बरेली में जब रिक्शे में बैठकर घूमे उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां

सम्मान, ख़िताब या लोकप्रियता का कोई आयाम शायद ही बचा हो जो उस्ताद की झोली में गिरा न हो. उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां जब 90 बरस के हुए तो न्यूयॉर्क में एक भव्य समारोह आयोजित करके उनको सम्मानित किया गया था. 1992 में तेहरान में एक प्रेक्षागृह का नाम ही उनके नाम पर रख दिया गया. भारत सरकार की ओर से उस्तादों को दिए जाने वाले तीनों सर्वोच्च सम्मान पदमश्री, पद्मभूषण और पद्मविभूषण भी उनके लिए काफ़ा नहीं रहे. क्योंकि आज से बीस साल पहले ही वह यह सब कुछ हासिल कर चुके हैं.

उम्र के इस पड़ाव में उनकी खुशियां किसी ख़िताब या सम्मान में नहीं, बेहद मामूली समझी जाने वाली चीज़ों में झलकती हैं. बरेली में उन्होंने अपना जो वक़्त गुज़ारा वह इस शख़्सियत का एक अलग चेहरा लेकर सामने आता है. ऐसा चेहरा जो इबादत में लगे किसी फ़कीर का है. अपने पल-पल बदलते मिज़ाज से लोगों को सकते में डालने वाले बिस्मिल्लाह ख़ां ने इस शहर में एक ही ख़्वाहिश ज़ाहिर की – रिक्शे पर बैठने की. उनकी उसी दिनचर्या के कुछ अंश जो उनका अलग व्यक्तित्व दर्शाते हैं.

बरेली में उस्ताद की एक सुबह

आईवीआरआई का इंटरनेशनल गेस्ट हाऊस सन्नाटे में डूबा हुआ है.

यहीँ कमरा नंबर दो में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां ठहरे हुए हैं. सुबह क़रीब दस बजे का वक़्त है. अपने बिस्तर पर बैठे उस्ताद ने अपने पुराने दिनों की चर्चा छेड़ रखी है.

चर्चा है पुराने दौर की. वह कहते हैं, ‘लोग वही हैं, चीज़ें वही हैं. मगर वह ज़ायक़ा नहीं रह गया. उस वक़्त खाने-पीने की चीज़ों का जो स्वाद हुआ करता था, वह भी आज नहीं है.’ बचपन के दिनों को याद करते हुए उनकी आँखें चमक उठती हैं. ‘मां जो बासी तरकारी रात में रखती थीं, वह सुबह खाने पर न सिर्फ़ स्वाद देती थी, बल्कि यह भी लगता था कि शरीर को लग यहा है. आंख की रोशनी इस कदर तेज़ थी कि दूर बैठी मां सुई में धागा नहीं डाल पाती थीं तो मैं बोल पड़ता था. नीचे नहीं ऊपर धागा डालो.’ अपने शहर बनारस की ख़ूबियों को भी वह इसी बीच गिनाने लगते हैं, ‘बनारस की ख़ूबी यह है कि वहां रियाज़ करने का समय मिलता है. गंगा के घाट पर सुबह का सूरज निकल रहा होता है, और गीत के बोल होते हैं ‘एक तू ही निरंकार. रचो सब संसार.. यह क्या है? यह संगीत ही नहीं. यह सीधे ख़ुदा की इबादत है.’

संगीत की चर्चा करते हुए कहते हैं कि संगीत सीखा तो हजारों लोगों ने, मगर फैयाज़ हुसैन ख़ां, अब्दुल करीम ख़ां और ग़ुलाम हुसैन ख़ां जैसे लोग तो दो-चार ही हुए. उस्ताद अब नमाज़ के लिए उठने वाले हैं. उन्होंने कहा, ‘संगीत कभी ख़त्म नहीं होता. यह जो आवाज़ आप सुनते हैं. यह किसने बनाई? हमने आपने नहीं बनाई.. इसे मालिक ने बनाया है.’

ख़ानक़ाहे नियाज़िया और बीते ज़माने की यादें

ख़ानक़ाहे नियाज़िया में उस्ताद क़रीब तीस 30 बरस बाद पहुंचे. बीते ज़माने की तमाम बातें याद आईं. उन्होंने कहा, ‘ जब मैं छोटा था तो मामू साथ लाया करते थे. उन्होंने मुझे जो कुछ सिखाया था. मैं यहां उसे याद करके बजाया भी करता था.’ सज्जादानशीन हज़रत शाह मोहम्मद हसनैन ख़ासतौर पर उस्ताद से मिले और कुछ देर तक बातें भी कीं.
मुश्तरी बेग़म भी उस्ताद से मिलने आईं. उन्होंने ख़्वाहिश ज़ाहिर की, उनके साथ संगत की. बिस्मिल्लाह ख़ां ने कहा कि वह वक़्त ज़रूर आएगा. जब साथ में जुगलबंदी हो सके. अपने गायन में व्यापक विविधता रखने वाली मुश्तरी बेग़म, जो किसी ज़माने में दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो की पहली श्रेणी की कलाकार थीं, अब ज़िंदगी के आख़िरी समय में ख़ानक़ाहे नियाज़िया आ गईं.

ख़्वाहिश रिक्शे पर बैठने की

उस्ताद ने अपना काफ़ी वक़्त ख़ानक़ाहे नियाज़िया में गुज़ारा. वहाँ वह बेहद ख़ुश नज़र आ रहे थे. उन्होंने इच्छा ज़ाहिर कि वह यहां से मुख्य सड़क तक रिक्शे से जाएं. उन्होंने यह भी कहा कि आगे कभी जब वह आएंगे तो रिक्शे से ही यहाँ तक आएंगे. उनके लिए रिक्शा बुलाया गया. उनके बैठने के बाद रिक्शा आगे चल दिया. पीछे आने वाले साथियों के इंतज़ार में रिक्शा एक पेड़ के नीचे साये में रुक गया. उधर से स्कूटर से गुज़र रहे एक शख़्स ने उन्हें पहचाना और अपने पीछे बैठे आदमी को बताने लगा. रिक्शा जब ख़्वाज़ा कुतुब की तंग गलियों से गुज़रा तो आसपास से गुज़र रहे लोगों और दुकान पर बैठे लोगों ने उन्हें पहचान लिया. कुछ लोग रिक्शे के पीछे-पीछे चलने लगे. एक शख़्स ने अपनी डायरी और क़लम बढ़ा दी, उनके ऑटोग्राफ़ के लिए मगर उन्होंने हंसकर मना करते हुए कहा कि रिक्शे बैठकर पर ऑटोग्राफ़ नहीं दूंगा.

धूप तेज़ है. उस्ताद की आँखों पर सीधे पड़ रही है. मगर वह इत्मिनान से रिक्शे पर बैठे अपने आसपास देख रहे हैं. गली में भीड़ इस क़दर है कि काफ़ी देर सड़क पर ट्रैफ़िक रुका रहता है. आज़ाद भारत की पहली सुबह जिस शख़्स ने लाल क़िले से पूरे भारत को अपनी शहनाई की गूंज दी थी, उसके चेहरे पर ऐसी बेफ़िक़्री थी जिसे देखकर उनकी कही बात ही याद आती है, ‘संगीत कभी ख़त्म नहीं होता.’
बस सुनने वाले बदलते रहते हैं.

फ़ोटो | बरेली की ख़ानक़ाहे नियाज़िया में मुश्वरी बेग़म से बतियाते उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां.
फ़ोटो क्रेडिट | prabhatphotos.com

(डेटलाइन | बरेली | 31 मई, 2000)


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