कहानी | नासपीटी कलट्टरी

  • 8:36 am
  • 22 September 2024

(हंस के 1986 के नवंबर अंक में छपी ‘नासपीटी कलट्टरी’ मेरी ख़ास पसंद इसलिए बन गई कि राजेंद्र यादव जी ने उसकी अनेक बार अनेक तरह से चर्चा और प्रशंसा की ही थी- अपने संपादकीय में भी तीन-चार बार उसका प्रमुखता से उल्लेख किया था. बाद में कृष्णा सोबती द्वारा उसे 1986 की श्रेष्ठ कहानी के रूप में ज्ञानपीठ से छपे भारतीय भाषाओं के एक संकलन में स्वदेश दीपक की कहानी के साथ स्थान दिया था. 38 साल बाद हंस ने अपने मुड़-मुड़ के देख स्तंभ में यह कहानी अभी फिर छापी है. – प्रेम कुमार)

चार महीने पहले गांव में आया तूफान अब थम-सा गया था. सुबह-शाम की चर्चाएं लगभग अपने विषय बदल चुकी थीं. लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि अब उपप्रधान भी वही होगा, जिसे प्रधान चाहेगा. प्रधान तक कोई नहीं पहुंच सकता. दशहरे के दिन जैसे ही गांव के मेम्बरों को प्रधान जी द्वारा मीटिंग की सूचना दी गई, फिर से एक बार जैसे कोई भूचाल आ गया था. उसी दिन सबको पता लग गया था कि मीटिंग-वीटिंग का तो बस बहाना है. प्रधान जी किसी को उपप्रधान बनाना ‘ चाह रहे होंगे. चौदह मेम्बरों में से हर एक स्वयं को उस पद का सबसे तगड़ा उम्मीदवार मान रहा था. साथ ही प्रत्येक को यह भी भय था कि उपप्रधान तो उसे ही होना है जिसे प्रधान जी चाहेंगे. आश्चर्य यह था कि प्रधान जी की चाह की भनक किसी को नहीं थी. कुछ वाचाल और चतुर पिछले अनुभवों के आधार पर कुछ भविष्यवाणियां अवश्य कर रहे थे. शर्तों के साथ कुछ नाम हवा में उछाले जा रहे थे. सूचना मिलने के दिन से ही मेम्बर लोग अपना काम-धंधा छोड़ चुके थे. अपने पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए जातीय भाइयों को अपने धर्म का निर्वाह करने की शपथ दिला रहे थे. सुबह को घर से निकलते समय उन्हें पता नहीं होता था कि वे कहां जा रहे हैं और कब लौटेंगे. रास्ते में, जो भी मिलता मेम्बर साहब को राम-राम कर तुरंत एक ही प्रश्न करता-‘कौने बनवाए रएऔ अबके उपपिरधान तुम्हारौ लाला?’ साथ ही एक सलाह भी देना लोग नहीं भूलते थे-‘हुसियार रहियो. बड़ो भीतरो ऐ जे पिरधान. जाके मन की देवतऊ न जान सकें. कालिया नागु ऐ पूरौ. जाको काटो लहर नाय लेय. जो जाकी खिलापत में आयो, बाको मटिया मेटई हैगो.’ मेम्बर साहब बड़े इत्मीनान से खड़े होकर उसे विश्वास दिला देना चाहते थे कि उन्हीं के नाम को सब जोर दे रहे हैं. प्रधान जी ने उन्हें घर बुलाकर समझा दिया है.

मेम्बरों के नामों में इन दिनों लोगों ने स्वयं ही परिवर्तन कर लिया था. रमचन्ना अब रामचंद्र हो गया था, ननुआ, नन्नूर सिंह; सुम्मेरा, सुमेर सिंह; समसू, शमसुद्दीन खां; नौबता, नौबतराम हो गए थे. इन सब मेम्बरों का एक सामान्य नाम था ‘मेम्बर साहब’. मीटिंग शुरू होने तक नामों को हवा में उछाला जाता रहा. हर नाम जैसे एक गैस भरा गुब्बारा बन गया था, जिसे प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तर्कों की डोर से नीचे-ऊपर कर रहा था.

मीटिंग वाले दिन सैकड़ों तमाशबीन और समर्थक प्रधान के घर के सामने सुबह से ही इकट्ठे होने लगे थे. दस बजे तक सभी मेम्बर भी आ-आ कर भीतर कमरे में बैठ चुके थे. बीड़ियों के धुएं और शोर से भरे उस कमरे में प्रधान जी के पहुंचते ही सब लोग मनचाही घोषणा सुनने के लिए शांत हो गए थे. प्रधान जी ने हाथ जोड़ते हुए स्थान ग्रहण कर, सबको काम छोड़कर वहां आने का कष्ट करने के लिए धन्यवाद दिया था. प्रधान जी से धन्यवाद पाकर हर मेम्बर की छाती जैसे दो इंच फैल गई थी और गर्दन तीन इंच लंबी हो गई थी. फिर प्रधान जी ने बताया कि इस ग्राम सभा में चूंकि कोई महिला मेम्बर नहीं चुनी गई है, अतः सरकार ने उन्हें यह आदेश दिया है कि पहले एक महिला को मेम्बर बनाया जाए. उन्होंने आज की मीटिंग को बुलाने का इरादा स्पष्ट कर मेम्बरों से महिला मेम्बर के लिए नाम देने का अनुरोध किया था. साथ ही साथ यह भी घोषणा उसी समय कर दी कि इसके बाद अगले महीने की दस तारीख को दस बजे उपप्रधान का चुनाव होगा. मीटिंग के बाद सभी मेम्बर इस सूचना पर भी दस्तखत कर दें. अनेक नाम आए. वे सभी नाम किसी न किसी मेम्बर की मां, बहन या पत्नी के थे. केवल दो ही नाम ऐसे थे जो किसी भी तरह वहां बैठे मेम्बरों के परिवारों से नहीं जुड़ रहे थे. एक था गांव की विधवा ब्राह्मणी रामवती का और दूसरा उसी गांव की परित्यक्ता मुस्लिम स्त्री जुबैदा का. दोनों नामों को लेकर काफी बहस-मुबाहिसा हुआ. रामवती के पक्ष में उसका ब्राह्मणी होना, बड़ी-बूढ़ी होना तथा सीधी होना बताया गया, तो जुबैदा के पक्ष में थोड़ा बहुत पढ़ा-लिखा होना, हाकिमों से बात कर सकना तथा साफ-सुथरा रहना बताया गया. रामवती के विरोध में कहा गया कि विधवा औरत छुट्टल गैया होती है. किसी सुहागिन को ही मेम्बर बनाया जाए, चाहे कोई छोटी जाति की ही क्यों न हो. जुबैदा का विरोध सबने दबे स्वर में और प्रधान जी के कान में किया, क्योंैकि वहां दो मुसलमान मेम्बर भी बैठे थे. कुछ लोगों का कहना था कि न तो रामवती और ना जुबेदा ही मर्दों की तरह यहां आकर बैठने को तैयार होगी. किसी निर्णय पर न पहुंच पाने पर यह काम प्रधान जी पर यह कहकर छोड़ दिया गया कि वे शाम तक दोनों से बातें करके जिसे ठीक समझें, चुन लें. हम सब उसी के नाम पर दस्तखत कर देंगे और मीटिंग खत्म हो गई. जाते समय ग्यारह मेम्बर प्रधान जी के हाथ में लगे कागज पर अंगूठा लगा गए थे. शेष लोगों में से एक ने धीरे-धीरे अंग्रेजी में, एक ने उर्दू में तथा एक ने हिंदी में प्रधान जी की डॉट पेंसिल से दस्तखत कर दिए थे.

शाम को ही दो चर्चाएं एक साथ एक जुबान से दूसरे के कान तक पहुंचने लगीं. रामवती को मेम्बर चुन लिया गया है और प्रधान अब उसे उपप्रधान बना देगा. यह भी कि महिला मेम्बर चुनना भी प्रधान के दिमाग की ही उपज थी. अब उसे अपनी पत्नी का न होना नहीं खलेगा. चर्चाओं और प्रचार-अभियान का जोर परस्पर होड़ के साथ बढ़ने लगा. अब केवल उम्मीदवार ही नहीं, उनके समर्थक भी काम-धंधा छोड़कर अपना-अपना उपप्रधान बनवाने की चालें चलने लगे. घरों-मुहल्लों में शाम से शुरू हुई मीटिंग आधी-आधी रात तक चलतीं. हर मेम्बर दिन में एक बार प्रधान जी से जरूर मिल आता. शुरू के दो-तीन दिनों की लगातार मीटिंगों से मेम्बर इस एक राय पर पहुंच पाए कि पंद्रह की जगह केवल तीन या चार ही उम्मीदवार मैदान में आएं. पंद्रह में से तीन-चार नाम छांटने के लिए गांव के बड़े-बूढ़ों की सलाह से एक फार्मूला तैयार किया गया. लोधे राजपूतों के पांच मेम्बर हैं, मुसलमानों के दो, दो बनियों के, दो बामनों के तथा एक-एक नाई, धोबी, जाटव और अहेड़ियों के. जिनके दो या दो से अधिक मेम्बर हैं, वे पहले अपने आप एक-एक नाम तय करके प्रधान जी को दे दें. बाद में उन चारों में से अगर सबकी सलाह बन गई तो बिना चुनाव के ही तय कर लेंगे. नहीं तो चुनाव हो जाएगा चारों के बीच.

पहले दिन की चर्चाओं में तो यह फार्मूला सही लगा, किंतु दूसरे दिन की चर्चाओं ने नया मोड़ ले लिया. प्रधान जी के घर मेम्बरों का आना-जाना दिन में कई-कई बार होने लगा. कभी वे एक दूसरे के इरादों और गुप-चुप हुई मीटिंग की खबर दे आते. कभी प्रधान जी को चेतावनी दे आते कि अगर वह हुआ तो अच्छा नहीं होगा. वह हुआ तो लाठियां चल जाएंगी, वह हुआ तो खून-खराबा हो जाएगा. इस दिन तक इतना अवश्य था कि कोई भी मेम्बर अपना या किसी और होने वाले का नाम उपप्रधान के लिए नहीं ले रहा था. पहले तो मेम्बर बड़ी जाति और छोटी जाति में बंटते दिखे. बाद में वह विभाजन कई रूपों में सामने आने लगा. छोटी जातियों के चारों मेम्बर चार जातियों का प्रतिनिधित्व कर ही रहे थे. उच्च जाति की चार इकाइयों में फिर से विभाजन हुआ और वे गांव में स्थित अपने घरों की दिशाओं के आधार पर पुमांएं-पंछाएं हो गए. प्रारंभ में लगा कि अपनी जाति, अपने मुहल्लों से संबद्ध अनेक तर्कों और समर्थकों को साथ लिए पंद्रह के पंद्रह मेम्बर उपप्रधानी के मैदान में होंगे. एक तरफ जहां इन सब मेम्बरों का अपने मोहल्लों-टोलों में जाना नियमित हो गया था. वहीं प्रत्येक दूसरे मेम्बर को अपनी तरफ लाने के लिए हर तरह की चालबाजियों में लगा था. कहीं गंगाजली उठवाई जा रही थी. कहीं रामचरितमानस का गुटका हाथ में था, कहीं नमक गलाकर कसमें ली जा रही थीं, तो कहीं कुरान को पकड़वाया जा रहा था. एक और काम उन दिनों प्रत्येक मेम्बर कर रहा था. पीछे-पीछे एक-दूसरे की जन्मपत्री के काले पृष्ठों को नया रूप देने में मेम्बर लोग प्राणपण से जुटे हुए थे. किसने कब किस औरत के साथ आशनाई की, किसने कब डकैती डलवाई, किसने कब जाति धर्म विरोधी कार्य किए, किसने कब किसकी हत्या कराई, कौन गुंडा है, कौन शराबी कबाबी है. इस बारे में विस्तृत प्रामाणिक सूचनाएं प्रसारित करना जैसे चुनाव जीतने के लिए उन दिनों प्रत्येक मेम्बर को अनिवार्य हो गया था. चुप थे तो केवल प्रधान जी. उन्होंने सीधे इस संबंध में किसी से कुछ नहीं कहा. पर हां, लोग प्रतिदिन अपनी-अपनी तरह से उनकी चुप्पी का विशेष और नया अर्थ ले रहे थे.

चर्चाएं और तेज हुईं. मीटिंग और अधिक होने लगीं. अब मीटिंग सिर्फ चार जगह चल रही थीं-रामवती के घर, सुमेर सिंह के घर में, नन्नूट सिंह के हाते में तथा शमसुद्दीन की गढ़ी पर. रामचंद्र अपने घर की जगह दूसरों के घर आ-जा रहा था. कुछ मेम्बरों ने खुलेआम अपना समर्थन घोषित कर दिया था. कुछ प्रत्येक मीटिंग में भाग ले रहे थे. प्रत्येक मीटिंग में भाग लेने वाले मेम्बर चारों स्थानों पर अपनी वफादारी का विश्वास दिला रहे थे. साथ ही वे एक मीटिंग की गुप्त सूचनाएं दूसरे स्थान पर यह कहकर दे रहे थे कि ‘पाल्टिस’ तुम्हारी तरह घरों में बैठकर नहीं लड़ाई जा सकती. इन मीटिंगों से बिल्कुल अलग और बहुत परेशान थी, तो केवल रामवती. उसे रोज-रोज की यह चिक्-चिक् बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही थी. वो तो अगर उसका बेटा नौकरी पर से आकर उससे जिद न करता तो वह कभी राजी न होती. उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह मर्दों के साथ कैसे बैठेगी, क्या करेगी?
निश्चित तिथि को सुबह से ही प्रधान जी के यहां भीड़ लगने लगी. निष्पक्ष और शांतिपूर्ण ढंग से चुनाव कराने के लिए प्रधान जी ने एक ए.डी.ओ. (पंचायत) तथा थाने से एक दरोगा को सुबह ही बुलाकर बिठा लिया था. सबसे पहले शमसुद्दीन खां आए. प्रधान जी को अलग ले जाकर उन्होंने कान में बता दिया कि उनके छः मेम्बर पक्के हैं. वैसे भी उनका इस बार उपप्रधान बनना इसलिए जरूरी है कि यहां मुसलमान प्रधान जी से बहुत नाराज हो जाएंगे और फिर कभी यदि प्रधान जी को मुसलमानों के वोट न मिले तो शमसुद्दीन खां जिम्मेदार नहीं होंगे. शमसुद्दीन के इस तरह बात करने के बाद हर उपस्थित मेम्बर का प्रधान जी के कान पर मुंह रखकर बातें करना बेहद जरूरी हो गया था. स्वयं से पहले आए मेम्बर के कहे शब्दों को सूंघने और अपने मन की बातें उड़ेल देने के इरादे से वे एक-एक कर अपना मुंह प्रधान जी के कान पर टिकाने पहुंच रहे थे. नन्नू सिंह ने अपनी राय व्यक्त की थी-मुसलमान के उपप्रधान बनने पर गांव की नाक कट जाएगी. प्रधान जी को पछाई तरफ के सुमेरा को समझाकर अब की बार पुमाई तरफ के नन्नूए सिंह को उपप्रधान बना देना चाहिए. सुमेर सिंह का कहना था कि बनियों के मुड्ढ स्वयं प्रधान जी हैं. अतः उपप्रधानी के एकमात्र सही दावेदार सुमेर सिंह जी हैं. विरोधियों को ठिकाने लगा सकने की अपनी क्षमता तथा अपनी जाति के वोटों का प्रधान जी के चुनाव में महत्व उन्होंने प्रधान जी को बैठने से पहले समझा दिया था. रामचंद्र ने स्थान ग्रहण करने से पूर्व प्रधान जी को सावधान किया था कि उनकी जगह कोरी, कंजड़ का उपप्रधान बन जाना उनकी जाति और गांव के लिए बहुत चिंताजनक व शर्मनाक बात होगी.

दरोगा जी और ए.डी.ओ. साहब के हाथ जोड़-जोड़कर प्रधान जी से बातें कर-करके वे बैठते जा रहे थे. प्रधान जी, ए.डी.ओ. साहब और दरोगा जी कुसियों पर बैठे थे. मेम्बरों के लिए वहीं दरी बिछी थी. कमरे के बाहर देखने वालों की भीड़ खड़ी थी. दस कभी के बज चुके थे. चार मेम्बर अभी नहीं आए थे. उनके न आने पर वहां बैठे लोगों की झुंझलाहट अनेक प्रकार से व्यक्त हो रही थी. प्रधान जी ने बाहर आकर भीड़ में से कुछ नामों को पुकार कर मेम्बरों को उनके घरों से जल्दी बुला लाने का आदेश दिया था. इस बीच प्रधान जी और दोनों अधिकारी मेम्बरों को एकता, न्याय और ईमानदारी का उपदेश देने लगे थे. गांव के विकास और उसमें उन लोगों की भूमिका पर भाषण देने लगे थे. एक व्यक्ति ने आकर सूचना दी, “रामबती चाची पथनहारे में हतें. थोरौ सौ गोबर और रौहे. कंडा पाथ के सीधी यहीं आंगी. मैं कै आयो ऊँ.”

दूसरे ने हांफते हुए आकर बताया, “बुद्धसैन बला सबेरी के घाट पे गए ऐं. लत्ता धोइकैं जल्दी लौटिवे की कै गए ऐं.”

तीसरी सूचना देने वाला ज्यादा परेशान होकर लौटा था. शायद इसीलिए उसके स्वर में झुंझलाहट थी, “सिगरे गाम कू खूंदि आयौ तब तौ सल परी. गढ़ी में हजामत बनाए रोए मौला. एक हजामत और रहइऐ बापै. बाय बना के बेग आवैगौ.’ चौथे मेम्बर के घर से मिली सूचना के अनुसार मेम्बर साहब बुग्गी से किसी की ईटें भाड़े पर डाल रहे हैं. वे इधर से ही बुग्गी लेकर लौटेंगे. क्या किया जा सकता था? प्रतीक्षा करनी ही थी. दरोगा के चेहरे पर थकान, क्षोभ और गुस्सा साफ दिख रहा था. ए.डी.ओ. साहब ने गुस्से में ही कहा कि जब समय दिया गया हे तो सही समय पर आना चाहिए. तभी चाय-नाश्ता वहां आ गया. प्रधान जी ने अफसरों को खुश करने के लिए यह आदेश घर पहले ही दे दिया था कि अफसरों को हर घंटे के बाद और मेम्बरों को एक बार चाय-नाश्ता अवश्य पहुंच जाए.

प्रधान जी ने हंसते हुए उन लोगों के क्रोध को कम करने के उद्देश्य से कहा, “सब काम समय पर कर लें तो गंवार कैसे कहाएं?” वहां बैठे लोग यह सुनकर भीतर-भीतर खुश हुए. आपस में खुसर-फुसर होने लगी. उन्हें लगा जैसे वे गंवार नहीं हैं. प्रधान जी ने उन्हें अच्छा नहीं कहा तो कम से कम अफसरों के सामने गंवार तो नहीं कहा. शमसुद्दीन ने कुछ कहना जरूरी समझा, “आ जाएंगे. कौन-सी गाड़ी निकली जा रही है अभी?”

नन्नूक सिंह को लगा कि उन्हें चुप नहीं रहना चाहिए, “काम तो रोज के ऐं. चुनाव रोज थोंरई होतैं. हमऊ तो बैठेएं काम छोड़ि के काम छोड़ेंई काम होए.”

सुमेर सिंह को चुप रहना अपनी हार लगी-“कौन ससुरे एम.पी., एम.एल.ए. की बोट पर रइएं के बोट लेन बारौ और डान्न बारौ बा जगै होए चाय नाय होए, बोट पज्जातें. हार जीत है जातैं. झां तो उनको पैड़ौ देखनोई परेगौ.” यह क्रम शायद और भी चलता यदि बाहर आवाजें तेज न हुई होतीं और लोगों की आ गए’, ‘आ गए’, सुनाई न दे जाती.

‘जल्दी आओ मेम्बर साब, सब तुम्हारौई पेंड़ौ देख रएऐं तब ते-सुमेर सिंह कह उठा था. पैना हाथ में लिए, बनियान और अंडरवियर पहने नंगे पैर, धूल-धूसरित शरीर लिए मनसुखराम ने बैठते हुए हंसकर कहा, “का बताऊं भिंचो, जे का पतौई कै जा सारे भैंसऊ कूं जाई चक्कर पै तान आबैगी. अबकी पैंठ मैं काम भाओ सारे को तीया पांचो कर दंगो.’ तभी भोलाराम डरा सहमा, सकुचाया लाल अंगोछे में लिपटे उस्तरा-कैंची बगल में दबाए झुका हुआ कमरे में प्रविष्ट हुआ. सब उस पर एक साथ बरस पड़े. रामवती जैसे ही घूंघट मारे अपने बेटे के साथ कमरे में आकर बैठने को हुई, प्रधान जी ने चुटकी ली. “वाह पंडिताइन, तुम्हारे तो अभी से यह हाल हैं. गांव का क्या उद्धार करोगी तुम? अब तो इस बुढ़ापे में यह हाय ममता छोड़ो.” वह अपने को रोक न सकी. घूंघट के भीतर से उसने मर्दों के बीच बैठकर झिझक छोड़ने की पहली सफल कोशिश की, “ठीक कै रएऔ पिरधान जी, तुमारौ का दोस ऐ? सिकी सिकाई मिल जातें न दोउ बखत. एक जानतो है नाय, बालकऊ ऐं, बैल पोहेऊ ऐं, गोबर-कूढ़ौ, चौका-बासन सब कन्नौद पर. बैल की तरह सिगरे दिन जुते रहौ तोऊ तो काम दबै नाय. तुम अपनी सी समझतौ.” बुद्धसैन अपनी भीगी धोती पर गाढ़े की बनियान लटकाए सने पैरों जैसे ही अंदर घुसा, मनसुख ने मजा लिया, “जे तो सबनतेई पिछारी रहगौ.” “आवत आवतई तो आवतौ. घरी तो लटक नाय रई मोपै के ठीक घंटा की सुई देख के घाट पैते चल देतौ.” उत्तर देकर बुद्धसैन भी बैठ गया था.

शुरू में एक बार फिर दरोगा जी, ए.डी.ओ. साहब व प्रधान जी ने लोकतंत्र, चुनाव, ग्राम विकास जैसे शब्दों का अनेक बार प्रयोग करते हुए मेम्बरों के पदों की महत्ता और गरिमा को समझाया था. प्रधान जी ने पहली परंपराओं का उल्लेख करते हुए यह निवेदन किया था कि इस बार भी सम्मानित सदस्य चुनाव की स्थिति न पैदा होने दें. किसी एक व्यक्ति को निर्विरोध चुन लें. गांव के इतिहास में पहले कभी उपप्रधान के लिए चुनाव नहीं लड़ना पड़ा. जमाने के बदलते जाने की बात स्वीकारते हुए भी प्रधान जी ने यह आशा व्यक्त की थी कि इस बार भी चुनाव में भाग लेने के इच्छुक मेम्बर स्वयं ही अपना नाम वापस लेकर किसी एक नाम पर जल्दी ही सहमत हो जाएंगे. प्रधान जी का बोलना बंद होते ही सब एक-दूसरे के चेहरों की ओर देखने लगे थे. काफी देर चुप्पी छाई रही थी. चुप्पी को प्रधान जी ने ही तोड़ा था, “पहल करें. अपना नाम वापस लेकर कौन त्याग का नमूना पेश करेगा? गांव के हित के लिए हम लोगों को अपनी जिदें त्याग देनी चाहिए.” सब चुप थे. एक-दूसरे की ओर देख रहे थे. दरोगा जी ने हस्तक्षेप किया, “आप लोग जो भी करना है, जल्दी करें. अगर एक नाम पर राजी नहीं हो रहे तो चुनाव करा लें.” प्रधान जी को अभी आशा थी, “थोड़ा सोचने का समय दें. चुनाव की नौबत नहीं आएगी. अब तक तो जो नाम मैंने दे दिया उसी को सब मान लेते थे. अबकी बार ये स्वयं ही एक नाम दे देंगे. गांव की भलाई के लिए ये लोग सब तरह का त्याग कर सकते हैं दरोगा जी. क्योंा भाई सुमेर सिंह, चुप क्योंग हो? तुम्हीं पहल करो!”

“गजब कत्तो तुमऊ पिरधान जी. का भिंचो मैंईं तुमकूं सबते बोदौ नजर आतूं? मेरी तियाग तो तब देखियो जब मैं चुन जाऊं. सिगरी सड़कन पै खिरंजा न डरवाय दऊं तौ नाम नाय.”

नन्नूख सिंह को लगा कि कहीं प्रधान जी सुमेर सिंह की बातों में आकर इस बार फिर पछाईं तरफ का मेम्बर न चुनवा दें, “खिरंजा का तू अपनी गांठि ते डरवाए देगौ? मोय बन जान दे फिर देख कैसी काया पलट करतूं जा गाम की. पोल-पोल पै बलफ लटकवाए कै सहर न बनाय दऊं तौ जामै कुत्ता खाएं तामे खवाय दइयो.’!

सुमेर सिंह का चेहरा तमतमा गया. उत्तर उसने ही दिया होता यदि शमसुद्दीन पहल न कर गए होते, “ये सब तो यूं ही हो जाएगा. मैंने तो बहुत पहले ही सबसे यह कह दिया है कि यहां एक अस्पताल खुलवाकर ही चैन से बैठूंगा.”

लाला रामचंद्र से भी चुप नहीं रहा गया, “तुम मोय बनाय कै तो देखो. पैलो काम तो जे करंगो के ब्याज कम कर दंगो. फिर एक महिनई में पुलिस चौकी न लाय दई तो रामचंदर नाम नाय. बैंकऊ खुलबानी ऐं मोय तो.”

कहना रामवती भी कुछ चाहती थी पर चुप रही. सुमेर सिंह को नन्नूप सिंह की तरफ मुखातिब होकर कुछ क्रोध में कहते देखकर प्रधान जी ने माहौल बिगड़ने के डर से फिर हस्तक्षेप किया, “लगता है तुम लोग वैसे ही टाइम बर्बाद कर रहे हो. तुम सब राजी हो तो मैं एक बात कहूं.” बात सुनने के लिए सबने सहमति व्यक्त की. प्रधान जी ने हंसते हुए पहले तो रामचंद्र को समझाया, “लाला तुम अपना नाम वापस ले लो. क्यों इस चक्कर में फंसकर अपनी दुकान और धंधा चौपट करते हो?” लाला पर अचानक जैसे बिजली गिर पड़ी हो. वह चुप ही रह गया. प्रधान जी को लगा कि उन्हें सफलता मिली है. कुछ अधिक उत्साह और मुस्कराहट के साथ उन्होंने सुमेर सिंह की ओर देखा, “नम्बरदार तुम भी हमारी मानो तो बैठ जाओ. अबकी बार पुमाई तरफ चली ही जाने दो उपप्रधानी. और फिर नन्नून सिंह को तो कोई फिक्र है नहीं. खूब जमीन है, ट्यूबवेल है, चक्की है, कोई जिम्मेदारी भी नहीं है. तुम्हारी जान पर तो पूरी गृहस्थी का बबाल है. मेरी राय मानो…” सुमेर सिंह से रुका नहीं गया, “खूब कही पिरधान जी. कोई धन्ना सेठ होयंगौ तो ससुर अपने घर कूं, मैं का काऊ सारे के घर खाबै जातूं. और जेई बातै तौ है जाय मैं का बात में काऊ ते कमऊं?”

“देख लेउ दरोगा जी. म्हों सामने गारी दैरोए सबकू. घर में मुसटिया उपास करते झां सारो जबान चला रौए.” नन्नू् सिंह को लगा था जैसे उसका भरी सभा में अपमान हो गया है.

“होस में आयकै बातकर, नाय तो अबई सब जोस ठंडो कर दंगो.”

“तू उछर काय पै रइयो ऐ? मन में मत रख. निकर बाहर पैले जेई फैसला है जाय. ठीकै पिरधान जी, जाकी मानै दूध पियायो होयगौ वोई है लेगो उपपरिधान.”

वातावरण बहुत गर्म हो गया था. दरोगा जी को लगा कि यदि उन्होंने तुरंत कोई कदम न उठाया तो हाथापाई हो जाएगी. उन्होंने आंखें लाल-पीली करते हुए दोनों को धमकाया. फिर प्रधान जी को जल्दी चुनाव करा लेने की सलाह दी. ए.डी.ओ. साहब को उसी समय पता नहीं क्या सूझा कि एक फार्मूला उन्होंने भी सुझाया, “अच्छा ऐसा करो, तुम सब लोगों में जो ज्यादा पढ़ा लिखा हो उसी को चुन लो.”

यह सुनकर शमसुद्दीन के चेहरे पर एक चमक आई लेकिन वह चुप रहा. इस पर अपनी आपत्ति सबसे पहले नन्नूप सिंह ने व्यक्त की, “जे का बात भई? पढ़ी तो कोई जादा है सकै, पर गुनौ जादा होय तो कोई बात ऐ. जा गाम कू पठाइबे कू थोरई चुन रएऔ तुम उपपरिधान? झां तो मो जैसो आदमी चइए जाय थाना-कचैरी से रोज काम पत्त होय. जा जगे मैं दो मिंट में काम करा लात कांऊ बा जगे बड़े-बड़े पढ़े-लिखे सुसर टुकर-टुकर ताकतें. बड़े ते बड़े मुल्जिम की जमानत आनन-फानन में करादऊं.” कुछ अधिक ही जोर से कही गई थी ये बातें. इतनी ऊंची आवाज में कही गई बातों को सुनकर बाहर खड़े लोगों में हलचल बढ़ गई थी.

“भोत देर ते देख रोंऊ जे स्वांग. जाकी मैय्या ने दूध पिलाओ होए सौ ले जाए उपपरिधानी. एक आवाज पे सौ लठैत ठाड़े कर दंगो.” यह आवाज सुमेर सिंह की थी और पहले से भी तेज थी. मनसुख को लाठी की बात सुनकर ताव आ गया-“लठिया कबऊ पकरीऊ ऐ? जो जेई बातै तो हेई जाय तौ. एक पोत में ई खोपड़ी खील-खील न है जाय तो मनसुका नाम नाय. भिंचो कीरा कौम लठिया की बात कर रइऐ.”

“कीरा तू, सारे तेरौ बाप.”

“बाप तलक पीछे पोंचियो बेटा. पैले मोय समार.”

जब तक दरोगा जी या प्रधान जी संभालें, तब तक मनसुख और सुमेर सिंह एक-दूसरे से गुंध गए थे. बाहर खड़ी भीड़ अब अंदर आ जाना चाहती थी. दोनों को छुटाने की कोशिश में शमसुद्दीन का नाखून सुमेर सिंह की आंख के पास लग गया. युद्ध की दिशा जैसे बदल गई थी, “तू सारे जाको हिमाती ऐ का? तू बीच में मत परै. तोउऐ देखंगो बाद में. एक-एक कू देखि लंगो अकेलोई. मोयतो जीब चलाए भर की देर ऐ. हाथऊ न हिलानो परेगौ.”

दरोगा जी गालियों पर उतर आए थे. ए.डी.ओ. साहब धक्के मारते हुए मेम्बरों को बिठाने में लगे थे. प्रधान जी हाथ जोड़ते हुए मेम्बरों की ठोड़ियों में हाथ डाल डालकर शांत रहने की प्रार्थना कर रहे थे. मुश्किल से बाहर की भीड़ वहां से जा पाई, मेम्बर शांत हो पाए. माहौल एकदम बदल गया था. बेहद घबराई रामवती ने वहां से उठकर घर जाना चाहा, किंतु उसके बेटे ने झिड़क दिया. तब चुनाव कराने के अतिरिक्त और कोई रास्ता न पाकर प्रधान जी ने पांच नामों की घोषणा करते हुए मेम्बरों को गुप्त मतदान का तरीका समझाया.

वोटों की गिनती दरोगा जी और ए.डी.ओ. साहब कर रहे थे. प्रधान जी इस बीच माहौल को हल्का करने के लिए समझाते-बुझाते हंसी बिखेरने की कोशिश कर रहे थे. दरोगा जी का गुस्सा गिनती के बीच में कहे गए उनके कुछ खीझ भरे वाक्यों में प्रकट हो रहा था, “गंवार होते गंवार ही हैं. जरा सी देर में मरने-मारने पर उतारू. चुनाव भी है एक बवाल ही. देश आजाद क्या हुआ हर कोई अफलातून बनता है. इतने सालों बाद भी चुनाव की तमीज न सरकार को आई न जनता को. वैसे चुनाव लड़ते भी सिरफिरे गुंडे हैं. भला आदमी तो यहां एक मिनट भी न टिके. क्या नंग नाच नचा रहे हैं घंटों से. अभी से जरा सी बात बर्दाश्त नहीं. सिर फोड़ने को तैयार. आफत तो पुलिस की है. चले हैं गांव का उद्धार करने.” शायद और भी कुछ वे कहते पर रामचंद्र ने बात का रुख मोड़ दिया, “का खास बात हैगई साब? हमें उपपरिधान चुनबे बुलायोओ के काऊ गमी में? नैकाध गरमा गरमी के बिना चुनाव कौऊ का मजा? सिर तो नाय फूटे जा जगै. और फिर अबकै बड़े-बूढ़े जादा नाय चुने गए. नयौ खून जादा आयोए. थोड़ी भौत गरमी तो आऐगी ई.”

शमसुद्दीन ने रामचंद्र की बात को हंसते हुए आगे बढ़ाया, “ठीक तो कहते हैं लाला. चुनाव तो आखिर चुनाव है. एम. पी., एम.एल.ए. के चुनावों में लाशें बिछ जाती हैं. वो बड़े चुनाव होते हैं, तो झगड़े भी बड़े होते हैं. यह एक गांव का चुनाव है, छोटा चुनाव है. थोड़ा-बहुत तो चलेगा ही. और फिर साहब आप लोग तो जानते हैं. एम.एल.ए., एम.पी. चुनाव जीतने के लिए हजार तिकड़म करते हैं, लाखों खर्च करते हैं, ऊधम कराते हैं. यहां तो ऐसे ऐसे भी मेम्बर जीते हैं, जिन पर खर्च करने को एक रुपया भी नहीं था. उनकी जमानत भी किसी और ने जमा की है.

अरे, और कौन की कऊं. मैं खुद जीतौ. मेरो तो न एक पैसा खच्च भयौ, न मैं काऊ सारे के दरवज्जे पै नाक रिगड़वे गयौ. जा सारे ऐ गज्ज परी सो मोय बोट दे दई. बस एक दिना चौपार पे बैठि के कै दई के जा सारे की मौत घैरा रई होय सो मोय बोट ना देय. मैं भलौ, मेरो पैना, भैंसा और बुग्गी भले, कै भली मेरी लठिया.” मनसुख के इस कथन पर सब ठहाके लगाकर हंस पड़े थे. दरोगा जी भी अपनी हंसी को रोक नहीं पाए थे.

चुनाव परिणाम जानने की आतुरता कमरे के बाहर और भीतर बढ़ती ही जा रही थी. लोगों को अब विश्वास हो चला था कि जल्दी ही कोई नाम घोषित होगा और यह क्लेश कट जाएगा. कई बार मतों की ठीक गिनती करने के बाद ए.डी.ओ. साहब ने चुनाव परिणाम घोषित किया था- रामवती 5, रामचंद्र 1, सुमेर सिंह 2, नन्नूो सिंह 2, शमसुद्दीन 5.

चुनाव परिणाम घोषित होने पर अब एक नई मुश्किल सामने आ गई थी. अधिकारियों और प्रधान जी की खीझ अब मिनट-मिनट में व्यक्त हो रही थी. दो मेम्बरों द्वारा बराबर मत पाने के कारण फिर एक दुविधा सामने थी. हारे हुए मेम्बरों के पीले पड़े चेहरे जैसे इस नए संकट से भीतर-भीतर पुनः मतदान के प्रति आशावान थे. इस समस्या को निपटाने के लिए एक बार फिर प्रधान जी मेम्बरों से सुझाव मांग रहे थे. सुझाव देने में हारे मेम्बर अग्रिम थे और उनकी राय थी कि दोबारा फिर किसी दिन चुनाव करा लिया जाए. प्रधान जी, दरोगा जी व ए.डी.ओ. साहब इस फजीहत को अब और टालना नहीं चाहते थे. दरोगा जी ने आज ही निर्णय करा देने की जल्दी में एक तरकीब सुझाई, ‘जिन दो लोगों को बराबर मत मिले हैं उनकी लाटरी डालकर तय कर लिया जाए.’ रामवती को कुछ नहीं कहना था. वह चुप रही किंतु शमसुद्दीन को लगा कि वह कहीं इस तरह जीती बाजी हार न जाए. “यह तो कोई ठीक बात नहीं है दरोगा जी. यह कोई बच्चों का खेल तो है नहीं. या फिर हम कोई ज्वारी हैं? लाटरी तो सरकारी जुआ है. सरकार डाले लाटरी. हम तो ऐसे जुए को गांव में कभी न होने दें. अब तो यही हो कि मैं पंडिताइन से भीख मांग लूं. पंडिताइन को राजी कर लूं कि वे बैठ जाएं.”

“खूब सुनाई. तू कौन होते उनै राजी कन्नवारौ? वोट तैने दइए कै हमने? हमारी बिना राजी पंडिताइन कैसे बैठ सकें?”

“तो फिर तुम ही कोई तरकीब बताओ.”

“तरकीब-फरकीब तो हम जाने नाय. इतनो जरूर जाने कै तू का चाल पट्टी कन्नौ चाहै. सो तेरी चाहौ तौ होत नाय. अब तो उपपरिधान बनेगी तौ पंडिताइन नई तौ कोइ ना बने.”

बातों में फिर गर्मी और शब्दों में सांप्रदायिकता की गंध आती देख प्रधान जी व दरोगा जी ने पुनः डाट-डपट शुरू कर दी थी. बाहर खड़े लोगों को भी शायद स्थिति का आभास हो गया था. काफी देर से प्रतीक्षा करते वे थक भी गए थे. अंदर बैठे मेम्बरों की तरह अब वे भी दो गुटों में बंटकर नारेबाजी करने लगे थे. मेम्बरों में एक नया समीकरण बन रहा था. हारे हुए मेम्बर अब रामवती का पक्ष ले रहे थे. वे अपना न होना तो बर्दाश्त कर गए थे किंतु उन्हें लग रहा था कि वे शमसुद्दीन का जीतना सहन नहीं कर पाएंगे. सुलझ आई गुत्थी में और भी उलझनें पड़ती देख प्रधान जी, दरोगा जी और ए.डी.ओ. साहब ने थोड़ी देर अलग जाकर बातें करने के बाद मीटिंग खत्म होने की घोषणा यह कहकर कर दी थी कि या तो एक सप्ताह में कोई फैसला हो जाएगा या फिर दोबारा चुनाव करा दिया जाएगा.

मेम्बरों ने बोझिल कदमों से बाहर निकलकर यह जाना कि शाम हो गई है. बाहर खड़ी भीड़ को वे क्या बताएं, उन्हें नहीं पता था. उन पर सुनाने और भीड़ पर पूछने को इतना कुछ था कि शाम से रात और रात से दिन तक चलकर भी यह सब समाप्त नहीं होता. घरों को लौटते हुए मेम्बरों ने वफादारों और गद्दारों की लिस्ट को एक बार समर्थकों और शुभचिंतकों की सहायता से सही तरह तैयार कर लिया था. उस रात को समाप्त हो जाने वाला यह प्रकरण एक बार पुनः गति पकड़ता नजर आ रहा था. बाहर खड़े लोग फिर अलग-अलग गुट बनाकर मेम्बरों के साथ घरों को लौट रहे थे. कुछ लोगों ने प्रधान को रात के एक बजे रामवती के घर से निकलकर तेजी से जाते देखा था.

अगली सुबह ने सब कुछ बदल दिया. जो नहीं हो पाया था अब उसकी तैयारी रुक गई थी. उसका महत्व नहीं रहा था. गांव में अब एक अजीब डर, आश्चर्य और तेजी बिखर कर फैल गई थी. एक ही रात में इतना सब कुछ इससे पहले कभी नहीं हुआ था. लोग आ-जाकर देख रहे थे. घटनाओं को बुरा बता रहे थे. ऐसा करने वालों को गालियां भी दे रहे थे, पर किसी का नाम लेकर नहीं. ऐसा नहीं कि वे घटनाओं के साथ नामों को जोड़ नहीं सकते थे या जोड़ नहीं रहे थे. अपना मुंह कोई खोल नहीं रहा था.

दरोगा जी आज फिर आ गए थे किंतु अब की बार अकेले नहीं अपने साथ थाने से पंद्रह सिपाहियों को मय राइफलों के साथ लेकर आए थे. मेम्बर अब उनके पास नहीं फटक रहे थे. वे अपने घरों पर नहीं थे. वे या तो अस्पताल की तैयारी में थे या शमशान की, या फिर गांव छोड़कर भाग गए थे. तमाशबीन भी डरे-डरे घरों में घुसे थे. प्रधान जी दरोगा जी के साथ इधर से उधर चक्कर काट रहे थे. प्रधान जी की चुप्पी हैरान, बदहवास और मुखर बन गई थी. “उफ कैसा जमाना आ गया? एक ही रात में यह सब कैसे हो गया? अगर यह सब पहले पता होता तो….? इस गांव में पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ दरोगा जी. तीस साल की प्रधानी में ऐसी रात कभी नहीं आई. अब और क्या होगा दरोगा जी?”

दरोगा जी चलते-चलते एक क्षण रुके थे. चेहरे पर उतरी हुई खीझ को झटककर मुस्कराते हुए उत्तर दिया था, “होगा क्या? जो होगा उसे तुम भी देखोगे मैं भी देखूंगा. नया खून है. कुछ तो नया करेगा ही. आपके मेम्बर कल कह रहे थे न? अब बताओ, क्या कमी रह गई एम.पी.,एम.एल.ए. जैसे चुनाव में? पहले तो इन्हें ढूंढो. बाद में सोचेंगे अब और कुछ.”

कब, कैसे का उत्तर किसी के पास नहीं था. पर क्या हुआ इसकी लिस्ट बच्चे-बच्चे के पास थी-रामवती को किसी ने पैने गंडासे से मारना चाहा. वो तो खैर हुई कि जागकर दौड़ पड़ी और फेंका हुआ गंडासा उसके बाएं हाथ को जख्मी कर सका. नन्नू सिंह के घर पर रात को डकैतों ने उसकी व सोती हुई पत्नी की गर्दन उड़ा दी. माल को हाथ नहीं लगाया. सुमेर सिंह को रात को जंगल में लाठियों से इतना पीटा कि उसके सारे हाथ-पैर टूटे पड़े हैं. शमसुद्दीन को सुबह के टाइम किसी ने गोली मार दी. रामवती अपने जख्मी हाथ को थामे दर्द से बेचैन बार-बार एक ही बात कह रही थी, “मोय ना चाइयै जे नासपीटी कलट्टरी. अरे राम, मोय ना चइए जे कलट्टरी! पिरधान जी ते मैंने तो पैलेई मनै करी. पर बोई ना माने.”

(हंस! नवंबर 1986)

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