कविता | हमारे शहर का मौसम

      पहले धूप
      फिर बारिश,
      अब धूप लौट आई—अपने घर-आँगन.

      बूंदों के खिलौने
      कैसे खिड़की पर खेल रहे थे.

      लहराता बारिश के आँचल-सा झोंका,
      जेठ की बारिश और सोंधी महक,
      खिड़की के बाईपास से मुझ को चूम रहे थे.

      समोसे-पकौड़ी जन्म ले रहे थे,
      चटनी पॉलीथिन की जगह दोने में आती — तो क्या बात होती.

      रात भर झींगुर मल्हार गाते रहे,
      उफनती नदी की तरह
      चाय उबल रही थी टपरी में.

      कोई-कोई टपकती बरसाती छोड़ चला गया था
      अलखनाथ की शरण में—
      ऐसे में शिव बड़े काम आते हैं.

      अपने को समझता हुआ —
      अभी एक माह है असाढ़ में —
      तब तक छत न टपके.

      मरम्मत करनी है छत की,
      फिर मन कहता:
      यह तो गुमान करने की बौछार है.

      2.

      बचपना
      उफनती नदी की जगह
      उफनते नाले से दो–चार में बीता.

      सुभाष नगर की रेल पुलिया पर
      कितना ही मैला पानी क्यों न हो,
      उसी पुलिया को कभी हमने वापस जा
      निराश नहीं किया.

      मैला-कचैला पानी
      घुटनों को चूम उतर जाता.
      पुलिया कोसी जाती —
      पर उससे कोई दुराव नहीं था.

      3.

      किसके आँगन पानी नहीं भरा?
      छप-छप नहीं हुई?
      किसकी छत नहीं सीली?
      बूंदें नहीं दिखीं दीवार पर?

      “बाबा, यह पानी
      इतनी मोटी छत से कैसे आ जाता?”

      पानी और ख़ुशबू अगर हैं—
      तो रिसते-रिसते पहुँच जाते हैं
      जिन तक उन्हें पहुँचना है.

      बड़े होगे—
      तो उन तक तुम भी पहुँच जाओगे
      जिन तक तुम्हें पहुँचना है—
      अगर तुम ख़ुशबू और पानी की मानिंद होगे.

      4.

      बदली में छुपे ईश्वर ने
      जेठ की तपती धरती को कॉल किया—
      झमाझम बरसा.
      वरना मिस्ड कॉल मार कर तड़पाता है.

      अब फिर बिसर गए बादल—
      और उसमें छुपा ईश्वर.

      उन्हें हमारी जब याद आएगी —
      तब आएगी.

      तब तक
      फ़्रिज पानी की बोतलों से भर लेते हैं.
      जो नहीं भरेगा—
      उसे पानी नहीं मिलेगा.

      कोई बोतल को मुँह लगाकर नहीं पिएगा—
      वरना पानी नहीं बरसेगा.


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