26 January 2020

हमने पिछली बार जापान से आकर एक मज़मून लिखा था कि ‘ज़रूरत है जापान के लिए एक गधे की,’ इस पर हमें बहुत से ख़त आए कि हम बिल्कुल गधे हैं, हमें जापान भेज दीजिए.

हमें वज़ाहत करनी पड़ी कि साहिबो ! गधे मत बनो. बात समझने की कोशिश करो,

वहां तुम्हारी नहीं बल्कि सचमुच के गधे यानी जानवर की ज़रूरत है चिड़ियाघर के लिए. जापानियों का ख़याल था कि जापानी बच्चे चिड़ियाघर में गधा देखेंगे और उनको मालूम होगा कि यह पाकिस्तान से आया है तो वे इस रिश्ते से पाकिस्तान से भी परिचित होंगे, और पाकिस्तान-जापान दोस्ती का रास्ता खुलेगा. लेकिन हमारे हां के लोगों ने हिचर-मिचर की और कहा कि ऊंट मंगवा लो, बकरा मंगवा लो, कुछ और मंगवा लो, गधे से इसरार मत करो. जापान वाले बहुत मायूस हुए, उनकी समझ में न आया कि उनके पास इतने गधे हैं तो एक हमेँ देने मेँ क्या हर्ज है. बहरहाल मुज्दा हो कि स्पेन ने गधा भेज दिया और पाकिस्तान की गुलूख़लासी हो गई है.

अब यह फ़रमाइश है कि घोड़ा भेजो, बल्कि घोड़े – चलिए कुछ तरक़्क़ी तो हुईं. गधे से घोड़े पर तो आए.

जापान में आदमी ज़्यादा हैं और रक़बा कम है. चप्पे-चप्पे को काम में लाना चाहते हैँ. बअज़ पहाड़ी ढलानें वहां उफ़्तादा पड़ी हैं जहां मशीनी सवारियों के जाने का काम नहीं. घोड़े दरकार होंगे. जापान के एक इदारे ने हमारे नुमाइंदों से कहा कि दस हज़ार घोड़े लाओ और मुंहमांगे दाम पाओ. घोड़ों से हमारे पूर्वजों को निस्बते ख़ास रही है. बट्टे जुल्मात तक में घोड़े दौड़ा दिए थे. डूब जाएं तब भी हर्ज की बात न थी. वस्ते ऐशिया से मज़ीद आ जाते थे. घोड़ों की दुमें पकड़े-पकड़े हिंदुस्तान आए और यहां न सिर्फ़ सल्तनतें क़ायम कीं बल्कि घोड़ों और घुड़सवारों के बाल पर ख़ुश उसलूबी से कई सदियों तक चलाईं. यहां तक कि सोते भी घोड़े बेचकर थे. अब घोड़ों का ज़माना नहीं. तांगे में जुतता है या दुल्हा सेहरा बांधकर उस पर चढ़ता है वह भी इसलिए कि लड़किंयां ‘वीर मेरा घोड़ी चढ़िया’ गा सकें, मोटर चढ़ने के गीत अभी ईजाद नहीं हुए.

क़िस्सा मुख़्तसिर हमारे हां के एक साहब ने इसकी भनक पाई और उन पर धुन सवार हुईं कि रातों को ख़्वाब में भी यही बड़बड़ाते थे कि अब तो मैं अमीर कबीर बन जाऊंगा. एक घोड़े पर हज़ार डालर, डेढ़ हज़ार डालर मुनाफ़ा हुआ तो दस हज़ार घोड़ों पर कितना मुनाफ़ा होगा. यह हिसाब लगाना किसी पाकिस्तानी के लिए आसान नहीं. लिहाज़ा बेचारों को एक छोटा-सा कंप्यूटर खरीदना पड़ा. इधर किसी ने भांजी मारी कि ऐ साहब! जापानियों का अपना सुलोतरी उनको देखेगा. बीस-पच्चीस दिन क़रन्तीना में रखेगा. फिर तुमको यह घोड़े लाकर जहाज़ के इंतेज़ार में कराची में रखने होंगे. यहां तवेले तलाश करने होंगे, किराया देना पड़ेगा. उनको दाना खिलाना पड़ेगा, उनके लिए घास खोदनी पड़ेगी या ख़रीदनी पड़ेगी. उनमें से कुछ बीमार होंगे. कुछ मर भी जाएंगे. उनकी तजहीज़ व तकफ़ीन का सवाल उठेगा. यह सारे ख़र्च तुमको उठाने होंगे, खुम आएगा, सुराही आएगी, तब जाम आएगा .

उन्होंने दाने-घास का ख़र्च फैलाया तो यह समझ में आया कि यह लागत तो घोड़ों की क़ीमत से भी आगे निकल जाएगी. सुना है अब वह ख़्वाब में घास का हिसाब लगाते हैं और वावीला करते हैं कि हाय मैं लुट गया. मेरे घोड़े बीमार हो गए. मेरे घोड़े मर गए. अगर हमारे पढ़ने वालों में से किसी के पास दस घोड़े हों तो अपने हाथ खड़े करें और टोकियो में पाकिस्तान के सिफ़ारतख़ाने को ख़त लिखें. दस हज़ार एक खेप में नहीं मिलते त्तो क़िस्तों में सही, सौ रुपए प्रति घोड़ा याद रखें. उधर गंजा में तांगा चलाने की तजवीज़ भी है. गंज़ा क्या चीज़ है या गंज़ा क्या होता है ? अकबर इलाहाबादी की ज़बान में ऐसी जगह जहां,
रौशनियां हों हर सू लामऐ
कोई न हो किसी का सामऐ
सबके सब हों दीद के तालऐ
यहां मिसाल के लिए अलफिस्टंन स्ट्रीट समझ लीजिए. अनारकली क़यास कर लीजिए. लेकिन यह सब ऐसे ही हैं जैसे आग़ा हशर को हम हिंदुस्तान का शेक्सपियर कहते हैं; अलफिस्टंन स्ट्रीट की रौनक़ और चकाचांद कोई सौ से ज़रब दीजिए, लेकिन आजकल नहीं. आजकल तो शाम ही से बुझा-सा रहता है. तांगा चलाने की तजवीज़ एक पाकिस्तानी की है जो मुद्दत से जापान में रहते हैं और तिजारत करते हैं. ख़ुद पंजाबी हैं लिहाजा फ़रमाते हैं, मैं ख़ुद लाचा बांधकर और पगड़ी बांधकर ‘बच मोड़’ तों कहा करूंगा.

पहले जापान वालों का कहना था कि अच्छा तांगा वहां से लाओ, घोड़े यहां से ले लो. या कोचवान यहां के रखो. उनको समझाना पड़ा कि यह घोड़ा-दौड़ या मैदाने ज़ंग नहीं है कि जिसके घोड़ों की नस्ल ही अलग है और वह मुहावरा और रोज़मर्रा भी ख़ास भाटी और लोहारी के कोचवानों ही का समझते हैं. जापान वाले हमारे तांगेवालों की व्याख्यान की क़दर तो क्या कर सकेंगे, सवारी लुत्फ़ अलबत्ता उठा सकते हैं.

इतवार को गंज़ा में शापिंग का तो ज़ोर है लेकिन गाडियां लाने का हुक्म नहीं है. गंज़ा कोई एक सड़क का नाम नहीं है; लंबा-चौड़ा शापिंग एरिया है. फ़िलहाल यह तांगा इतवार के दिन यहां चला करेगा और गंज़ा में यह आवाज़ गूंजा करेगी ‘ ओ तांगेवाला ख़ैर मंगदा’ अलबत्ता यहां के यही लैलोनहार रहे तो दूसरे इलाक़ों में भी ज़रूरत पड़ सकती है और क्या अजब है हमारे लाहौर, गुजरांवाला, हैदराबाद और मुलतान सभी जगहों के लोगों के लिए जापान में गुंजाइश निकल आए. बीहाइंड जेकब लाइनवाले भी तैयार हैं.


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