नज़रिया | कौशल नहीं, अब कमोडिटी बन गए हैं खेल

सौरव गांगुली स्वस्थ होकर घर लौट आए है. तो अब कुकिंग ऑयल के विज्ञापन के हवाले से सोशल मीडिया में नैतिकता और नसीहत का वह तूफ़ान भी थम गया, जिसके चलते पीआर कंपनी ने वह विज्ञापन रोक दिया था. कुछ बरस पहले युवराज जब बीमार हुए थे, उन दिनों वह लोगों को सक्रिय और फिट रखने वाले कैप्सूल का विज्ञापन कर रहे थे. उनकी बीमारी की ख़बर आम होते ही कंपनी ने युवराज की जगह सलमान को उसका ब्रांड एम्बेसडर बनाया गया. और भारत रत्न सचिन तेंदुलकर बेशुमार विज्ञापनों का चेहरे बने ही हुए हैं.

किसी के तकलीफ़ या बीमारी के हाल में होने पर इस तरह के सवाल असंवेदनशील ज़रूर लगते हैं मगर दवाई से लेकर खान-पान की तमाम चीज़ों के विज्ञापनों में खिलाड़ियों की मौजूदगी और खेल के बूते मिली शोहरत के आख़िरी क़तरे को भी करेंसी में तब्दील करने को लेकर उनके तर्क का विश्लेषण भला क्यों नहीं होना चाहिए? सवाल उठाने या टिप्पणी करने वालों से नैतिकता की अपेक्षा करने वालों को ऐसे लोगों से नैतिकता या ज़िम्मेदारी की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए क्या? और अगर हां, तो फिर ये सवालों से ऊपर कैसे हो सकते हैं?

महामारी के हल्ले के बीच आईपीएल का आयोजन खेल और बाज़ार के रिश्तों को समझने की ताज़ा नज़ीर है. आईपीएल आख़िर होकर ही रहा. हिंदुस्तान में अनुकूल परिस्थितियां नहीं हों तो न ही सही, यूएई में तो थीं न! और दर्शकों का क्या? नहीं भी होंगे तो चलेगा. टीवी पर तो आएगा ही! खेल नहीं रुकना चाहिए. ‘शो मस्ट गो ऑन.’ आईपीएल अकेली ऐसी प्रतियोगिता नहीं है, जो महामारी के हल्ले को धता बताकर शुरू हुई.

क्रिकेट का सीज़न बहुत पहले शुरू हो गया था. वेस्टइंडीज के इंग्लैंड दौरे के साथ ही. उधर एनबीए भी शुरू हो चुका है. टेनिस में यूएस ओपन और फ्रेंच ओपन भी हो गए और ऑस्ट्रेलियाई ओपन शुरू होने को आया. कोरोना से थमी ज़िन्दगी के बीच खेल गतिविधियां फुटबॉल से शुरू हुईं और जर्मनी की बूंदेसलीगा पहली लीग थी जिसने वैश्विक स्तर पर खेल गतिविधि शुरू की. खेल और दर्शक एक ऐसा युग्म है कि एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती. आर्थिक गतिविधियों को बहाल करना ज़रूरी हो सकता है पर बिना दर्शकों के खेलों ज़रूरी हैं तो क्यों? ये सवाल पूछा जाना लाजिमी है.

आलोचक शम्भूनाथ लिखते हैं “कभी राजनीति और बाज़ार धर्म के अधीन थे. एक समय आया जब धर्म और बाज़ार राजनीति के अधीन हुए. आज दिखता है कि धर्म और राजनीति बाज़ार के अधीन हो गए हैं.” बाज़ार की प्रभुता वाले इस समय में जब स्त्री देह और बच्चों की मासूमियत भी कमोडिटी बना दी गई हो तो खेलों की क्या बिसात? दरअसल खेल भी अब कमोडिटी से ज़्यादा और अलग कुछ नहीं. पिछले 40-50 सालों में खेलों में भी मूलभूत बदलाव हुए. ऐसे बदलाव जिनके ज़रिये खेलों को अधिकाधिक बाज़ार के अनुरूप बनाने की कोशिश की गई. यह कोशिश अब भी की जा रही है और इसने खेलों का चेहरा बदलकर रख दिया है. इसको चिन्हित करने का प्रयास हुआ या नहीं, नहीं मालूम. पर इसकी शिनाख़्त ज़रूरी लगती है.

दरअसल खेलों के स्वरूप में परिवर्तन की आहट भारत में खेलों में ‘सेन्टर ऑफ एक्सेलेन्स’की अवधारणा के साथ सुनाई देती है. आज से 40-50 साल पहले के समय को और भारतीय खेल परिदृश्य को याद कीजिए. उस समय खेल पैसा कमाने से ज़्यादा शोहरत अर्जित करने और स्वास्थ्य बनाने का शौकिया उपक्रम हुआ करता था. उन दिनों स्कूल-कॉलेजों की तो बात छोड़िए तमाम गली-मोहल्लों तक में छोटे-बड़े खेल मैदान होते थे, जिसमें बच्चे खेलते मिल जाते.

उस समय स्कूल और कॉलेज खेलों की नर्सरी हुआ करते थे. बड़ी तादाद में बच्चे इन मैदानों पर खेलने आते. यहीं पर उन्हें खेलने का सामान और सुविधाएं मिलती. यहीं से निकलकर बच्चे आगे बढ़ते और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक नाम कमाते. लेकिन उन दिनों हॉकी जैसे एक-दो खेलों को छोड़कर भारत खेलों में अच्छा नहीं कर पा रहा था. तब ये विचार आया कि खेलों का स्तर सुधारने के लिए सेन्टर ऑफ़ एक्सीलेंस बनाये जाएँ.

पटियाला में भारतीय खेल प्राधिकरण की स्थापना की गई और देश भर में स्पोर्ट्स हॉस्टल और स्पोर्ट्स कॉलेज बनाए गए. यह एक प्रगतिशील कदम था, जिसने खेलों का स्तर सुधारा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराई. लेकिन इसने खेलों का चरित्र बदल डाला. अब खेलों का केंद्र ये सेंटर हो गए. स्कूल-कॉलेजों और गली-मोहल्लों से खेल और खेल मैदान ग़ायब होने लगे और खेल अब इन सेंटरों के इर्द-गिर्द सिमटने लगे.

इन सेंटरों में सीमित संख्या में ही खिलाड़ियों की पहुंच बनती थी और है. अब खेलों में वे ही आते, जिन्हें इसी में कॅरिअर बनाना होता. शौकिया खेलने वालों की तादाद अब दिन-ब-दिन कम होने लगी. केवल खेल और खिलाड़ी ही कम नहीं हुए बल्कि खेल प्रतियोगिताएं भी कम होने लगीं. इन प्रतियोगिताओं में खिलाड़ियों और दर्शकों का बहुत ही आत्मीय रिश्ता होता और भावनात्मक लगाव भी.

इन प्रतियोगिताओं में स्थानीयता का पुट होता और मानवीय रिश्तों की ख़ुशबू. जहां खेल सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस तक सिमटने लगे, वहीं प्रतियोगिता अब केवल खेल संघों की ज़िम्मेदारी के दायरे में सिमट आईं. तमाम प्रतियोगिताएं जिनसे खेलों की पहचान होती थी, जिनसे जाने-माने खिलाड़ी निकलते थे और उसमें प्रतिभाग करते थे, नेपथ्य में चली गईं. याद कीजिए हॉकी की अंतर विश्वविद्यालय प्रतियोगिता, बेटन कप, आग़ा कप, मुरुगप्पा गोल्ड कप, क्रिकेट में मौइनुद्दोला कप, शीश महल कप, रोहिंटन बारिया कप और ऐसे ही तमाम खेलों की बहुत सारी प्रतियोगिताएं.

खेलों के मूल चरित्र में बदलाव और खेलों के बाज़ार के साथ गठजोड़ का एक बड़ा कारक बने खेल मैदानों की कृत्रिम सतहें. साल 1966. अमेरिका में पहली बार बेसबॉल के खेल मैदान पर कृत्रिम खेल सतह का प्रयोग किया गया. बाद में इसे एस्ट्रो टर्फ़ के नाम से जाना गया. कहा गया प्राकृतिक घास के मैदानों का रख रखाव न केवल कठिन होता है बल्कि महंगा भी होता है. फिर तो धीरे-धीरे हर खेल में कृत्रिम खेल सतहें आ गईं. यहां तक कि कुश्ती और कबड्डी जैसे मिट्टी में खेले जाने वाले खांटी खेलों में भी मैट्स का इस्तेमाल होने लगा.

यह एक बड़ा व्यवसाय बन गया. व्यवसायियों की लॉबी हर जगह सक्रिय हो गयी. नकली घास का यह चलन उन्होंने हर खेल में लाने की कोशिश की और अंततः काफी हद तक सफल भी रहे. यहां तक कि एथेलेटिक्स तक में सिंथेटिक ट्रैक आ गए. कृत्रिम सतहों से खेल में निसंदेह कुछ तो कृत्रिमता आती ही. ये सतहें प्राकृतिक सतहों की तुलना में अधिक तेज़ होती हैं. इसमें अतिरिक्त उछाल भी होती है.

इसने दो तरह से खेलों को प्रभावित किया. एक, अमीर और ग़रीब देशों के बीच खेलों के स्तर के गैप को और बड़ा कर दिया. सभी बड़ी प्रतियोगिताएं इन्हीं सतहों पर खेली जाने लगी. अमीर देश इन्हें आसानी से अफ़ोर्ड कर सकते थे. उनके खिलाड़ी बचपन से उन पर अभ्यास कर सकते थे. ये अमीर देश यूरोप और अमेरिकी महाद्वीप से थे. ये उन देशों के खिलाड़ियों की कद-काठी और जलवायु के काफी अनुकूल थी. जबकि ग़रीब देश इन प्राकृतिक सतहों का ख़र्च उठाने में असमर्थ थे और उन खुद खिलाड़ियों की शारीरिक क्षमता उन सतहों पर खेलने के उतनी अनुकूल न होने के कारण वे देश पिछड़ते चले गए.

दूसरे, इन सतहों ने खेल में एक अतिरिक्त तेज़ी ला दी थी और खेलों को पावर हाउस में तब्दील कर दिया. और यह तेज़ी और पावर उस प्रक्रिया की अनिवार्य ज़रूरत थी, जिसके तहत खेलों को बाज़ार की कमोडिटी के रूप में बदला जा रहा है या बदल दिया गया है. बाज़ार की आवश्यकताओं के अनुरूप खेलों को अधिकाधिक उत्तेजना उत्प्रेरक बनाया जा रहा था. बाज़ार की इस ज़रूरत पर खिलाड़ियों की सेहत से भी कम्प्रोमाइज़ किया गया, खिलवाड़ किया गया.

इन कृत्रिम सतहों पर खेलने से खिलाड़ियों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और शरीर में वीयर-टियर (टूट-फूट) बहुत होता है. पर बाज़ार की शक्तियां प्रबल है. हॉकी इसका एक उदाहरण भर है, जिसने खेल की कलात्मकता को ख़त्म कर उसमें ताकत और तेज़ी ला दी और एशियाई हॉकी और विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप की हॉकी को रसातल में पहुंचा दिया. पर बाज़ार को इसी की ज़रूरत थी और है.

फ़ुटबॉल में भी ये कृत्रिम सतह लाई गई लेकिन जब उसमें खिलाड़ियों पर विपरीत असर पड़ना शुरू हुआ तो जल्द ही मोह भंग हो गया और वे प्राकृतिक घास पर लौट आए. पर बाज़ार तो बाज़ार होता है. उसे इतने हल्के में कहां लिया जा सकता है. फ़ुटबाल में पुनः इसको स्थापित करने के ज़ोरदार प्रयास किए जा रहे हैं. इस बार इस बहाने के साथ कि ठंडे देशों में धूप की कमी के कारण प्राकृतिक घास का उगना कठिन होता है.

दरअसल आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, जब समय की बहुत कमी हो और क्षणिक उत्तेजना ही उसका सबसे बड़ा पैशन हो, किस तरह के खेलों की ज़रूरत आदमी को है और खेलों को बेचने के लिए बाज़ार को है? यही न कि खेलों के छोटे संस्करण हो और क्षणिक उत्तेजना के लिए उसमें ताक़त और गति का समावेश हो. खेलों में पिछले सालों में लगातार ऐसे परिवर्तन किए गए. विशेष रूप से खेल नियमों में परिवर्तन करके. खेलों के समय में लगातार कमी करके उन्हें छोटा किया गया और उन्हें टीवी के मुफ़ीद बनाकर उनमें ज़्यादा ब्रेक्स का प्रावधान किया गया.

क्रिकेट को ही ले लीजिए. क्रिकेट के पांच दिवसीय टेस्ट मैच के बाद एक दिनी क्रिकेट आया, फिर टी20 आया और अब तो 100 बॉल संस्करण और 10 ओवर संस्करण भी आ गया है. इन संस्करणों में सिर्फ़ चौके छक्कों और विकेटों के गिरने से उत्पन्न उत्तेजना भर हैं. उसमें खेल की बुनियादी भावना सिरे से नदारद है. इस प्रवृति ने खेलों के मूल रूप को ही विकृत कर दिया.

हॉकी के खेल का समय 70 मिनट की जगह 60 मिनट का कर दिया गया और 35 मिनट के दो हॉफ़ की जगह चार क्वार्टर कर दिए गए. ठीक इसी तरह से बास्केटबॉल में 20 मिनट के दो हॉफ़ की जगह 10 मिनट के चार क्वार्टर कर दिए गए. अब एक टीम को 24/30 सेकंड के अंदर बास्केट अटेम्प्ट करना और 6/8 सेकंड के अंदर अपने पाले से विपक्षी पाले में जाना अनिवार्य कर दिया गया.

टेबल टेनिस में खेल 15 अंकों की जगह 11 अंकों का कर दिया गया और मैच बेस्ट ऑफ़ फाइव की जगह बेस्ट ऑफ़ नाइन के कर दिए गए. बैडमिंटन और वॉलीबॉल जैसे खेलों में अंक गणना के तरीकों में ही परिवर्तन कर दिया गया. पहले सर्विस ब्रेक करने के बाद अपनी सर्विस पर अंक अर्जित करना पड़ता था. लेकिन अब सर्विस ब्रेक करने का अंक भी मिलने लगा है. जिसने खेल समाप्ति की अवधि कम करने का काम किया है. दरअसल नियमों में ये सारे बदलाव इस बात को ध्यान में रख कर किए जा रहे हैं कि खेलों में मैच की अवधि कम हो सके और उसमें ब्रेक अधिक हो सकें.

आज लोगों के पास समय कम है. तो प्रयास यही है कि खेलों के संस्करण छोटे हों ताकि दर्शक उन्हें पूरा देख पाएं. तभी विज्ञापन मिलेंगे और स्पॉन्सरशिप मिलेगी. दूसरी ओर इस कम अवधि में भी अधिकाधिक ब्रेक्स डाले जा रहे हैं ताकि खेल ज़्यादा से ज़्यादा टीवी के मुफीद हो सकें. यानी ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन दिखाए जा सकें. इसके अलावा अधिकाधिक ब्रेक और कम अवधि के कारण खिलाड़ियों में स्टेमिना बना रहता है, उन्हें अधिक समय तक स्टेमिना बचाकर नहीं रखना होता है. इससे खिलाड़ी अधिक पावर और गति का प्रयोग कर एक अतिरिक्त उत्तेजना पैदा कर सकता है. ये भी खेलों के बाज़ारीकरण की एक अनिवार्य शर्त है.

खेलों के बाज़ारीकरण या व्यवसायीकरण का एक और ज़रिया है – तकनीक. खेलों में तकनीक का प्रयोग वहां तक तो उचित लगता है, जहां तक वे खिलाड़ियों के कला कौशल में स्वाभाविक वृद्धि करें. लेकिन जब तकनीक का हद से ज़्यादा प्रयोग होने लगे और अप्राकृतिक रूप से खिलाड़ियों की क्षमता को बढ़ाया जाने लगे और उनको रोबोट बनाया जाने लगे तो दिक्कत की बात है.

दरअसल अब हो ये रहा है कि बाज़ार के अनुरूप खेलों को अधिक गतिवान और पावरफ़ुल बनाने के लिए खिलाड़ियों के शरीर, उनके कपड़े, खेल मैदानों की सतहें और खेलों में प्रयुक्त किए जाने वाले उपकरणों में तकनीक का इस हद तक समावेश किया जा रहा है कि खेल दो खिलाड़ियों या खिलाड़ियों की दो टीमों के बीच की स्पर्धा न होकर तकनीक की स्पर्धा हो गई है.

खेलों को कमोडिटी में बदलने के मूल मंत्र हैं पावर, गति और उत्तेजना. इसीलिए बाज़ार की दृष्टि से खेलों में अवकाश का, अंतरालों का और कलात्मकता का कोई स्थान नहीं रह गया है या बहुत कम रह गया है. अगर रह गया है तो सिर्फ उतना भर कि इसके एकदम ख़त्म होने से दर्शकों की रुचि ही न खत्म हो जाए. खेलों से कलात्मकता ख़त्म होती जा रही है. खिलाड़ी मनुष्य से अधिक रोबोट होते जा रहे हैं. फिटनेस फ़्रीक कोहली या कैप्टन कूल धोनी के बरअक्स कपिल, गावस्कर को देखिए तो समझ आएगा.

दरअसल खेलों की अवधि को कम करने और उसमें अधिक ब्रेक की आवश्यकता की भरपाई खेलों के अंतराल ख़त्म करके या न्यूनतम करके की जा रही है. आपको खेलों के इस अंतराल और इसके महत्व को समझना ज़रूरी है. हर खेल में खिलाड़ी का लक्ष्य होता है, मसलन गोल बनाना या अंक अर्जित करना या रन या विकेट अर्जित करना. खिलाड़ी या टीम इसको अर्जित करने का और विपक्षी को अर्जित करने से रोकने का निरंतर प्रयास करते हैं.

एक प्रयास शुरू करने और अर्जित करने के बीच का समय ही वो अंतराल है जिसमें एक खिलाड़ी अपने खेल कौशल, अपनी स्किल, अपनी कलात्मकता का निदर्शन कर सकता है या करता है. पर बाज़ार को सीधे परिणाम चाहिए. उनके लिए अंतराल जितने कम हों उतना अच्छा. बस इसी को नए-नए नियम बनाकर कम से कम करने का प्रयास किया जा रहा है. बाज़ार के लिए हर प्रयास का जल्द से जल्द परिणाम अधिक मायने रखता है. इसे आपने कैसे हासिल किया इसका महत्व अब नहीं रहा. इसीलिए अब स्किल का स्थान ट्रिक्स ने ले लिया है. इसको खेलों के उदाहरण से समझा जा सकता है.

अब क्रिकेट को लीजिए. टेस्ट मैच में इतना अवकाश/अंतराल होता था कि आप गेंद और बल्ले के बीच कला कौशल का क्लासिक संघर्ष देख सकें. बल्लेबाज़ को हर गेंद पर रन बनाने की जल्दबाजी नहीं करनी होती थी. वो हर अच्छी गेंद को आराम से क्लासिक अंदाज़ में खेल सकता था या छोड़ सकता था और रन बनाने के लिए एक ऐसी गेंद का इंतज़ार कर सकता था जिस पर एक क्लासिक स्ट्रोक से रन बना सके. ओवर दर ओवर इसी क्रम में मैदान में फेंके जा सकते थे.

ठीक इसी तरह गेंदबाज़ अपनी गेंदबाज़ी की कला का निदर्शन करता और बल्लेबाज़ को गलती करने के लिए मजबूर करता. इसमें बैटिंग और बॉलिंग में एक क्लासिक और कलात्मक संघर्ष देखने को मिलता. लेकिन इसके संक्षिप्त संस्करण में हर गेंद पर रन बनाने या विकेट निकालने की जल्दबाजी करनी ही है. क्योंकि चौके-छक्कों से या विकेट गिरने से ही दर्शकों का मनोरंजन होना है. उनमें एक कृत्रिम उत्तेजना पैदा होनी है.

अब बल्लेबाज़ को हर गेंद पर चौके छक्के लगाने के लिए अपनी कला का प्रयोग करने के इंतज़ार की इजाज़त या अवकाश नहीं है और न गेंदबाज को विकेट लेने के लिए अपनी स्किल के प्रयोग करने की. अब उसे तुरत-फुरत में ट्रिक का इस्तेमाल करके बल्लेबाज़ को गेंद बाउंड्री से बाहर मारनी है और बॉलर को विकेट लेना है.

हॉकी को देख लीजिए. एस्ट्रो टर्फ ने खेल को पावर और गति दी. और एक नियम के ख़त्म कर देने भर से खेल महज ‘हिट,रन एंड गोल’ तक सीमित कर दिया है. हॉकी और फुटबॉल में ऑफ़ साइड का एक नियम होता है. ये नियम काफी जटिल होता है. लेकिन ये खेल को वांछित प्रतिस्पर्धा और कला कौशल के निदर्शन के लिए पर्याप्त अंतराल देता है. पर इसमें गति लाने और अधिक गोल के लिए इस नियम को ख़त्म कर दिया गया. अब लंबे पावरफुल हिट और गोल मूलमंत्र हो गए. ड्रिब्लिंग और टेकलिंग के लिए जो अंतराल था, उसका महत्व ही ख़त्म हो गया.

बैडमिंटन और वॉलीबॉल में जो सर्विस बदलने पर भी अंक मिलने के कारण प्रतिस्पर्धा करने और कला निदर्शन का जो अंतराल था वो बहुत हद तक ख़त्म हो गया. बास्केटबॉल में 24/30 सेकंड के नियम ने भी यही किया. जिसने तीन पॉइंटर शॉट को इस कदर प्रॉमिनेन्ट कर दिया कि ले अप और डंक को पार्श्व में धकेल दिया.

और अंततः खेलों में लीग के आगमन ने खेलों और खिलाड़ियों को पूरी तरह से कमोडिटी में बदल दिया. इसका एक उदाहरण काफी है. मौज मस्ती, मनोरंजन, सट्टा और पार्टियों का पुंज आईपीएल महज एक सर्कस से इतर कुछ है क्या?

दरअसल खेलों को कमोडिटी बनाने के क्रम में खेलों के अंतरालों को कम या ख़त्म करने का मतलब है खेलों से उसकी कलात्मकता छीन लेना. उसकी आत्मा मार देना. उसकी कोमलता ख़त्म कर देना. उसकी सहजता और सरलता को विनष्ट कर देना. उसकी रवानी और निरंतरता पर ब्रेक लगा देना. अब खेल शुष्क वस्तु भर हैं जो देखने में तो आकर्षक है जिससे कुछ समय के लिए आपमें उत्तेजना तो आती है पर आपके दिल के क़रीब नहीं आ पाती.

खेल ऐसी वस्तु में तब्दील होते जा रहे हैं, जिसमें बाहरी सौंदर्य तो है जिसकी चकाचौंध आपको आकर्षित तो करती है, आपमें क्षणिक आवेग भी भरती है पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं बना पाती, आपके दिल में घर नहीं कर पाती. यह समय खेलों के एमेच्योर स्वरूप के पूरी तरह प्रोफ़ेशनल स्वरूप में रूपांतरित हो जाने का है. एक पैशन, लगाव, आनंद का एक वस्तु, एक कमोडिटी में बदल जाने का है.

कवर| Comfreak from Pixabay“>


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