सारा मलिक की डायरी | राशन कार्ड

  • 10:59 am
  • 12 May 2020

उर्मिला अपना  सामान  बांध रही थी.  उसे गांव जाना है. होली के हफ़्ते भर बाद ही उसने कुछ दिन की छुट्टी ले रखी है.  उर्मिला आसपास के घरों में काम करती है और उसी कमाई से वह अपना घर चलाती है और अपने तीन बच्चों के लिए एक बेहतर कल  के सपने बुनती है.

एक दिन वह मुझसे बोली,  “दीदी  कहां अच्छा लगता है, दूसरों के घर  जाकर काम करना, उनके जूठे बर्तन साफ करना.”

“मेरी बच्चियां कल को मेरी तरह न रह जाएं इसलिए उनको पढ़ाना चाहती हूं. गांव से शहर इसीलिए आई  कि मेरी बच्चियां कुछ पढ़-लिख जाएं और उनकी ज़िंदगी मुझसे कुछ बेहतर हो जाए.”

उर्मिला की उम्र कोई  38-40 साल होगी, देखने में ठीक लगती है, रंग  सांवला सा, इकहरा बदन, ख़ुद को थोड़ा साफ़ रखती भी है, अक्सर देखती हूं कि कपड़े साफ़ ही पहनती है. ज़िंदगी की ऐसी जद्दोजहद में भी, उसकी आंखें  ख़ुशगवार सी हैं, चलने के ढंग में  फुर्ती और हौसला जो उसके सपनों को उड़ान देता है.

वह अपनी ज़िंदगी की जंग लड़ रही है चुनौतियों को झेलते हुए.

अजीब नहीं लगता होगा दूसरों के जूठे बर्तन साफ करना और लोगों के ताने सुनना – यह कोई टाइम है तुम्हारे आने का! इस वक्त आई हो? अब मैं तुम्हारा क्या करूं,जाओ मैंने ख़ुद अपना काम निपटा लिया है.  फिर भी वह  डटी रहती है. ज़िल्लत बर्दाश्त करते हुए,  मुस्कुराते हुए, “आज ग़लती हो गई, कल से टाइम पर आऊंगी.”

हम आपस में बात करते वक्त यही कहते हैं कि इन लोगों का तो यही है, रोज़ नए बहाने, रोज़ इनके यहां कोई बीमार हो जाता है , कोई मर जाता है , यह इनका रोज़ का नाटक है. कभी हम यह नहीं सोच पाते  कि इनकी भी तकलीफ़ें हो सकती हैं. इनको समाज से कभी इज़्ज़तदार इंसान  होने का हक़ मिलता है या मौक़े बे  मौक़े ये सिर्फ़ वोट ही होते हैं!  हमारे लिए तो ये सिर्फ़ नौकर होते हैं जो हमें टाइम पर चाहिए, क्योंकि हम उनको पैसे देते हैं.

ख़ैर, वह गांव जा रही है.  इस बार उसे गांव में थोड़ा सा काम कराना है.  छोटा सा ज़मीन का एक टुकड़ा है, जिस पर पुराने टाइम की दो कोठरियां बनी हुई हैं. उसे चहारदीवारी खिंचवानी है. उसके पति रामखेलावन ने कुछ पैसों का इंतज़ाम कर लिया  है. रामखेलावन शहर में मिस्त्री के साथ  हेल्पर का काम करता है. कभी-कभी उसका काम लग जाता है, कभी-कभी वह ख़ाली भी रहता है. असल में उर्मिला की कमाई से ही घर चलता है.

उसकी दो बेटियां हैं – बड़ी बेटी गौरी, 12-13  साल  की.  पड़ोस में कमलेश भाभी के यहां बच्चे की देखभाल के लिए जाती है.  तंदुरुस्त और लंबी मां की तरह,  रंग साफ़, आंखें गोल-गोल.

कमलेश भाभी की शहर में मशीनरी पार्ट्स की बड़ी सी दुकान है. उर्मिला उनके यहां काम करती है और कमलेश भाभी से जो मदद हो सकती है, कर देती हैं. उर्मिला के काफी रिश्तेदार अब भी झुग्गियों में रहते है,  लेकिन उर्मिला का रहन-सहन कमलेश भाभी की वजह से कुछ बदल गया है. वह उनके बच्चों के लिए बहुत दुआएं करती है.

अपनी बेटियों को कुछ दिन के लिए अपनी  ननद  के घर में छोड़ रही हूं. उसकी बेटी के साथ मेरी बच्चियां  सेफ़ हैं. मुझे गांव जाने में और काम कराने में 15- 20 दिन लग जाएंगे, लेकिन मुझे कोई फ़िक्र नहीं है. उर्मिला  ने बताया –  कल सुबह ही चले जाएंगे हम.
लेकिन कुछ दिन बाद अचानक से आई यह महामारी. छूत की इस बीमारी वजह से जनता कर्फ़्यू और फिर लॉक डाउन!  उर्मिला गांव में परेशान हो गई! इधर बच्चियां भी बहुत हैरान-परेशान हो गईं. मां से दूर अकेले में वे घबरा रही थीं. अब ये बच्चियां भला क्या करतीं? स्कूल भी बंद था, पेपर कैंसिल हो चुके थे.

बच्चे यहाँ अब क्या करेंगे? बीमारी की दहशत अलग से.
पता चला कि सब्ज़ी लाने के लिए एक गाड़ी उनके गांव जाएगी तो उनकी बुआ ने  उस गाड़ी वाले से पहचान निकालकर बच्चियों को गांव भेजने का इंतज़ाम कर दिया. वे लोग थोड़ा बहुत सामान लेकर उससे गांव चले गए.

इस बीमारी के फैलने के डर से हालात बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हो गए. यह शहर अब वह पुराना शहर नहीं मालूम दे रहा था. लोग दरवाज़ा खोलने से डर रहे थे. सब तरफ बन्द और चारो तरफ फैला हुआ सन्नाटा. न गाड़ी-मोटर की आवाज़, न ही कोई शोरगुल.

“अरे तुम आ गई ?” उस रोज़ उर्मिला को अचानक सामने देखकर मैंने पूछा.
उसे लगा था कि मैं शायद उससे बात नहीं करूंगी. तो मैंने पास जाकर उससे पूछा – कैसी हो और बच्चे कैसे हैं?
“हां दीदी, मैं आ गई. दीदी यहां तो सब लोग डरे हुए हैं, बोल रहे हैं कोरोना वायरस फैला है. कोई काम नहीं लेना चाहता. अब तक बच्चे गांव में बहुत परेशान हो रहे थे. और वैसे भी वहां खाने को कुछ था नहीं, इसलिए हम लोग वापस आ गए.”

मैंने उसे भरोसा दिलाया, “कोई बात नहीं. सरकार ग़रीबों को राशन बांट रही है. सुना है कि राशन किट दे रहे हैं, जिसमें खाने-पीने का सामान होगा.  लोगों की मदद हो रही है. वहां छोटे स्कूल के पास  कोटेदार राशन बांट रहे हैं ऐसा सुनने में आया है. तुम वहां चली जाओ. तुम्हारा कुछ काम बन जाएगा. और अगर काम न बने तो मुझे बताना. देखती हूं कि मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूँ.”
“दीदी आप मेरी मदद कर दें. बहुत-बहुत मेहरबानी होगी. मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं. मुझे तो कुछ मालूम भी नहीं है. बस इतना पता है कि मैं बहुत परेशान हूं और कुछ समझ में नहीं आ रहा.”
मैंने उसको तसल्ली देते हुए कहा, कोई बात नहीं तुम परेशान न हो. मैं तुम्हारे साथ चल दूंगी. पहले तुम पता करके आओ.

थोड़ी देर बाद वह लौटी और बताया कि उन लोगों ने कहा कि कुछ नहीं हो पाएगा क्योंकि तुम्हारे पास राशन कार्ड तो है नहीं, सिर्फ आधार से कुछ नहीं होगा, जाओ यहां से. पूछ रहे थे कि वोटर कार्ड है? बिजली का बिल? किसको वोट देती हो? वोट शहर में देती हो कि गांव में? राशन किसी पार्टी के लोग बांट रहे थे.
मैंने कहा, “देखती हूं. कल मैं बात करती हूं. “तब ठीक है,” कहकर उर्मिला चली गई.
मैंने मुख्यमंत्री हेल्पलाइन पर फ़ोन लगाया. उधर से जवाब मिला, “जहां पर राशन मिलता होगा, आपके इलाक़े में, वहां पर जाकर पता करिए. और रही बात पैकेट या किट की, तो वह तो नहीं है.”

यहां जब मोहल्ले में पता किया तो लोगों ने बताया कि पार्टी के लोग बैठे हैं और वे राशन बांट चुके हैं. उर्मिला परेशान हो उठी.
हम लोग राशन की दुकान पर गए. कोटेदार ने पूछा – राशन कार्ड है?
“नहीं, लेकिन हमें बताया गया है कि आधार कार्ड पर भी मिल सकता है. ऐसा सरकार का आदेश है.”
वह बोला कि राशन तो पहले हफ्ते में ही बंट गया. पहले राशन कार्ड बनवाना होगा तब कहीं अगले महीने से राशन मिल सकता है.
हमने पूछा, कैसे बनेगा? उसने बताया – आधार कार्ड, गैस की किताब और  बैंक खाते की पासबुक, फ़ोटो,  बत्ती का बिल यह सब चाहिए होगा. और साथ में डेढ़ सौ रुपए.

अभी तक वह अपने आपको काम में काफी मशगूल दिखा रहा था लेकिन अब उसने अपना ध्यान हमारी तरफ किया. बड़े गौर से देखा. फिर जाने क्या हुआ कि उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ गई.
“दोनों को बनवाना है?”
“नहीं,” मैंने कहा, “सिर्फ इनका.”
उसकी मुस्कुराहट मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगी. और उसका इस तरह बात करना भी बेहद नाग़वार गुज़र रहा था.
अब उसने थोड़ा बदले हुए लहजे में कहा कि काग़ज़  के साथ भेज दीजिएगा इनको. टेंपरेरी कार्ड बन जाएगा. मैं इनके लिए कोशिश कर दूंगा. अगर यह चाहेंगी. अगले महीने से राशन मिलने लगेगा.
मैंने कोटेदार से पूछा – अगले महीने से राशन मिलने लगेगा. क्या राशन फ्री में मिलेगा?
नहीं, 3 रुपये किलो गेहूँ और 3 रुपये किलो चावल. लेकिन वह भी अगले महीने से ही मिल पाएगा.

उर्मिला को कुछ तो तसल्ली हुई. इस महीने न सही अगले महीने से सही. कुछ तो मिलेगा.
एक आसरा सा है कि शायद अगले महीने से राशन मिल जाए. उसने मुझसे पूछा, “यह आधार कार्ड क्या किसी काम का नहीं है?  मेरे जैसे जाने कितने लोग हैं, जिनके पास राशन कार्ड नहीं है, तो क्या वे भूखे मर जाए? गांव में भी बहुत बुरे हालात है. बाहर से बहुत सारे लोग लौट-लौट के गांव आ रहे हैं पर गांव में बहुत कुछ है नहीं. कितने दिन तक गांव उनको संभाल पाएगा? हमारा कोई अधिकार नहीं है इन शहरों में. क्या हम यहां के लोग नहीं? क्या यह शहर हमारा नहीं? मेरे पति ने यहां जाने कितनी बिल्डिंग बनाईं.क्या हमारा कुछ भी नहीं है? इतना भी नहीं कि मुश्किल वक़्त में हमें दो जून खाने को मिल सके?”

उसके इस एकालाप का, उसके सवालों का मुझे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. सवाल एकदम वाजिब और जायज थे. सरकार या यह समाज ही ऐसे लोगों को क्या दे पा रहा है, यह सोच कर मैं परेशान हो गई. उसके सवालों पर कोई सरकारी योजना बनी है क्या? बनी तो अमल क्यों नहीं होता या ‘आंखों की चमक’ योजना और हक़ निगल जाती है? बड़ा सवाल है, मौजूदा सवाल है, पर जवाब??
क्या ज़रूरत है, याद रखने की, क्या फ़र्क पड़ता है? वोट फिर मिल जाएंगे. यह पूरा समाज बहुत बेफिक्रा है. मैं यह सोच रही हूं कि जाने कितनी मुश्किलों में हैं लोग. कितनी बेबस है ये औरतें, बदहाली में बच्चे. औरत का वजूद, उसकी अस्मत, उसकी जद्दोजहद और उसकी पूरी ज़िंदगी के तमाम मसलों में आज का सबसे अहम मसला. और जीने के लिए किसी शर्त सा ज़रूरी यह राशन कार्ड.

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