शानी की कहानी | युद्ध

  • 12:34 pm
  • 16 May 2020

पाकिस्तान से युद्ध के दिन थे. हवा भारी थी. लोग डरे हुए और सचमुच नीमसंजीदा. आकाश झुककर छोटा सा हो गया था. – रंगहीन मटमैला तथा डरावना. क्षणों की लंबाई कई गुना बढ़ गई थी. आतंक, असुरक्षा और बेचैनी से लदा दिन वक्त से पहले निकलता और शाम के बहुत पहले यकबयक डूब जाता था. फिर शाम होते ही रात गहरी हो जाती थी और लोग अपने घरों में पास-पास बैठकर भी घंटों चुप लगाए रहते थे.

‘सुना! वसीम रिज़वी से चार्ज ले लिया गया है.’ दफ़्तर पहुँचते ही शंकर दत्त को एक दिन इसी तरह हतप्रभ रह जाना पड़ा था.

‘यानी? क्या वह नौकरी से…’

‘नहीं, नौकरी पर तो है. रिज़वी से वह काम छीन लिया गया है, जो बरसों से करता आ रहा था. डाइरेक्टर ने कहा है कि हालात को देखते हुए ऐसा बड़ा काम रिज़वी पर छोड़ना ठीक नहीं. सारे देश का मामला है…’

‘क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा!’ शंकरदत्त को हँसी आ गई थी. एक तो निहायत बेमानी और सड़ा महकमा और उस पर वह दो कौड़ी का काम, जो रिज़वी करता आ रहा था. अगर विभाग के प्रमुख होने के नाते डाइरेक्टर भी चाहता, तो कुछ नहीं कर सकता था, फिर रिज़वी तो एक मामूली कर्मचारी था.

दफ़्तर में मुसलमानों की संख्या कुल मिलाकर चार थी और उस पर भी नोटिस लिए जाने वाले तीन थे. युद्ध छिड़ते ही शहर के मुसलमानों में जो आतंक और भय था, उसका आभास दफ़्तरों में पा लेना सबसे आसान था. दो-एक दिन हर क्षण यह लगता रहता था कि अब कोई दंगा छिड़ा, अब कोई फ़साद हुआ. दरअसल, आम मुसलमान झाड़ियों में दुबके ख़रगोश की तरह अजीब सकते के आलम में डरा हुआ और चौकस हो गया था. लोग दरवाज़े-खिड़कियाँ बंद करके धीमी आवाज में रेडियो पाकिस्तान की न्यूज़ सुनते और जब भी दो या चार आपस में मिलते, ख़रगोश के अंदाज में बातें करते.

इसी बीच एक घटना हुई. सकते के दौरान ही एक रात शहर के संभ्रांत मुसलमानों की एक आम सभा हुई और दूसरे दिन शहर के बीचोंबीच एक इमारत पर हिन्दी का एक बहुत बड़ा बोर्ड लटका हुआ था – राष्ट्रीय मुस्लिम संघ.

शहर के नामी-गिरामी आदमी हामिदअली, जो दो बार हज करके लौटे थे, इसके प्रेसीडेंट चुने गए थे. हामिद अली के हस्ताक्षरों से मुसलमानों के नाम राष्ट्रीयता की शपथ दिलाने वाली कई बड़ी-बड़ी अपीलें निकाली गई थीं और इन अपीलों को प्रेस तथा अख़बारों तक पहुँचाने का काम कुरैशी ने ही किया था.

‘क्यों दोस्तो, लाहौर और कितना रह गया?’

युद्ध के बीच के दिनों में लगातार दो दिनों तक जैसे इसी प्रश्न से दफ़्तर खुलने लगा था. टैंकों का नाश हो या आदमियों का, बड़ी अजीब-अजीब और उत्साहवर्धक अफ़वाहें फैलीं हुई थीं. इनमें सबसे बड़ी अफ़वाह यह थी कि पाकिस्तानी फ़ौज को गाजर-मूली की तरह काटती अपनी फ़ौज लगातार आगे बढ़ती जा रही है और लाहौर पर अब बस कब्जा हुआ ही चाहता है.

‘क्यों साहब, बहादुरों की किसी फ़ौज को दस-बारह मील का फासला तय करने में कितना वक्त लगता है?’

उस दिन यह सवाल सबसे पहले कुरैशी ने ही किया था. दफ़्तर अभी-अभी खुला था. रिज़वी भी आ चुका था और रोज की तरह चुपचाप बैठा वह कोई अख़बार पलट रहा था. कुरैशी ने यह सवाल हालाँकि पूरे दफ़्तर से किया था, लेकिन पहले उसने रिज़वी की ओर छिछलती और मानीख़ेज़ नज़रों से देख लिया था.

‘दस घंटे भी लग सकते हैं, दस दिन भी और दस साल भी…’

‘अमाँ, दस मिनट कहिए, दस मिनट!’ दफ़्तर में अपनी कायरता के लिए प्रसिद्ध एक साहब ने ऐसे जोश में कहा, जैसे वह क्लर्क नहीं, फ़ौज के कप्तान हों.

‘यार, लाहौर आ जाए? बगल की मेज़ से आवाज आई, ‘हम तो वहीं चलकर बसने की सोच रहे हैं. सुना है कि शहर साला बेहद ख़ूबसूरत है.’

‘हाँ, है तो, लेकिन वहाँ करोगे क्या?’

‘क्यों, कुछ भी किया जा सकता है – अख़बार है, प्रेस है. क्यों सर, वहाँ चलकर हिन्दी का प्रेस डाल लूँ, कैसा रहेगा?’

‘मैं तो भाई होटल खोलूँगा.’ एक दूसरे साहब ने पुलकित स्वर में कहा, ‘पानी बेचो और पैसा सूँतो! साली होटल में बड़ी आमदनी है. और कुछ नहीं, तो इस ग़ुलामी से तो पिंड छूटे…’

‘कल मैं तेरह रुपए पंद्रह पैसे का मनीआर्डर करने जा रहा हूँ.’ सहसा दफ़्तर के बीचोंबीच और रिज़वी के सामने घोषणा हुई, ‘किसके नाम जानते हो?’ प्रेसीडेंट अय्यूब के नाम! बेचारा बड़ा ग़रीब आदमी है. पारटीशन होते ही हमारे तेरह रुपए पंद्रह आने लेकर भाग गया था. यकीन न हो तो छिंदवाड़ा मिलिटरी कैंटीन का पुराना खाता देख लो…’

उसी समय रिज़वी, जो अब तक सारी बातों को अनसुनी करता मेज़ पर गरदन झुकाए बैठा था, सहसा उठा और बिना किसी को देखे हुए चुपचाप गेट से बाहर निकल गया. एक क्षण को तो सब चुप हो गए थे, लेकिन दूसरे ही क्षण कुरैशी ने सबकी ओर देखकर आँख मारी थी और लोगों ने एक-दूसरे को कोहनियों से ठेला था.

‘देख लिया दत्ती जी,’ किसी ने सीधे शंकरदत्त पर हमला किया, ‘ये अचानक क्या हो गया? क्या मिर्च लग गई?’

शंकरदत्त हमलावर का मुँह ताकत ही रह गए थे. कि कुरैशी ने तपाक से कहा ‘अजी, दत्तजी बेचारे क्या कहेंगे! अभी परसों जब मैं राष्ट्रीय मुस्लिम संघ की अपील लेकर गया था, तो हजरत कहने लगे, काहे की अपील और क्यों?’ पट्ठे ने दस्तख़त करने से साफ मना कर दिया. कहने लगा, मैं क्या बेईमान हूँ, जो ईमानदारी का सबूत पेश करता फिरूँ…?’

‘बत्ती बुझाओ… बत्ती बुझाओ…!

दूर से अभी स्वयंसेवकों की आवाज़ें आ रही थी – किसी सूनी पहाड़ी से टकराकर लौटी और मुँह चिढ़ाती-सी. बाहर अँधेरा और हैबतनाक खमोशी, जैसे समूचे शहर को किसी ने ठंडे और अँधेरे गार में उतार दिया हो. रह-रहकर लड़ाकू हवाई जहाजों की आवाज़ सहसा आकाश के किसी कोने में जनमती, फिर वह शैतानी ज़बान की तरह लपलपाती हुई मानो प्रत्येक घर की छत-मुँडेरों को चाटती हुई कहीं दूर निकल जाती. फिर वही हैबतनाक ख़ामोश और बेपनाह धड़कता हुआ अँधेरा, जिसमें देर तक यूँ लगता रहता था, जैसे वह आवाज़ गई नहीं, अपनी छत पर रुकी हुई है.

‘अब तो शहरों पर भी बम गिराए जा रहे हैं – सिविलियन्स पर!’ शंकरदत्त ने साँस भरकर कहा, जैसे अपने आप से बात कर रहे हों. फिर रिज़वी की ओर देखने लगे. वह दोनों घुटने उठाए गुड़ी-मुड़ी-सा बैठा था. कमरे में एक मरियल मोमबत्ती की हलकी सी रोशनी थी, जिसे खिड़की-दरवाज़े बंद करके, या परदों को खींचकर रोका गया था. रोशनदान तक के शीशों पर कागज चिपकाककर उन्हें अंधा किया गया था.

‘तुमने आज का अख़बार देखा?’ शंकरदत्त को अपनी ही आवाज़ कहीं दूर से आती हुई सुनाई दी, ‘सिविलियन्स अस्पताल पर बमबारी और बेगुनाह मरीज़ों के बीमार जिस्मों के परखच्चे उड़ जाना… हरे राम, क्या इस क्रूरता के लिए हमें ईश्वर कभी क्षमा कर सकता है?’ मुझे तो लगता है…’

उसी समट मोमबत्ती की लौ काँपकर टेढ़ी हो गई थी. लगा था कमरे के नीम उजाले फर्श को पलटती हुई अँधेरे की कोई लहर आई हो. रिज़वी ने घुटने पर से सिर उठाया. उसके होंठ भी खुले लेकिन वह बोला नहीं. उसने केवल सिर हिला दिया. उठकर शंकरदत्त पास गए और मनाने वाले स्वर में अपनेपन से बोल, ‘अमाँ, भूलो भी उसे!’

‘किसे?’

‘वही सब…?’

‘किसे भूलूँ, दत्तजी?’

‘क्या वही सब दुहराकर मैं फिर से तुम्हारा मन ख़राब करूँ?’ शंकरदत्त ने अत्यंत स्नेहपूर्वक रिज़वी के कंधे पर हाथ रख दिया, वसीम, मैं बराबर यही कहता रहूँगा कि नाइन्साफ़ियों को लेकर मातम करना आज ऐसा ही है जैसे आदमी की मौत पर सिर पटकना. क्या तुम समझते हो कि अपनी बच्चों जैस़ि जिद से लड़कर तुम ऐसी दुनिया से जीत जाओगे, जो युद्ध से कहीं ज्यादा क्रूर है…?’

‘बत्ती बुझाओ…!’ दूसरे ब्लॉक में से आवाज़ आई थी, लेकिन लगा, जैसे वे फिर क्वार्टर के सामने आ गए हों. शंकरदत्त ने उठकर परदों को एहतियातन और ठीक कर दिया.

ज़रा सी बात का हंगामा हो गया था.

पिछले कई दिनों से शहर में ब्लैक आउट चल रहा था. शहर कैंटोनमेंट एरिया में नहीं आता था, तो भी ख़तरा बना हुआ था. चाहे नागरिकता के फ़र्ज़ के नाते हो, या प्राणों के डर से, लोग बेहद चौकस और समझदार हो गए थे. ब्लैक आउट बनाए रखने के लिए हर मोहल्ले में स्वयंसेवकों के जत्थे तैयार थे.

रोज़ की तरह आवाज़ लगाते हुए आज भी स्वयंसेवकों के जत्थे आए थे, लेकिन एक जत्था इस ब्लॉक में पहुँचकर आगे नहीं बढ़ा – ऐन रिज़वी के क्वार्टर के सामने आकर रुक गया था. शायद किसी खिड़की का परदा जरा सा सरक गया था और रोशनी की शहतीर क्वार्टर से कूदकर सामने की सड़क पर पड़ रही थी.

‘बत्ती बुझाओ! किसी ने डपटकर आवाज़ लगाई थी. रिज़वी घर पर मौजूद था. उसने झाँककर भी देखा था, लेकिन कोई असर लिए बिना वह चुपचाप बैठा पढ़ता रहा.

‘क्यों साब, बहरे हैं?’ दो नौजवानों ने आगे बढ़कर पूरी ताक़त से कुंडी खटखटाई.

‘क्या बात है?’ कुछ क्रोध और कुछ कैफयत तलफ करने के अंदाज़ में रिज़वी बाहर निकल आया और बात शायद यहीं से बिगड़ गई थी. ‘अपना फ़र्ज़ मैं खूब समझता हूँ, बत्ती बुझी हुई है.’ आख़िर में रिज़वी ने कहा था.

‘अगर बत्ती बुझी हुई है, तो यह रोशनी कहाँ से आ रही है?’ किसी ने जलकर प्रहार किया, ‘क्या मेरी ससुराल से?’

‘वह मोमबत्ती है. मैंने पढ़ने के लिए जलाई है.’

‘क्या मोमबत्ती में रोशनी नहीं होती?’

‘उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. मैं परदे ठीक किए देता हूँ.’

‘फ़र्क पड़ता हो या नहीं, आप बत्ती बुझाइए!’ कहकर एक उत्साही युवक तीर की तरह दरवाज़े की ओर बढ़ा और जिसे अधबीच में बाँह अड़ाकर रिज़वी ने रोक लिया था.

‘वह बत्ती नहीं बुझेगी!’

‘बुझेगी!’

‘नहीं बुझेगी!’

‘बुझेगी!’

‘जद बेकार है,’ रिज़वी ने कहा था, ‘पहले सामने वाले क्वार्टर्स की मोमबत्तियाँ बुझाइए!’

‘उनकी उन पर छोड़िए! हम आपसे बात कर रहे हैं!’

‘क्यों छोड़ दूँ? क्या उन पर हीरे-मोती जड़े हैं!’

एक क्षण को यह युवक नवयुवक हतप्रभ सा देखता रहा, फिर सहसा वह शेर की तरह यों गरजा कि सारी कॉलोनी गूँज उठी, ‘यह बत्ती जरूर बुझेगी!’

सन्न, सकता पल-भर का, जिसे तोड़ते हुए अँधेरे में से एक आवाज़ आई, ‘मार डालो जासूस को!’

‘जासूस! जासूस!’

कई लमहों तक रिज़वी काँपता खड़ा रहा, फिर एकाएक अँधेरे में वह उस ओर लपका, जिधर से आवाज़ आई थी.

देर हो चुकी थी, जब तक शंकरदत्त वहाँ पहुँचे और बीच-बचाव किया, काफी देर हो चुकी थी.

‘भाईजान!’ कोई दस मिनट बाद जब वे दोनों भीतर आकर संयत हुए तो इस रूँधी आवाज में शंकरदत्त चौंके थे. भीतरी दरवाज़े की चौखट में यह बेगम रिज़वी की आवाज थी, गले में फँसी-फँसी और अवरुद्ध.

‘भाईजान, हम पर एक अहसान कीजिए. इनसे कहिए कि मुझे और बच्चों को जरा ज़हर देकर सुला दें, फिर चाहे ये दुनिया से जूझते फिरें… हम… हम… हमारा ख़ुदा है…’

आगे उनका स्वर यकबयक उमड़ने वाली रुलाई में फँसकर डूब गया था और शंकरदत्त को लगा था कि सहसा उनके टेंटुए के आसपास काँटे-से उग आए हैं. उन्होंने दरवाज़े की ओर देखा, जहाँ बेगम रिज़वी के दुपट्टे का पल्लू झाँक रहा था, पर कुछ बोल नहीं पाए. रिज़वी के दोनों बच्चे अप्पू और सबा परदे से लगे हुए और भयभीत खड़े थे. ख़ासकर अप्पू जैसी ख़ामोश, कातर और डरी हुई आँखों से अपने पिता की ओर देख रहा था, उससे शंकरदत्त सहम कर रह गए. यकबयक ख़याल आया था कि वे भी हिन्दू हैं. इतने बरसों में इस घर में पहली बार… फिर जैसे यह भी पहली बार ध्यान आया कि रिज़वी अब भी उस हुलिए में बैठा हुआ है, ‘फटी हुई कमीज़, नुचे हुए बिखरे बाल, और निचले होंठ पर चोट का लहू-जमा निशान…’

‘अप्पू बेटे!’ सहमती हुई आवाज में शंकरदत्त ने धीरे से पुकारा, ‘बेटे, अपने अंकल के पास आओ!’

अप्पू नहीं आया. एक बार उन्हीं आँखों से घूरकर वह परदे से और सट गया.

‘पापा के लिए दूसरे कपड़े ले आओ, बेटे!’ उन्होंने हतप्रभ होते हुए कहा था.

थोड़ी देर में कपड़े आए. लेकर अप्पू ही आया था, लेकिन कपड़े रखकर बिना किसी से कुछ कहे वह लौट गया था. शंकरदत्त हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ना चाहता था, लेकिन वह मछली की तरह हाथ से फिसलता चला गया था. बहुत हल्के शंकरदत्त को कहीं चोट भी लगी, लेकिन उन्होंने फीकी हँसी हँसकर धीरे से कहा था, ‘अप्पू हमसे नाराज है!’

पता नहीं रिज़वी ने उनकी बात सुनी थी या नहीं, स्वयं शंकरदत्त उसे देखते हुए भी नहीं देख रहे थे.

क्या अप्पू सचमुच नाराज़ नहीं है? क्या लोग ठीक कहते हैं कि बच्चों की आँख में अच्छे या बुरे को सहसा भाँप जाने की शक्ति होती है? लेकिन इतने बरसों में वे यकबयक बुरे कैसे हो गए और क्यों? और क्यों? कहीं ऐसा नहीं है कि उन्हें लेकर घर पर इधर कोई बात हुई हो और बच्चे ने चुपचाप उसका असर ले लिया हो? एक बार यह भी मन में आया था, लेकिन अभी कल तक?

युद्ध का ग्यारहवाँ दिन चल रहा था. यही ब्लैक आउट और अँधेरा! लेकिन कल भी वे ऐसे ही लुढ़क आए थे, जैसे ढलान की ओर राह खोजता जल… कोई अगर संतानहीन शंकरदत्त से यह पूछता कि अक्सर शामें इस घर में गुज़ारने के पीछे सचमुच कौन है? रिज़वी या अप्पू, तो क्या वह जवाब दे सकते थे? और सचमुच कौन है! रिज़वी की बरसों पुरानी दोस्ती या अप्पू की दहलीज़ पर से ही गले लिपट जाने वाली वह किलकारी, ‘अपने अंकल आ गए… अपने अंकल आ गए…!’

कमरे में आग से फूटने वाले काँपते उजाले की तरह ज़रा-सी रोशनी और बहुत-सा अँधेरा था. रह-रहकर तेज हवाई जहाजों का उसी तरह ऐन छत पर ठहर जाना… बाहर शहर का शहर कब्र के पत्थर की तरह ठंडा और खामोश था.

‘अपने अंकल!’ रोज़ की तरह अप्पू कल भी आ गया था, लेकिन आदत के मुताबिक न तो उसने शंकरदत्त के गले में अपनी छोटी-छोटी बाँहों का गजरा डाला था और न…

‘अपने अंकल, आपको पता है, यह लड़ाई कब बंद होगी?

शंकरदत्त बेतरह चौंक गए थे, ‘क्यों बेटे?’

‘बताइए, कब बंद होगी?’

‘लेकिन क्यों?’

‘अम्मी पूछ रही हैं. कहती हैं, अंकल से पूछकर आओ.’

शंकरदत्त ने भीतरी परदे की ओर देखा. कहीं बेग़म रिज़वी तो नहीं खड़ी हैं? नहीं थीं. लेकिन सवाल अकेले अंकल से क्यों, पापा से क्यों नहीं? एक पल को उन्हें लगा था, जैसे वह कटघरे की ओर धकेले जा रहे हों. उसके छोटे से बदन को समेटते हुए उन्होंने धीरे से कहा, ‘पता नहीं बेटे!’

अप्पू कुछ और कहता कि दूर कहीं उसी आवाज़ ने जन्म लिया. फिर कुछ ही पलों में वह आवाज सारे आकाश और सन्नाटे को रौंदती इतनी निष्ठुर और ख़तरनाक होकर पास आने लगी कि अप्पू ने कहा था, ‘अंकल, आपको डर नहीं लगता?’

‘लगता है, बेटे!’

‘आपको भी?’

‘हाँ, हमें भी.’

‘यह जहाज लड़ाकू था न अंकल?’

शंकरदत्त ने सिर हिला दिया.

‘यह बम गिराने जा रहा है?’

‘अप्पू, अब अंदर चलो! बीच में रिज़वी ने टोक दिया.’

‘लड़ाई में लड़ता कौन है, अंकल?’

‘सैनिक लड़ते हैं, बेटे.’

‘सैनिक कैसे होते हैं?’

‘जो फ़ौज में होते हैं, वे सैनिक कहलाते हैं.’

‘अच्छा समझ गए. जैसे हमारे पाकिस्तान वाले मम्मा सैनिक हैं… है न?’

‘हाँ, बेटे, वे भी लड़ रहे होंगे.’

‘बंदूक से?’

‘हाँ, बंदूकों से, हथगोलों से, टैंकों से.’

‘इन्हें फ़ौज में भेजता कौन है अंकल?’

‘देश भेजता है बेटे.’

‘देश? देश कौन है?’

‘बेटे… देश…’ शंकरदत्त को एक पल सोचना पड़ा था, ‘देश वो है जिसमें लोग रहते हैं, जैसे हम-तुम – हमीं देश हैं, बेटे!’

‘लेकिन अंकल आप तो कह रहे थे कि आपको लड़ाई से डर लगता है. फिर इन्हें क्यों भेजा?’

‘अप्पू!’

रिज़वी ने इस बार डाँटने के स्वर में पुकारा था. अप्पू ने एक लम्हे को अपने पापा की ओर देखा था, फिर उनकी ओर मुड़कर बोला, ‘अच्छा अंकल, एक बात और – सैनिक डरते नहीं हैं?’

‘किससे?’

‘लड़ाई में, गोली-वोली से. उनके लगती नहीं है?’

‘लगती है.’

‘सच्ची-मुच्ची की?’

‘हाँ.’

‘फिर वे मर जाते हैं?’

‘मर जाते हैं.’

‘सच्ची-मुच्ची?’

‘हाँ बेटे, सच्ची-मुच्ची.’

अप्पू की छोटी सी पेशानी में बल पड़ा था और उसके छोटे-छोटे होंठ आश्चर्य और चिंता से खुल गए थे. एक पल उन्हें अजीब सी आँखों से घूरने के बाद सहसा पूछा था, ‘तो अंकल, उन्हें पुलिस क्यों नहीं पकड़ती?’

क्या शंकरदत्त उस सवाल का जवाब दे सकते हैं? अगर रिज़वी ने इस दफ़ा और भी सख्ती से डाँटकर अप्पू को ख़ामोश कर दिया होता, तो वह क्या कहते?

‘बहुत तंग करता है!’ अप्पू के चले जाने के बाद रिज़वी ने धीरे से कहा.

‘हाँ, सचमुच तंग करता है!’ साँस भरकर शंकरदत्त बोले थे, ‘वसीम, तुम्हें उस दिन की याद है – उस दिन की, जब अप्पू ने तुमसे एक सवाल कर दिया था और जिसका तुम्हारे पास बिल्कुल जवाब नहीं था. वह बात आज भी मुझे तंग करती है…’

कोई छुट्टी का दिन था. यही बैठक. यही दोनों. यही देर तक चलने वाली ख़ामोशी. बेगम रिज़वी अंदर थीं. अप्पू बाहर अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था. अचानक जाने क्या हुआ कि खेल छोड़कर वह सीधे पापा के पास आ पहुँचा था और फिर गोली दागने जैसा उसका यह सवाल था.

‘पापा, हम हिन्दू हैं कि मुसलमान?’

‘क्यों?’ बेतरह चौंकते हुए भी रिज़वी ने उसे टालना चाहा था, ‘बाहर खेलो, बेटे! हमें बात करने दो’

‘नहीं, पहले बताइए,’ अप्पू मचल गया था, ‘हम हिन्दू हैं कि मुसलमान?’

‘लेकिन क्यों?’

‘बताइए?’

‘अच्छा, मुसलमान.’

‘अल्ला मियाँ कहाँ रहते हैं पापा, ऊपर आसमान में न?’

‘हाँ.’

‘और भगवान?’

‘वे भी वहीं.’

‘वहीं?’ कहते हुए अप्पू की आँखों में एक बहुत गहरा प्रश्न तैर रहा था.

आगे सवाल न पूछे इसलिए रिज़वी ने कहा, ‘जाओ, बाहर खेलो…’ पर अप्पू कोई अगला सवाल पूछने के लिए उतावला था और वे दोनों अपनी जान बचाने के लिए… रिज़वी ने निगाह बचाने के लिए दालान की तरफ देखा.

दालान में टँगे आईने पर बैठी एक गौरैया हमेशा की तरह अपनी परछाईं पर चोंच मार रही थी.

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