ट्रेडमिल | मेरी कहानी और आपकी कहानी में फर्क ही क्या

  • 1:24 am
  • 31 August 2025

बरेली का विंडरमेयर थिएटर हमारे रंग परिदृश्य की एक उपलब्धि है. विंडरमेयर के रंग विनायक समूह की तरफ से संदीप शिखर का नाटक ‘ट्रेडमिल’ शनिवार शाम जीवंत हुआ, आकार लिया. निर्देशन दानिश खान ने किया. नाटक का अंतिम संवाद है ‘मेरी कहानी और आपकी कहानी में फर्क ही क्या है?’ इस संवाद और इसके पहले नाटक के बहुतेरे संवाद और दृश्य दर्शकों के एकांत का स्पर्श करते हैं. एक तरह से जिंदगी को रिविजिट करने जैसा, सब कुछ अचानक दस्तक दे देता है. एक तरह से अनिच्छुक स्मृतियां (involuntary memories) घेर लेती हैं. यहां जीवन सरलतम रूप में मौजूद है जो अपने रहस्य और भी आसानी से खोलकर रख देता है और रोजमर्रा की जिंदगी का एक एंटीथीसिस पाठ प्रस्तुत करता है. नाटककार संदीप शिखर ट्रेडमिल में जीवन के सत्य को मंचीय सत्य में रूपांतरित करने वाले दृश्य और संवाद रचे हैं जो इस नाटक को काव्यात्मक ऊंचाई देते हैं.

इस नाटक प्रयोग को किन नाट्य दृष्टियों या अंतर्दृष्टियों के लिए याद रखना चाहिए? इसके अनेक कारण इस प्रयोग में ही निहित हैं. आलेख की संरचनागत निरंतरता को दानिश खान अर्जित करने के साथ निर्वाह करते हैं. एक अलग शिल्प में लिखे गए इस नाटक की आंतरिक लयात्मकता का निर्वहन आसान नहीं है. प्रतिभा संपन्न अभिनेता अजय चौहान, लवीना खानचंदानी, सादिक खान, सुदेश सैनी का चरित्र का कलात्मक रचाव और सुंदर स्वाभाविक अभिव्यक्ति हो या मोहसिन खान, भूपेंद्र कुमार, उत्कर्ष प्रजापति, अनुज वर्मा जैसे प्रतिभाशाली अभिनेताओं की प्रभावशाली उपस्थिति या उज्जवल कुमार की प्रकाश परिकल्पना, अनुष्का का प्रोजेक्शन, अभिनव लकी का ध्वनि प्रभाव आदि सब तो आलेख को दर्शकों के मन पर खूबी से टांकने के लिए है ही. ‘ट्रेडमिल’ की नाटकीय चेतना बोध (dramatic consciousness) और प्रभाव के कुछ और भी कारण हो सकते हैं.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 1
“माफ कीजियेगा… वो क्या है कि मैं दौड़ रहा था…यहीं बगल में…पिछले एक घंटे से. आप सोच रहे होंगे कि मैं पिछले एक घंटे से दौड़ रहा हूँ तो यहाँ कैसे हूँ? आपके सामने? एक घंटे में तो मुझे कहीं और पहुँच जाना चाहिए था…(एक ही जगह पर खड़े होकर दौड़ता है और इशारा करता है) ट्रेडमिल”

अभिनेता ट्रेडमिल पर खड़ा होकर दौड़ रहा है और कह रहा है कि “मैं पिछले एक घंटे से दौड़ रहा हूँ, पर यहीं हूँ”. यह दृश्य तुरंत हमारे समय का रूपक बन जाता है, यहाँ दौड़ महज़ शरीर की गति नहीं बल्कि उस आधुनिक विडंबना की तस्वीर है जिसमें हम सब जी रहे हैं, हम भागते रहते हैं, पसीना बहाते रहते हैं, लेकिन पहुँच कहीं नहीं पाते; यह ट्रेडमिल सिंड्रोम असल में उपभोक्तावादी समाज का यथार्थ है, जहाँ निरंतर श्रम और ऊर्जा खर्च करने के बावजूद जीवन में प्रगति नहीं, सिर्फ़ ठहराव है. यही अनुभव राजनीतिक स्तर पर भी है जहाँ व्यवस्था हमें विकास और अवसरों का भ्रम देती है लेकिन जनता वहीं की वहीं रह जाती है और सांस्कृतिक स्तर पर यह शहरी जीवनशैली का नया सौंदर्य है. फिटनेस मशीनों पर दौड़ता शरीर और भीतर स्थिर, थका हुआ मन. यहां गति और प्रगति समानार्थी नहीं हैं और नाटक हमें इस विसंगति का आइना थमा देता है.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 2

    “नल भी ढंग से बंद नहीं होता
    उससे टपकता रहता है बूँद-बूँद
    पानी कपड़े धोने का साबुन धीरे-धीरे
    गलता रहता है अपने आधार से
    नहाने का साबुन,शैम्पू,वाशिंग पाउडर
    सबकी खुशबू मिलकर एक दुर्गंध फँलाती है
    पूरे बाथरूम में
    बस एक हाथ का फांसला है खिड़की तक का
    फासला खत्म नहीं कर सकता
    मेरे पास टाइम नहीं है
    अख्खा दिन भागा भागी रहता है
    जितना साफ़ करो
    धूल भारती ही जाती है कमरों में
    पांव के निशान पड़ जाते हैं उस पर
    वही निशान जगह-जगह दिखाई पड़ते हैं
    पूरे घर में
    बस एक और सफाई की ज़रूरत होती है
    उस निशान को मिटाने के लिए
    बात कल पर टाल दी जाती है
    धूल की दूसरी परत उस पर जम जाती है
    निशान दब जाते हैं,मिट जाते हैं
    मेरे पास टाइम नहीं है
    अख्खा दिन भागा भागी रहता है
    किचन में चाय की पत्ती और शक्कर का डब्बा
    पूरा भरा रहता है
    इतना की उस डब्बे का चम्मच उसमे नहीं समा पाता
    ठूंसने की कोशिश करता हूँ, वो टेढ़ा हो जाता है
    निकाल कर फेंक देता हूँ डस्टबिन में
    डस्टबिन को निकाल कर नहीं फँक पाता
    मेरे पास टाइम नहीं है
    अख्खा दिन भागा-भागी रहता है”

यहां घरेलू यथार्थ नहीं बल्कि आधुनिक जीवन की त्रासदी है, जहाँ समय का अभाव हमें सबसे साधारण कामों से भी वंचित कर देता है. हर अधूरा काम, हर टला हुआ निर्णय, हर दबा हुआ निशान, असल में उस समाज का आईना है जो हमें प्रोडक्टिविटी की दौड़ में तो झोंकता है लेकिन बुनियादी सुकून और देखभाल की ज़मीन छीन लेता है. यह दृश्य हमें बताता है कि धूल और टपकता पानी सिर्फ़ घर की समस्या नहीं हैं, ये हमारे अस्तित्व की धूल और रिसाव हैं, समाज और संस्कृति की वह दरार जो रोज़मर्रा में छिपकर हमें खोखला करती रहती है. राजनीतिक अर्थ में यह नागरिक के उस जीवन को दर्शाता है जो व्यवस्था की सफ़ाई के इंतज़ार में बार-बार टलता रहता है. अनंत सफ़ाई और अधूरेपन का चक्र आधुनिक मनुष्य की नियति बन गया है, और मंच यह अनुभव कराता है कि हमारी असली थकान धूल से नहीं, बल्कि उसे मिटाने के लिए कभी टाइम न होने से पैदा होती है.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 3
“ऐसा नहीं है की उस शहर से प्यार करने के लिए मैंने पल्ल्वी से प्यार किया था. उस दौड़ते भागते शहर में, जहाँ मैं बिलकुल अपने आप को फिट नहीं कर पाता था, मुझे अच्छा लगने लगा…पल्लेवी की वजह से…शहर दिनभर दौड़ता भागता रहता था और हम गुमसुम, चुपचाप, खामोशी से एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर अपना सफ़र तय किया करते थे. उसकी आँखें बहुत खूबसूरत हैं. इतना बोलती हैं कि पूरे शहर की आवाज़ उसमे दब जाती है. एक दिन मैंने उस से कहा…तुम्हें पता है तुम्हारी आँखें बहुत खूबसूरत हैं. उसने कहा, मुझे पता है. सभी कहते हैं. वो एकटक मुझे देखे जा रही थी. मैं उसकी आँखों को सह नहीं पा रहा था. मैंने अपनी आँखें बंद कर ली. जब आँख खोली…हमारी शादी हो चुकी थी.”

लगता है कि हम किसी प्रेमकथा के रोमांस में नहीं बल्कि उस गहरे विरोधाभास में खड़े हैं जहाँ भागती-दौड़ती नगरीय संस्कृति के बीच दो लोग अपनी खामोशी से एक निजी ठिकाना गढ़ते हैं. यह प्यार शहर से नहीं बल्कि शहर के बीच पल्लकवी से है और पल्लसवी की आँखें पूरे शहरी शोर का प्रतिरोध हैं, जिनमें डूबकर नायक को राहत मिलती है लेकिन इसी राहत में एक विडंबना भी छिपी है, उसकी आँखें इतनी शक्तिशाली हैं कि वह नायक उनसे बचने के लिए आँखें बंद कर लेता है, और आँख खोलते ही पाता है कि जीवन बदल चुका है, वह विवाह की सामाजिक व्यवस्था में बंध चुका है. प्रेम आधुनिक शहर में प्रतिरोध और समर्पण दोनों है, वह हमें दौड़ते शोर से बचाता है लेकिन साथ ही हमें व्यवस्था की उस ठोस दीवार में भी पहुँचा देता है जहाँ निजी अनुभव सामाजिक रूप में रूपांतरित हो जाता है.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 4

    “मैं जब भी शर्ट पहनता हूँ
    उसका एक बटन तोड़ देता हूँ
    ताकि वो उसे टांक सके
    बिना मेरे शर्ट उतारे
    एक निश्चित दूरी के साथ
    करीब होने का सुख
    बहुत अच्छा लगता है
    जैसे छांव में
    अपनी परछाई के साथ रहना
    मैं और वो
    कदम दर कदम…सफ़र दर सफ़र”

प्रेम यहाँ बड़े-बड़े इज़हारों में नहीं बल्कि छोटे-छोटे बहानों में साँस लेता है. शर्ट का टूटा हुआ बटन असल में निकटता का वह नाटक है जिसे नायक बार-बार रचता है, ताकि सिलाई की आड़ में दूरी को पिघलाकर स्पर्श और सान्निध्य पा सके. प्रेम की असली ताक़त उसी साधारण, घरेलू क्षण में छिपी है जहाँ रोज़मर्रा की क्रिया भी आत्मीयता का काव्य बन जाती है. सामाजिक स्तर पर यह दर्शाता है कि रिश्तों की स्थिरता भव्यता से नहीं बल्कि इन सूक्ष्म और अनकहे इशारों से बनती है, और प्रेम कोई सार्वजनिक तमाशा नहीं बल्कि निजी, शांत और लगभग गुप्त संवाद है. प्रेम अपने छोटे-छोटे अनुष्ठानों में ही जीवित और स्थायी रहता है, जैसे टूटा बटन जोड़ना, वैसे ही हर रोज़मर्रा की दरार रिश्ते को और गहराई से सी देती है.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 5
“शहर की रफ़्तार और भी तेज हो गयी है. हम आज भी एक दूसरे से उतना ही प्यार करते हैं बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा. हम आज भी गुमसुम चुपचाप, ख़ामोशी से एक दूसरे की आँखों में आँखें डाले सफ़र तय किया करते हैं लेकिन मेरे अंदर हमेशा एक डर बना रहता है, कहीं शहर आगे न निकल जाए और हम पीछे न छूट जाएं…”

प्रेम यहाँ शहर की रफ़्तार से जूझता हुआ एक निजी प्रतिरोध है. दो लोग अब भी उतनी ही गहराई से प्रेम करते हैं, उनकी चुप्पी और आँखों का संवाद अब भी अडिग है, पर उस प्रेम के चारों ओर शहर की तेज़ रफ़्तार एक अदृश्य ख़तरे की तरह मंडरा रही है. प्रेम केवल भावनात्मक अनुभव नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक चुनौती भी है, जहाँ तेज़ी, प्रतिस्पर्धा और उपलब्धियों से भरा शहरी जीवन प्रेम को हाशिए पर धकेलने की ताक़त रखता है. राजनीतिक रूप से यह उस व्यवस्था की आलोचना है जो मनुष्य के निजी रिश्तों को भी समय की कमी और उत्पादकता की दौड़ से बाँध देती है. प्रेम स्थायित्व का आश्रय है, पर आधुनिकता की गति उसे असुरक्षा में बदल देती है और हमें याद दिलाता है कि असली संघर्ष शहर से आगे निकलने का नहीं, बल्कि प्रेम को उस रफ़्तार में खोने से बचाने का है.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 6
“भईये सारे रंग डाल दिये हैं. पता नहीं आगे चलकर किस रंग के झंडे के साथ मिलना पड़े और वैसे भी भईये आगे चलकर सारे झंडे तो एक ही रंग के हो जाते हैं.

…फिर भी भाई साहब आपको बैंड पार्टी और राजनीतिक पार्टी में कोई फर्क नहीं लगता?

… आपको की फ़र्क लगता है?”

राजनीति का असली रंग कोई स्थायी रंग नहीं बल्कि एक ऐसी मिलावट है, जहाँ हर झंडा अंततः एक ही जैसा दिखने लगता है. यहाँ व्यंग्य तीखा है. बैंड पार्टी और पॉलिटिकल पार्टी का फर्क मिटा दिया गया है, मानो दोनों ही केवल शोर, दिखावा और किराए के तमाशे हों, जिनमें असल धुन की जगह शोर और असल सिद्धांत की जगह अवसरवाद बजता रहता है. राजनीति अब एक उत्सव-उद्योग में बदल चुकी है, जहाँ विचारधारा भी इवेंट का हिस्सा हो गई है, और सामाजिक स्तर पर जनता केवल तमाशबीन बनकर रह जाती है.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 7

    “जब तक अवकाश है तब तक है
    अवकाश खत्म होगा चल देंगे
    हमारे हाथ में थमा दिया जाता है
    गैस का गुब्बारा
    ज़ोर से पकड़े रहते हैं उसे
    इस डर से
    कि कहीं हथेली ढीली न पड़ जाये
    और गुब्बारा उड़ न जाए
    गैस धीरे धीरे खत्म हो जाती है
    गुब्बारा हमारी हथेली में ही गुम हो जाता है
    क्यूंकि
    जब तक अवकाश है तब तक है
    अवकाश खत्म होगा चल देंगे
    नैतिकता पर पहरा लगा है
    अनाचार दूकान लगाये बैठा है
    शॉपिंग मॉल में बजते हैं देशभक्ति के गीत
    हमारा ध्यान एक के साथ एक मुफ़्त पर टिका है
    हर वस्तु पर छूट है दस प्रतिशत बीस पचास प्रतिशत
    इसी छूट की पनाह में होता है कत्ल ए आम
    मारे जाते हैं मंजुनाथ और चंद्रशेखर
    मगर हम क्या करें
    जब तक अवकाश है तब तक है
    अवकाश खत्म होगा चल देंगे
    15 अगस्त अवकाश है
    26 जनवरी अवकाश है
    इस तारीख को अवकाश है
    उस तारीख को अवकाश है
    अवकाश को तारीखों में बांटना
    सुविधाजनक तो है मगर
    तारीखों का अवकाश में बदलते जाना
    सिर्फ अपराध ही नहीं
    घोर अपराध है
    देख रहा हूँ सब
    आँखों के आगे
    घटता रहे
    जब तक अवकाश है तब तक है
    अवकाश खत्म होगा चल देंगे”

मंच पर यह दृश्य जैसे ही उभरता है, भीतर एक गहरी बेचैनी घर कर लेती है. अवकाश यहाँ महज़ छुट्टी नहीं, बल्कि हमारी नैतिक नींद का प्रतीक है, जिसमें हम झंडे, गीत और सेल-ऑफर के बीच अपने समय को भरते हैं, और जैसे ही अवकाश खत्म होता है, हम फिर उसी मशीन की तरह लौट जाते हैं. गुब्बारे की तरह हाथ में थमा हुआ अवकाश धीरे-धीरे रिस कर खत्म हो जाता है और हमें पता भी नहीं चलता कि हमारे भीतर क्या उड़ चुका है. इस दृश्य का तीखा व्यंग्य यह है कि आज़ादी और लोकतंत्र को हमने तारीख़ों में बाँट दिया है, जैसे राष्ट्र सिर्फ़ छुट्टी की सुविधा भर हो. सामाजिक स्तर पर यह हमारी सामूहिक उदासीनता है, राजनीतिक स्तर पर यह सत्ता की सोची-समझी रणनीति है और यह उपभोक्तावादी समाज का प्रतिबिंब है जहाँ देशभक्ति भी शॉपिंग मॉल की धुन में बदल जाती है. जब तक नागरिकता अवकाश की तरह भोगी जाएगी, तब तक राष्ट्र सिर्फ़ एक ‘इवेंट’ रह जाएगा, ज़िम्मेदारी नहीं.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 8

    “शर्ट का एक बटन
    मैंने संभाल कर रखा है
    जो तोड़ा नहीं गया है
    टूट गया है
    मुझे इंतज़ार है
    जब वो कहे कि आओ इसे टांक दूं
    बिना शर्ट उतारे
    उस टूटे हुए बटन से
    कुछ जुड़ने कि उम्मीद बंधी है
    जैसे टूटे हुए तारे से
    सपनों की उम्मीद
    मैं और वो
    कदम दर कदम,
    सफ़र दर सफ़र”

टूटा हुआ बटन प्रेम का रूपक बन जाता है. कमी ही निकटता का सबसे सुंदर बहाना है. नायक उस बटन को संजोकर रखता है क्योंकि उसमें सिर्फ़ धागे नहीं, जुड़ने की आस बंधी है, जैसे टूटे तारे से सपना माँगा जाता है। यहाँ प्रेम किसी भव्य घोषणा में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की छोटी मरम्मतों में धड़कता है। प्रेम की स्थायित्व शक्ति उसकी अपूर्णता में है—हर टूटा हुआ बटन, हर दरार, दो आत्माओं को और गहराई से सी देता है.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 9

    “उसे पता है कि उसे कितना दौड़ना है
    कहां से शुरू करना है
    अंत का वो सोचती नहीं है
    माँ भी दौड़ती है
    अपने अंदर बने दायरे में
    माँ बच्चों को सुनाती है लोरी
    उसमे आते हैं चंदा मामा
    जो कभी दौड़ते नहीं
    फिसलते रहते हैं
    बर्फ से बने बादलों की सतह पर
    परियां भी आती हैं माँ की लोरी में
    वो भी कभी नहीं दौड़ती
    पंख लगाकर बस उड़ती रहती हैं
    अनंत आकाश में
    पर माँ दौड़ती है
    अपने अंदर बने दायरे में
    माँ चाहती है
    बच्चा बर्फ से बने बादलों की सतह पर फिसले
    चंदा मामा की तरह
    पंख लगा कर परियों की तरह उड़े
    अनंत आकाश में
    उसे पता है
    माँ के लिए बड़ा होना भी
    बच्चा होना ही है
    वो नहीं चाहती बच्चा दौड़े
    क्यूंकि
    माँ भी दौड़ती है
    अपने अंदर बने दायरे में
    गोल-गोल,गोल-गोल”

यह दृश्य देखते ही माँ का दौड़ना एक साधारण क्रिया नहीं, बल्कि स्त्री जीवन का गहरा रूपक बनकर सामने आता है. वह दौड़ती है, लेकिन अपने ही बनाए दायरे में, गोल-गोल घूमती हुई, मानो उसकी नियति ही अनंत परिक्रमा हो. माँ अपने संघर्ष, अपने दायरे, अपनी अनंत दौड़ को छुपाकर बच्चे को सपनों की आज़ादी देती है. सामाजिक स्तर पर यह स्त्री-जीवन की उस कैद को उजागर करता है जो ज़िम्मेदारियों के गोल घेरे में बंधा है. माँ अपनी सीमाओं के दायरे में दौड़ती है ताकि बच्चा अपनी संभावनाओं के अनंत आकाश में उड़ सके.

Aesthetic Perspective/ कलात्मक दृष्टि: 10

पैंट की सिलाई करने वाले मास्टर साहब की स्मृति में

वह तारीख़ों को लांघते हुए कैलेंडर से भिड़ने को तैयार है. यहाँ स्मृति एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक रूपक है. यह वही क्षण है जब जीवित स्मृति (living memory) किसी सामूहिक स्मृति (collective memory) का हिस्सा बन जाती है. स्मृति सिर्फ़ अतीत का संग्रह नहीं, बल्कि वर्तमान की गति को मापने वाला पैमाना है. मास्टर साहब का “झूठ” अब सच्चाई बन चुका है, क्योंकि वही झूठ नायक को दौड़ने की और भी बड़ी ज़िद देता है.


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