व्यंग्य | ज़बान से ज्वलनशील भले मानुस के कारनामे

उनके जैसा ज्वलनशील व्यक्ति मिलना मुश्किल था. लोग कहते हैं कि उनके माथे पर लिख दिया जाना चाहिये था- अत्यंत ज्वलनशील, दूरी बनाए रखें. थोड़े-बहुत ज्वलनशील तो हम सभी होते हैं, वे अत्यंत ज्वलनशील थे. झट से जलने, और जलाने वाले. उनका ऑक्टेन नम्बर बिल्कुल सटीक था. न तो इतना कम, कि कोई जले ही न, और न ही इतना अधिक, कि भक से जल कर मामला ख़त्म हो जाए. वे लम्बे समय तक जलाते थे.आदमी खदबदाता रहे, खदकता रहे, खौलता रहे.

कल शाम को वो शर्मा जी के यहाँ आए. चाय पी, बिस्किट खाया. जब शर्मा जी एक मिनट के लिए बाथरूम गए, वे धीरे से बोले, “आप बहुत परिश्रम करती हैं, भाभी जी. आपके जितनी मेहनती महिला मिलना मुश्किल है.” भाभी जी ने ट्रे उठा कर गहरी साँस ली, “चलिये, किसी को तो दिखा भैया.” भाभी जी रसोई में चली गईं, शर्मा जी वापस आ कर बैठ गए. उन्होंने धीरे से शर्मा जी से कहा, “तूने अपने परिवार के लिए बहुत किया है. तेरी जगह मैं होता, तो टूट गया होता.” वे चाय-बिस्किट निपटा कर निकल गए. आज चौबीस घण्टे हुए, शर्मा जी का घर अभी तक खदक रहा है.

वे किसी तरल की तरह बहते थे. दिमाग़ की किसी संध में, दिल की किसी दरार में, कहीं भी समा जाते थे, और मौक़ा मिलते ही अपने गुणधर्म बता देते. एक दिन शाम को उन्होंने अपनी पत्नी को पूछा,” तुम अपनी सहेली विनीता के यहाँ नहीं गईं? कल उसने नई किटी शुरू की है. रोहिणी को तो बुलाया था.” यह कह कर वे बहते हुए बाहर निकल गए. उसके बाद उनकी पत्नी और विनीता के बीच जो हुआ, वह अलग लेख का विषय है. पाठकों के लिए अभी इतना जानना पर्याप्त है कि दोनों को कुछ खरोचें भी आईं.

बहते हुए वे अपने बॉस के घर पहुँच गए. “आप ने इस ऑफ़िस को बना दिया सर. ऐसे नाकारा-नालायक़ लोगों से बस आप ही काम ले सकते थे. पहले कितनी बुरी हालत थी इस ऑफ़िस की.” बॉस ने एक हाथ से दूसरे हाथ की कलाई पकड़ी, दोनों हाथ सिर पर रखे और गर्व से कुर्सी पर पीछे की ओर चले गए. उन्होंने बात आगे बढ़ाई, “कल मंत्री जी के यहाँ मौर्या साहब दिखे थे, यहाँ ट्रांसफर के लिए लगे हैं.” अधलेटे बॉस, एकदम सीधे होकर बैठ गए. काम पूरा कर वे वहाँ से बह निकले.

लोग बताते हैं कि ‘घोस्ट राइडर’ की तरह उनके पीछे भी आग की एक लकीर चलती देखी गई थी.

बॉस के यहाँ से वे मौर्या साहब के यहाँ बह पहुँचे. “इतना अच्छा ऑफ़िस, पूरे देश का नम्बर वन ऑफ़िस, बरबाद हो रहा है. आपकी कमी बहुत खलती है सर. पर उनका ट्रांसफर करवा सके, किसमें इतना दम है? आठ साल से जमे हैं गृह जनपद में. अच्छा चलता हूँ सर.” वे बाहर आगये. बाहर चपरासी खड़ा था. उन्होंने चपरासी के कंधे पर हाथ रखा, “अरे, तुम्हें तो बंगले पर डले-डले बहुत साल हो गए!” इतना बोल कर वह ज्वलनशील ईंधन घर की ओर बह चला. रास्ते में मंदिर था.

उन्होंने पण्डित जी को पालागी किया. प्रभु के दर्शन किए. फिर पण्डित जी से प्रश्न किया,” पूर्णिमा को तो आ रहे हैं न आप?” पण्डित जी ने उन्हें प्रश्नवाचक नज़रों से देखा. उन्होंने कहा ,” अरे सामने वाले मंदिर के पण्डित जी एक सौ आठ कुण्डीय महायज्ञ करवा रहे हैं. उसके बाद विशाल भण्डारा. सुना है आबकारी मंत्री भी आ रहे हैं.” यह सुन कर पण्डित जी ने प्रसाद के पेड़े को मसल कर पंजीरी बना दिया. मंदिर का दीपक अचानक भभक कर जलने लगा. वे वहाँ से भी बह लिए.

घर पहुँचे, और एक ‘संक्षिप्त चर्चा’ के बाद, श्रीमती जी से बोले, “भाई तो आख़िर आपके हैं. साले साहब को मैं प्रणाम करता हूँ.” इतना कह कर वे सो गए और श्रीमती जी मंदी आंच पर रात भर उबलती रहीं. बताते हैं कि मशहूर शायर पप्पू अचकन और नफ़ीस ज़रदोज़ी के बीच की अदावत के पीछे भी उन्हीं की भूमिका थी.

किसी रोज़ सुबह-सुबह वे अचकन मियाँ के घर पहुँचे. आदाब-शादाब हुआ. शायरी-कविता की बात निकली. उन्होंने पप्पू अचकन से नफ़ीस ज़रदोज़ी के कलाम का उल्लेख किया. कहा कि ज़रदोज़ी बहुत शानदार शायरी लिखते हैं. सरकारी इनाम भी मिलने वाला है. जब पप्पू अचकन में उबाल आने वाला हुआ तो उन्होंने आँच मंदी करते हुए जोड़ा, “ज़रदोज़ी मियाँ मंत्रालय से मुशायरा भी सेंक्शन करवा लाये हैं.” उस रोज़ खदकते पप्पू अचकन, नाश्ते में हलीम के साथ चौदह चिरपिरी मिर्चें खा गए. और वे, अपना हलीम निबटा कर वहाँ से बह लिए. लोग शेर का जवाब शेर से देते हैं. पप्पू अचकन ने मुशायरे का जवाब मुशायरे से दिया. उस साल सड़क के आर-पार, आमने-सामने दो मुशायरे हुए. एक तरफ़ नफ़ीस ज़रदोज़ी का सरकारी मुशायरा, दूसरी तरफ़ पप्पू अचकन का प्राइवेट मुशायरा. पहले शेर चले, फिर कट्टे.

ऐसी विलक्षण प्रतिभा कोई और नहीं हो सकती. अग्नि पर ऐसी पकड़! उन्हें अग्निदेव सिद्ध थे. वे हर समय कुछ बुदबुदाते रहते. जानकर बताते हैं कि वे- ॐ अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये इदं न मम – का पाठ करते थे. वे सम्बन्धों की डंडी पर प्रेम की चम्मच बाँधते, उस पर बातों का कपूर रखते और स्वाहा बोल कर आहुति दे देते. अग्नि धधकने लगती.

धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों तरफ़ फैलने लगी. आख़िर उनके अंदर गुण ही ऐसा था. बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के नेता उनके यहाँ चक्कर काटने लगे. ऐसा आग-लगाऊ व्यक्ति बहुत मुश्किल से मिलता है. उनके सामने बड़े-बड़े ऑफर आने लगे. कोई पार्षद का टिकट दे रहा था, तो कोई सीधे निगम की अध्यक्षी. बहुत विचार कर के उन्होंने एरपा (एक राजनीतिक पार्टी) का सदस्य बनना तय किया. उनके सदस्य बनने के बाद एरपा नेताओं में जम कर झगड़े शुरू हो गए. जिला अधिवेशन में लालो चौहान और बलबीर यादव में खूब कुर्सियां चलीं. उस अधिवेशन में कोई कुर्सी पर नहीं बैठा, सब कुर्सियां सिर पर रख कर घूमे. केवल वे कुर्सी पर बैठे. सर्वसहमति से उन्हें जिलाध्यक्ष चुना गया. वे पार्टी में बहने लगे. अब चुनाव आने वाले थे. मुख्य मुक़ाबला एरपा और बेरपा (बेकार राजनीतिक पार्टी) में था.

उस साल शहर में जम कर दंगे हुए. वे भेस बदल किसी पान की दुकान पर बह पहुँचते. गिलोरी दबाते हुए कहते, “बेरपा को वोट देना! नेताजी ने कहा है- जो वोट नहीं दिया, तो तकिये पर भी बैठने लायक न रहोगे. तुम्हारे घुटने की कटोरियों में ही तुमसे भीख मंगवाऊंगा. समझे! याद रहे बेरपा!” बेरपा बुरी तरह हारी. जिले की सारी सीटें एरपा जीत गई. दिल्ली तक उनकी ख्याति पहुँच गई. बताते हैं कि दिल्ली के नेताओं ने प्रदेश के नेताओं से कहा है कि उनका बहाव दिल्ली की तरफ़ मोड़ा जाए. केंद्र में अच्छे ईंधन की बहुत कमी है.

आम आदमी की तरह राजनीतिज्ञों को भी अपना भोजन पकाने के लिए आग की ज़रूरत होती है. ईंधन जितना अच्छा होगा, आग उतनी ही अच्छी लगेगी, और उतना ही अच्छा खाना पकेगा. कल वे दिल्ली प्रस्थान कर रहे हैं.

जाने से पहले वो आज शर्मा जी के घर आए. चाय पी, बिस्किट खाया. जब शर्मा जी एक मिनट के लिए बाथरूम गए, वे धीरे से बोले,”कितना समृद्ध मायका था आपका भाभी जी. रईसों का खानदान था.”

आवरण चित्रः अनंत

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