व्यंग्य | क्या हम इतने बुरे थे

कल कमाल हो गया. हम लिखते और देखते ही रह गए और हमारा मित्र अमर हो गया. कल आलोचक जी ने उसको भर-भर के गालियां दीं. ऐसी गालियां जिनकी साहित्यकार केवल तमन्ना ही कर सकते हैं. न जाने कितने लेखक-कवि उन आलोचक महोदय से गाली खाने के लिये साधना कर रहे थे, पर सौभाग्य हमारे उस मित्र को मिला. वह अब सबकी ईर्ष्या का केंद्र बन गया है. मित्र, अब मित्र नहीं, शत्रु हो गया. जो काम उसका घटिया लेखन न कर सका, वो आलोचक की गालियों ने कर दिया.

हमारे गाँव में एक सिद्ध पुरुष थे- गुम्मा वाले बाबा. जो मनोविज्ञान की दृष्टि से विक्षिप्त होता है, वो अध्यात्म की दृष्टि से सिद्ध पुरुष होता है. गांव के बाहर, किसी खेत में, सिर खुजाते हुए, गुम्मा वाले बाबा पाए जाते थे. कभी गाँव वालों, तो कभी नील गाय द्वारा खदेड़े जाते थे. यूँ ही खदेड़े जाते समय एक दिन उन्होंने गुस्से में एक गुम्मा उठा कर बिरजू के दे मारा. बिरजू के ख़ाली दिमाग में भरा खून बहने लगा. मरहम-पट्टी कराई गई. दूसरे दिन बिरजू को राशन की दुकान मिल गई, जिसके लिए बिरजू बहुत दिनों से कोशिश कर रहा था. बस! उसके बाद बिरजू और बाबा, दोनों ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. बाबा के चारों ओर लोगों का तांता लगने लगा. लोग बताते- हम तीन महीने से आ रहे हैं. मोनू का प्री नहीं निकल रहा है. एक बार बाबा ने मोनू को गुम्मा मारा भी था, पर ज़रा बगल से निकल गया. धीरे-धीरे उनका भव्य मठ बन गया. बाहर पूजन-सामिग्री और गुम्मों की दुकानें लगने लगीं. सादा गुम्मों से लेकर चांदी के स्पेशल गुम्मों तक. जो उनके हाथ से गुम्मा खा लेता वो धन्य हो जाता. बाकी लोग तरसते रह जाते. ऐसी ही तड़प हमें कल हुई जब मित्र को आलोचक बाबा ने घुमा कर आलोचना का गुम्मा मारा.

साहित्य के मोहल्ले में एक साथ कई आहें-कराहें गूँजने लगीं कि हाय, उन्होंने हमें क्यों न गाली दी? आख़िर क्या कमी थी हम में? क्या हम इतने बुरे थे? हमें एक गाली न दी आज तक. हम लिख-लिख मर गए और सारी गालियाँ वो अकेला लूट ले गया नीच! क्या हमारा मन नहीं होता कि कोई हमें भी नकारे? कोई बड़ा आलोचक हमसे भी तो कहे कि आप के लेख दलित विरोधी हैं, स्त्री विरोधी हैं, आपका पूरा लेखन एब्सर्ड है. अरे कोई दक्षिणपंथ का इल्ज़ाम दो, वामपंथ की तोहमत दो, फासीवादी कहो, घासीवादी कहो, कुछ तो कहो. कल जैसे ही आलोचक दादा ने सोशल-मीडिया पर उसको गरियाया, दना-दन फोन आने लगे.

वीर रस का प्रसिद्ध कवि, सोनू फ़ौलादी फोन पर फूट-फूट कर रो रहा था. मैंने चुप कराया.( हालाँकि रोने का जी तो मेरा भी हो रहा था) सुबकते हुए फौलादी ने कहा- “आलोचक दादा से इस बेवफ़ाई की उम्मीद नहीं थी. पूरी ज़िंदगी मैंने उनकी सेवा की, और उन्होंने गाली दी तो किसी और को? और अगर उसे दे ही रहे थे, तो कुछ गालियाँ साथ में हमें भी दे देते. साला अब मूँछों पर ताव देगा. आलोचक दादा के कारण नीचा देखना पड़ेगा.” मैंने कहा- “मैंने तुम्हें पहले ही आगाह किया था कि वो उसी को अधिक प्यार करते हैं, कोई गाली देने का अवसर आएगा तो वो उसी को चुनेंगे. जब वो, तुम्हारी बजाय, उससे खैनी मंगवाने लगे थे, तुम्हें तभी सावधान हो जाना था.” “तो भांग का अंटा तो मैं ही लाता था न!” फिर भावुक होकर फ़ौलादी ने सब कह डाला कि उसने आलोचक दादा के लिये क्या-क्या किया, उनके लिए क्या-क्या लाया. जिसे सुनकर मेरी समझ आ गया कि वो केवल नाम का फ़ौलादी था. इसी श्रंखला में आज सुबह शायर मित्र का फोन आया.

पप्पू ‘अचकन’, बहोड़ापुर के बहुत नामचीन शायर हैं. सुबह-सुबह फोन पर उन्होंने धमाका किया – “प्रिय, हमाई संस्था तुमे सम्मानित करैगी.” इस धमाके से मैं हिल गया. मुझे यकीन नहीं था कि मेरा मित्र अचकन भी मेरे ख़िलाफ़ इस तरह की साजिश कर सकता है. मैंने कहा- “मुझे क्यों सम्मानित करोगे? मैंने कौन सी किताब छपवाई है?” अचकन ने कहा- “नहीं तुम लिख भौतई अच्छा रए हो.” “अगर अच्छा लिख रहा हूँ तो दो-चार गाली दो मुझे. बड़े दोस्त बने फिरते हैं, ये नहीं कि दो-चार गाली ही दे दें. बड़े आए पुरस्कार देने वाले.” मैंने आक्षेप लिया. “तो तुमने हमें कब गाली दी जो हम तुमें देते? तुम भी तौ दम भरते हो दोस्ती का, दी आज तक कोई गाली?” “नालायक, पाजी.” मैंने गहरी दोस्ती की ओर क़दम बढ़ाया. “ऐसे क्या मतलब, फोन पर गाली दे रहे हो. किसी पत्रिका में, किसी ब्लॉग पर विस्तार से लिखो. और तुमाए गाली देने से क्या मतलब, किसी बड़े आलोचक से दिलवाओ तो जानें हो तुम हमाए सच्चे दोस्त.” “किसी अच्छे आलोचक से दिलवा सकता, तो सबसे पहले ख़ुद को न दिलवाता.” मैंने अपनी विवशता ज़ाहिर की. “तौ ठीक है, तुम्हारा पुरस्कार पक्का रहा. कल घोसना कर दैंगे.” “अरे हैलो, अचकन भाई सुनो तो, नहीं चाहिये मुझे, हैलो, हैलो…” मैं हैलो-हैलो करता रहा गया, अचकन ने फोन काट दिया.

यदि आप इतिहास का अवलोकन करें तो अनेक ऐसे किरदार मिलेंगे जो केवल गाली खाने से ही इतिहास का हिस्सा बने. अन्यथा उन्हें कोई नहीं जानता. गाली देने का जो अधिकार वर्तमान में आलोचकों को मिला हुआ है, प्राचीन काल में वो ऋषि-मुनियों के पास था. इन्हीं ऋषियों की गालियों (श्रापों) से कोई पत्थर बना, कोई ग्राह बना, तो कोई राक्षस. फिर सबकी मुक्ति की कथाएँ लिखी गईं. कई बार तो लगता है कि राजा जब देखते होंगे कि पूरी ज़िंदगी बीत गई कोई ऐसा काम नहीं किया जो ‘पुराण ऑफ फ़ेम’ में नाम लिखा जाए, तो धनुष-बाण लेकर निकल लेते होंगे. कहीं किसी ऋषि की तपस्या भंग कर दी, कहीं प्रेमरत भालू के जोड़े को मार डाला. वापस आ कर रानी को बताया- “हनी, आई गॉट टू श्राप्स टुडे.” रानी अपनी रानियों की किटी में सबको चहक-चहक कर बताती होगी- “पता है इनको दो श्राप मिल गए.” बाकी रानियां भारी मन से शुभकामनाएं देती होंगी, फिर वापस आकर अपने-अपने राजाओं को कोसती होंगी- “तुमसे कुछ न होगा ज़िंदगी में, यूँ ही पड़े-पड़े कत्थक देखो. पड़ोस के राजा को दो-दो श्राप मिल गए, दो-दो. पुराणों में नाम लिखा जा रहा है उसका.” शादीशुदा साहित्यकार भी अपने घरों में कुछ ऐसी ही बातें सुन रहे हैं.

कल से हम सब एक दूसरे को ऐसे ही कोस रहे हैं. कुछ लोग अपने स्तर पर भी प्रयास कर रहे हैं. एक कवि-मित्र की सब प्रशंसा करते थे. कोई आलोचक गाली नहीं दे रहा था. कल शाम को एक दूसरे कवि ने उसके लेखन को कचरा कह डाला. ऐसे सच्चे मित्र बहुत मुश्किल से मिलते हैं. मैं भी प्रयास कर रहा हूँ किसी आलोचक से सेटिंग जम जाए. पर अब वे भी पूँजीवादी हो गए हैं. सामान्य आलोचना के लिए भी स्कॉच-सिंगल माल्ट जैसी बातें कर रहे हैं. और अगर किसी पत्रिका में विस्तार से गाली खानी हो तो उसका शुल्क अलग है. खोज जारी है.

श्रीमती जी कह रही हैं, “आप चिंतित न हों. यदि कोई आपके लेखन को गाली न दे, तो मैं दे दूँगी. और लेखन ही क्या, मैं आपको भी गाली दे दूँगी. साक्षात, सामने बैठा कर. चिंतित न हो स्वामी!”


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