हरिपाल त्यागी | बाज़ार का छद्म एश्वर्य जिन्हें बांध नहीं पाया
बीसवीं सदी के भारतीय कलाकारों के जीवन पर दृष्टिपात करें तो भाऊ समर्थ और हरिपाल त्यागी ही देश के दो ऐसे कलाकार रहे हैं जिन्होंने कला व जीवन की शर्तों को कभी बाज़ार के अधीन नहीं होने दिया और इसकी एक बड़ी क़ीमत भी उन्होंने चुकाई. बाज़ार और उसकी चकाचौंध हरिपाल जी को कभी अपने छद्म एश्वर्य से बाँध नहीं पाई.
– सम्पादकीय में दिवाकर भट्ट.
चित्रकार, कवि और कथाकार हरिपाल त्यागी पर केंद्रित ‘आधारशिला’ का विशेषांक उनकी शख़्सियत और नज़रिये को जानने-समझने के लिहाज से बहुत अहम् है. क़रीब सवा दो सौ पन्ने के इस अंक में साहित्य और कला की दुनिया के उनके दोस्तो और परिवार के लोगों के संस्मरण हैं, उनकी लिखी कविताएं हैं, उन पर लिखी हुई कविताएं हैं, हरिपाल त्यागी के ढेर सारे रेखाचित्र और तस्वीरें हैं, उनके लेखन और कला पर बातचीत है, उनकी पहली कहानी ‘दूरी’ है, इंटरव्यू है, उनकी किताबों पर विमर्श है, दोस्तो के ख़त हैं और यह सारी कोशिश उस शख़्स की एक मुकम्मल तस्वीर बनाने की है, जो ख़ुशमिज़ाज और दोस्तनवाज़ थे, मन से गंवई और निगाह में पूरी दुनिया रखने वाले ख़ूब संवेदनशील इंसान.
इस अंक का सम्पादन वाचस्पति ने किया है. पत्रिका में छपे लेखों के कुछ अंश,
वे भारतीय चित्रकारों के वान गॉग थे
हरिपाल त्यागी को चित्रकला के क्षेत्र में ब्रेक दिया राजकमल प्रकाशन के प्रारम्भिक निदेशक श्री ओमप्रकाश ने. हरिपाल त्यागी काम की तलाश में थे. ओमप्रकाश ने उनसे कहा कि तुम एक काम करो, तुम बनारस चले जाओ. आने-जाने और रहने का पैसा मैं दूंगा. तुम बनारस में रहो, वहाँ रहकर तुम बनारस के घाटों के चित्रांकन करो और तुम्हें बनारस में जो अच्छा लगे उसका रेखांकन करो. और लाकर मुझे दे दो. उन दिनों राजकमल प्रकाशन से रुद्र काशिकेय की किताब ‘बहती गंगा’ छप रही थी. उसके जो चित्रांकन हैं, सब हरिपाल त्यागी से करवाये. उस चित्रांकन से हरिपाल त्यागी को बहुत यश प्राप्त हुआ. बहुत सामान्य जीवन के चित्र हरिपाल त्यागी ने बनाए हैं. एक बहुत बड़ी बात यह थी कि हरिपाल त्यागी के रेखांकनों पर किसी का अनुसरण नहीं दिखाई पड़ता. उनके जो चित्र हैं बिल्कुल अपने ढंग के बने हुए चित्र हैं. – विश्वनाथ त्रिपाठी.
अब यादों बस गए हैं हरिपाल त्यागी
लगता था, जैसे किसी ने मुझे दोनों हाथों से उठाकर कला की दुनिया में फेंक दिया है, और मैं हक्का-बक्का सा हूँ. वहाँ रंग थे, रेखाएँ, आकृतियाँ…कुछ साफ़, कुछ धुंधली, कुछ अमूर्त…और वे सब एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड थीं! और लाल टोपी वाले सांताक्लाज सरीखा कोई जादूगर था, जो उन्हें हाथों से नहीं, बल्कि आँखों के इशारे से नचा रहा था.
आँखों में करुणा. मन में करुणा का समंदर. अथाह!
मैंने उस विराट जादूगर को पहली बार देखा…और देखा कि वह त्यागी जी महीन सी मुस्कान से निकला और अब, अपने सारे करतब दिखाने के बाद…ख़ुद त्यागी जी के अंदर सिमटता जा रहा था.
और त्यागी जी थे कि मज़े-मज़े में हँस रहे थे. साथ ही उनकी लेनिन-कट ख़ूबसूरत दाढ़ी हँस रही थी, और वह पूरी की पूरी कला की विचित्र सम्मोहनमयी रंगदार दुनिया हँस रही थी, जिसकी पहली झलक ने ही मुझे पागल बना दिया था. और अभी तो होने थे ज़िंदगी के इम्तिहाँ और भी…! इसलिए कि त्यागी जी अब मेरे दोस्त बन चुके थे.
दोस्त चित्रकार हरिपाल त्यागी. – प्रकाश मनु
पेंटिंग में हरिपाल
एक बार फिर हरिपाल त्यागी अपने पिटारे से संस्मरण निकाल-निकाल कर हमें सुनाते रहे और हम रस लेते रहे. उनके संस्मरण निष्पाप और दुर्भावना रहित होते. मक़्सिम गोर्क़ी के चरित्रों की तरह. सारे पात्र अपनी कमज़ोरियों और सीमाओं के साथ मनुष्य लगते. कहन का यह गुण रचनात्मकता के शिखर पर पहुँचा भारतीय लेखकों पर ‘महापुरुष’ शीर्षक से छपे उनके संस्मरणों की श्रृंखला में. हिन्दी के सुपरिचित शीर्ष पुरुषों के रेखाचित्र कई अर्थों में विलक्षण हैं. किसी भी रेखाचित्र के शीर्षक से आप वर्णित व्यक्तित्व का पता नहीं लगा सकते पर जैसे ही आप उसे पढ़ना शुरू करते हैं, एक निहायत परिचित शख़्सियत उसमें से झाँकना शुरू कर देती है. आपको लगेगा कि जिसे आप मनुष्येतर योनि का महापुरुष समझते थे वह तो आप ही की तरह का हाड़ मांस का मनुष्य है. वह अपने तमाम बड़प्पन और ओछेपन के साथ आपके सामने उपस्थित है. मैंने एक लतीफ़ा सुना है कि जब वे महापुरुष के लिए लिख रहे थे तो तमाम महापुरुष टोह ले रहे थे कि उनक नाम त्यागी जी सूची में है या नहीं? जिनको नकारात्मक उत्तर मिलता वे चाहते कि उन पर भी लिखा जाए. कम से कम मेरी जानकारी में तो सार्वजनिक रूप से किसी ने भी अपने चरित्र चित्रण पर कोई एतराज दर्ज नहीं कराया. – विभूति नारायण राय
मासूम और उदास रेखाओं का सर्जक
त्यागी जी को चित्रों की रचना करते देखना एक विचित्र प्रकार का अनुभव था. हाथ में ब्रश और आंखें कैनवस पर. किसी चित्रकृति में रंग भरते हुए भी वे निरंतर किसी से भी बातें करते रह सकते थे. पर वे क्या रच रहे होते थे यह जानना किसी के लिए भी बेहद कठिन होता. कल्पना की उनकी उड़ान पर आंखें टिका पाना एक जोखिम भरा काम था. माँ और बच्चा, उदास किसान, कॉफ़ी हाउस या फिर मिथक कथा उनके चर्चित चित्र थे. शीर्षकहीन चित्र में वे स्त्री, घोड़ा, बच्चा और एक चिड़िया, पर उसे वे कोई नाम नहीं देते. वे अक्सर कहते थे, ज़रूरी नहीं कि किसी चित्र को कोई शीर्षक दिया जाए. रंग और जीवन एक साथ बोलते हों तो चित्र अपने आप आकर्षक हो जाते हैं. त्यागी जी के पास तैलचित्र थे तो मिश्रित माध्यम के चित्रों का विशाल भंडार भी उनके पास था. इंक औऱ एक्रेलिक से वे मलबा तथा प्रकृति औऱ जीवन को एक साथ उकेर सकते थे. लोक गायक, परम्परा, स्नान के लिए, दुःस्वप्न और हादसा कुछ भी नहीं छूटता था उनकी तूलिका से. हादसा एक लगातार सिलसिला है जिस पर त्यागी जी ने पूरी एक श्रृंखला का सृजन किया था. ख़ुशनुमा और चलती-फिरती ज़िंदगी के उजड़ जाने की ख़ामोश कर देने वाली रेखाएं और रंग कला के साथ ही उनके विचार पक्ष का अद्भुत साक्ष्य हैं. – सुधीर विद्यार्थी
यादों के कुछ टुकड़े
मैंने पास जाकर नमस्कार किया त उन्होंने मोटे फ़्रेम वाली ऐनक के ऊपर से देखा, थोड़ा मुस्कुराए और बैठने को कहा, पानी पीने के बाद जब तक चाय नहीं आई वह अपने काम में लगे रहे. मैं कभी उन्हें काम करते देखता, कभी दीवारों पर लगे पोट्रेट और पेंटिंग को. ‘हां जी, अब कहिए कैसे हो.’ ब्रुश छोड़कर चाय की प्याली हाथ में लेते हुए वह बोले. परन्तु नज़र अब भी उनकी पेंटिंग पर ही गड़ी थी. मेरे उत्तर देने से पहले ही उन्होंने कहा, ‘कैसी लग रही है?’ ‘ मेरी समझ से तो अभी परे है.’ मैंने कहा. ‘हाँ, एक तो यह अभी पूरी भी नहीं हुई, क्या समझ आएगी, दूसरा चित्र देखने का अभ्यास होता है जो धीरे-धीरे आता है. यह रंगों और आँखों की भाषा है. जो लगातार चित्रों को देखते रहने से आती है. चित्रों को शब्दों में नहीं समझाया जा सकता और शब्द हैं ही कितने? इस मामले में सभी भाषाएं ग़रीब हैं. मानवीय संवेदनाओं और अनुभवों को व्यक्त करने के लिए शब्दों की कमी है, जैसे गुड़, शहद, गन्ना, केला, तरबूज़ सभी का स्वाद अलग-अलग है लेकिन भाषा में एक ही शब्द से काम चलाना पड़ता है, ‘ मीठी है’. ऐसे ही शब्द पेंटिंग की भाषा के आस-पास मंडरा ही सकते हैं. समझा उसे आँखों से ही जाएगा.’
मेरे लिए कला संसार के ज्ञान का नया द्वार खुल रहा था, जो आगे आने वाले समय में और खुलता गया. – कपूर सिंह
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