तमाशा मेरे आगे | प्रेमदास वल्द अर्जुनदेव बरी

‘प्रेमदास वल्द अर्जुनदेव बरी’. जितनी बार भी मैं अमृता प्रीतम के हौज़ ख़ास वाले घर के पास से निकला उतनी बार एक क़िस्से और कहानी की ये लाइन मुझे याद आईं – बार-बार, हर बार. पहली बार सन 77-78 में जब मैं उनसे मिला और अभी आख़िरी बार बस दो रोज़ पहले जब इधर से गुजरा तो रुक कर उनके घर की और इस मीनार की तस्वीर ले ली.

नहीं मालूम कि उस मुक़द्दस घर में जाने अब कौन रहता है, इसलिए उसे छापा नहीं जा सकता. ये मीनार चोर मीनार कहलाती है जो अमृता जी के घर से कुल 300 मीटर पर है. अमृता जी तो अब नहीं हैं पर अलाउद्दीन खिलजी की बनवाई ये 700 साल पुरानी मीनार वहीं खड़ी है, शायद सिर्फ़ अमृता प्रीतम की याद दिलाने को, खिलजी को लोग भूल चुके हैं. अमृता जी तो इस मीनार के पास से हज़ारों बार गुज़री होंगी सोचता हूँ उन्होंने इस मीनार पर कोई कहानी क्यूँ नहीं लिखी.

13वीं सदी में बनी ये मीनार इस जगह से थोड़ी दूर बसी “सिरी दिल्ली” की मंगोल बस्ती के बाशिंदों को क़त्ल किए जाने की दास्तां बताती है. माना जाता है मंगोल लोग खिलजी की दिल्ली में अक्सर चोरी-चकारी और लूट-पाट करते थे. रोज़-रोज़ की दहशत से तंग आ कर अलाउद्दीन के सिपाहियों ने करीब 8000 मंगोलों का सिर काटकर उन्हें नुकीले बांस में बांधकर शहर के इस हिस्से में टांग दिया. महरौली से दो मील दूर यह इलाक़ा उन दिनों जंगल था. कुछ सालों बाद यहाँ पक्की मीनार बना दी गई जिसे देख कर ही चोर लोग दहल जाते थे. वैसे भी तब तक बचे-खुचे मंगोल यहाँ से बहुत दूर अपनी नई बस्ती “मंगोलपुरी” बना चुके थे. ये बात रही होगी सन 1305 और 1310 के बीच की. ये मीनार कभी पूरी रही होगी पर अब ऊपर से टूटी चुकी है और करीब 25 फुट ऊंची है, चबूतरे के भीतर से इसके ऊपर तक जाने का रास्ता भी है. इसमें 225 छेद हैं, कहा जाता है इनमें ही लंबे कील और बांस बांध कर सर लटकाए जाते थे और बाक़ी बचे सिरों को चबूतरे पर रख सजा दिया जाता था. इस मीनार से कुल 300 मीटर पूरब में एक सूफ़ी संत की मज़ार और मदरसा भी है, जो 14वीं सदी में ईरान से दिल्ली आए थे. उस मज़ार, मस्जिद और मदरसे के बारे में फिर कभी.

वापस प्रेमदास पर – जिसका असल नाम प्रेम गोरखी था. जैसे होता आया है, उसे एक लड़की से इश्क़ था जिसके बाप ने जालिम पुलिस से मिल कर उसे झूठे मुक़दमे में फंसा दिया. मुक़दमा पूरा होने से पहले तक प्रेम गोरखी बहुत साल जेल में सड़ता रहा. जेल के अंदर से उसने एक कहानी लिख कर अमृता जी को ‘नागमणी’ रिसाले में छापने के लिए भेजी. हिन्दी कहानियों का रिसाला नागमणी, इमरोज़ और अमृता मिलकर चलाते थे. प्रेम गोरखी ने कहानी के साथ अपने इश्क़ और जेल की दर्द भरी कहानी भी अमृता जी को लिख भेजी. प्रेम गोरखी की लिखी कहानी तो रिसाले में नहीं छपी, हाँ अमृता जी ने उसे दिलासे देते हुए प्यार भर ख़त ज़रूर लिख दिया. प्रेम गोरखी के लिए वो ख़त ही बाक़ी ज़िंदगी काटने का सहारा बन गया. मुक़दमे के फ़ैसले से पहले प्रेम गोरखी ने वो ख़त जज साहब को पढ़ के सुनाया और दुहाई देते हुए ख़त को उनके सामने कर दिया. जज ने प्रेम गोरखी की लिखी कहानी और अमृता प्रीतम का लिखा और दस्तख़त किया वो खत दोनों पढ़े और प्रेम का हाथ चूमा – फ़ैसला – ‘प्रेमदास वल्द अर्जुनदेव बरी’.”

ज़ुल्म की मीनारें चाहे कितनी ऊंची क्यूँ न हों – इश्क़ की कहानियाँ उनसे कहीं लंबी होती हैं .


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