सफ़रनामा | जूठ-मीठ मानने वालों के लिए तिब्बत मुफ़ीद जगह नहीं

स-स्क्या की ओर

2 मई को चाय-सत्तू (प्रातराश) करके आठ बजे हम तिड्‍रि से रवाना हुए. चार घंटे में नेमू गाँव में पहुँचे. आजकल यहाँ खेतों में जुताई का काम हो रहा था. आसपास के पहाड़ों पर जहाँ-तहाँ कुछ बरफ दिखाई पड़ती थी. कहीं-कहीं पानी की नालियाँ बरफ बनी हुई थीं. रास्ते में एक जगह चाय पान करके तीन बजे हम चाकोर पहुँचे. तिब्बत में जगह-जगह ध्वस्त गाँवों के चिन्ह मिलते हैं, और कहीं-कहीं बड़े गाँव सिकुड़ कर छोटे हो गए हैं, जिसके कारण आसपास खँडहर दिखाई पड़ते हैं. चाकोर से कुछ पहले कितने ही घरों के ध्वंसावशेष दिखाई पड़े, जहाँ पर चीन के प्रजातंत्र घोषित होने (1911 ई.) से पहले चीनी सैनिक रहा करते थे. थोड़्ला के परले पार भी सैनिक गढ़ हैं, जिनमें से एक तो अब भी लोगों के रहने के काम में आ रहा है. चीन के प्रजातंत्र घोषित होने पर जो गड़बड़ी और कमजोरी पैदा हुई, उसके कारण चीनी सेनाओं को उधर से हट जाना पड़ा और यह मकान खँडहर हो गए. अब फिर चीनी या चीनी-शिक्षित तिब्बती सेनाएँ अपने दक्षिणी सीमांत की देखभाल और रक्षा के लिए जगह-जगह तैनात हो रही हैं, क्या जाने अब फिर इन खँडहरों का भाग्य जगे. लेकिन नवीन तिब्बत को अपनी सेनाओं को इस तरह जगह-जगह रखने के लिए यह जरूरी होगा, कि वहाँ अनाज की उपज बढ़ाई जाए. अभी कुछ हजार आदमियों के आने से ही ल्हासा और आसपास के स्थानों में अन्न का दाम जो बढ़ा है, उसके कारण लोगों में घबराहट पैदा हो गई है. इसलिए तिब्बत को आहार में स्वावलम्बी करना, अर्थात तिब्बत में आहार को प्रचुर परिमाण में पैदा करना राजनीतिक दृष्टि से भी अत्यावश्यक है. यह कोई मुश्किल बात नहीं है, क्योंकि जगह-जगह बहती नदियों से नहरें आसानी से निकाली जा सकती हैं. जब तक कोई खनिज खाद का स्रोत नहीं मालूम होता, तब तक वहाँ के गोबर और मेंगनी का ठीक तौर से प्रबंध करके खेतों को उर्वर बनाया जा सकता है. तिब्बत के इतिहास और भू-भाग को देखने से मालूम होता है, कि कृषि और बागबानी में शताब्दियों पहले जो प्रगाति हुई थी, उसे भी लोगों ने छोड़ दिया और अब गतानुगतिक बनकर कम से कम उपज पर ही लोग संतुष्ट रहते हैं. इसका एक कारण भू-प्रबंध भी था. जब असली खेती करने वाला भूमि का मालिक है ही नहीं, बल्कि वह अपने मालिक का अर्धदास भर है, और जो भी खेत से उपज होती है, उसमें से उसे नाम मात्र ही मिलता है, तो वह क्यों दिलोजान से मेहनत करेगा. नवीन तिब्बत में भू-प्रबंध का परिवर्तन सबसे पहले होगा, इसमें तो शक ही नहीं हैं. नए प्रबंधन में जहाँ पुराना उच्च और मध्य वर्ग नए शासन से घोर असंतोष प्रकट करेगा, और हर तरह से गड़बड़ी मचाने की कोशिश करेगा, वहाँ अस्सी और नब्बे फीसदी अर्धदास जनता नए शासन की भक्त बन जाएगी.

चोकर किसी समय बड़ा गाँव ही नहीं था, बल्कि पास के पहाड़ पर खड़ी दीवारें यह भी बतला रही हैं, कि यहाँ पर कोई स्थानीय राजा रहता था. तेरहवीं से सोलहवीं सदी तक सारा तिब्बत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था. उस समय कभी-कभी दो-दो चार-चार गाँव के भी राजा होते थे. लेकिन सत्रहवी सदी के मध्य में मंगोंलों ने इन छोटे-छोटे राज्यों को खत्म कर सारे तिब्बत को एक करके दलाई लामा को दे दिया. छोटे-छोटे राजाओं के समाप्‍त होने पर उनकी राजधानियों का श्रीहीन होना स्वाभाविक था. सत्रहवीं सदी के आरंभ में यदि हम चाकोर में आते, तो वह इस अवस्था में नहीं मिलता. चाकोर में आकर हम एक अच्छे घर में रात्रि-विश्राम के लिए बैठे. सोचा था, अब जोड़्पोन् से पिंड छूटा, लेकिन घंटे भर बाद ही वह सदल-बल पहुँच गए और हमें अपना स्थान छोड़कर एक घुड़सार में भागना पड़ा. इसी घुड़सार में महापंडित, न्यायाचार्य, और डेबा (खच्चर वाले) सभी एक बराबर रात्रि-विश्राम के लिए ठहरे. पिस्सू और जूँओं से जो घबराता हो, उसे तिब्बत की यात्रा करने का नाम भी नहीं लेना चाहिए. वह तो अच्छे घरों में भी मिलते हैं. घुड़सार में उनके अतिरिक्त गंदगी, खटमल आदि दूसरे भी शत्रु मौजूद थे. खैरियत यही थी, कि अभी मक्खियों की दिग्विजय-यात्रा नहीं शुरु हुई थी.

किसी भी नए देश में जाने पर वहाँ के आचार-विचार को बड़ी सावधानी से सीखना हरेक यात्री के लिए आवश्यक है, और तिब्बत जैसे पिछड़े देश में तो और भी सावधान रहने की आवश्यकता है. लेकिन अभयसिंह जी इसकी परवाह नहीं करते थे, जिसके कारण कभी-कभी झगड़ा उठ खड़े होने की नौबत आती थी. खच्चरवाला चाहे अपने मालिक की दृष्टि से बिल्कुल तुच्छ हो, लेकिन हम परदेशियों के सामने वह अपने को बराबर ही नहीं, बल्कि घर में होने के कारण बड़ा समझता था. उसकी दृष्टि में जो भी अनुपयुक्त बात हो, उसे सहन करने के लिए वह तैयार नहीं हो सकता था. साथ ही नेपाली सौदागरों के दब्बूपन को तिब्बत के लोग भली प्रकार जानते हैं, इसलिए भी वह शेर होने के लिए तैयार था. हमको हर जगह झगड़ा पैदा करके अपनी शान दिखाने की जरूरत नहीं थी, हम यही कर सकते थे कि उनको कोई मौका ही न दें. जब कोई ऐसी बात होती, और हम नरमी से भी समझाने की कोशिश करते, तो अभयसिंह जी इसे अपना अपमान समझते.

3 मई को चाय-सत्तू खाकर सात बजे हम रवाना हुए. बहुत मना रहे थे कि जोड़्शर से किसी तरह पिंड छूटे, लेकिन अभी भाग्य में वैसा बदा नहीं था. उसके साथ रहने में कोई फायदा नहीं था, और नुकसान यह था कि हमें सबसे बुरी जगह ठहरने को मिलती. उस भले मानुष को इतना भी खयाल नहीं था, कि उसके भगवानों के सुपरिचित हमारे जैसे आदमी के साथ कुछ समानता का-सा बर्ताव दिखलाता. हम अब फोड्‍़-छू के दाहिने किनारे से चल रहे थे. यह नदी हमारी कोशी की एक ऊपरी शाखा है. कोशी जैसी हिमालय से परे तिब्बत से भारत आने वाली नदियाँ-सिंधु, सतलुज, ब्रह्मपुत्र थोड़ी ही हैं. यहाँ भी फोड्‍-छू की धारा बहुत छोटी नहीं है, लेकिन पार करने के लिए किसी पुल की आवश्यकता नहीं है. मैदान सी जमीन पर बहने के कारण उसको फैलने का काफी मौका है, इसलिए पानी घुटनों के आसपास ही रहता है. डेढ़ बजे हम डुब्‍-शी गाँव में पहुँचे. जोड़्-पोन को यहीं ठहरना था. यद्यपि यह इलाका ऐनम् जोड़् में नहीं पड़ता, लेकिन सभी जोड़्-पोनों को एक दूसरे से काम पड़ता है, इसलिए बेगार लेने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती, और बेचारे सीधे-सादे किसान पराए इलाके के जोड्‍पोन को भी अपने भगवान जैसा ही समझकर उन्हें सिर-आँखों पर रखने के लिए तैयार रहते हैं. मालूम हुआ कि जोड़्-पोन यहीं ठहरेंगे, और उनका खच्चर वाला हमारे साथ आगे चलने के लिए तैयार है. 25-30 मिनट ठहर कर हम वहाँ से बहुत प्रसन्न होकर चल पड़े और छह बजे फ-का (क्ये-गड्‍़) गाँव में पहुँचे.

जोड़्-पोन् के न रहने के कारण पहला लाभ तो यह हुआ, कि हमें स्थान अच्छा मिला, किंतु पशुओं को नुकसान में रहना पड़ा. गाँव में भुस नहीं था. यह गाँव भी पहले और ज्यादा आबाद रहा होगा, लेकिन अब पहले का चौथाई रह गया है. उसका कारण नेपाल-तिब्बत वणिक्-पथ का परिवर्तन था, या सत्रहवीं शताब्दी की लड़ाइयाँ, अथवा जनसंख्या का ह्रास-संभवत: तीनों ही मिलकर इसके कारण हुए. ऐनम् के तीन-चार मील पीछे हम वनस्पति क्षेत्र छोड़ आए थे. तिब्बत में बहुत जगहों पर आदमियों के हाथों द्वारा लगाए बीरी (बेर) और सफेदा के वृक्षों के झुरमुट भी इधर कहीं नहीं दिखाई पड़ते थे, आज उनके कुछ वृक्ष देखने में आए. हमारे सामने लाल (मंदिर वाला) गाँव था, जहाँ पिछली लौटती यात्रा में हमने चाय पी थी. आज शाम को सभी सहयात्रियों का सम्मिलित थुक्-पा बना. थुक्-पा एक तरह की पतली खिचड़ी है, जिसमें चावल, दाल जैसे दुर्लभ और महँगें अन्न को डालना यहाँ आवश्यक नहीं समझा जाता. उसकी जगह सत्तू, मूली या आलू, मांस और हड्डी, चरबी, नमक, प्याज जैसी चीजें अधिक पानी डालकर घंटों पकाई जाती हैं. फिर कटोरों में लेकर गरमागरम पिया जाता है. चरबी, मांस और प्याज डालकर दो-तीन घंटे पकाया गया हो, तो थुक्-पा बहुत स्वादिष्ट होता है, इसमें संदेह नहीं. बड़े घरों में तो इसे पाँच-पाँच, छह-छह घंटे चूल्हे पर रख छोड़ा जाता है. चूल्हों पर एक साथ पाँच-छह बर्तन रखे जा सकते हैं, इसलिए ज्यादा ईधन खर्च करने का सवाल नहीं है. फिर गृह के मालिक, मालकिन, बच्चे तथा मेहमान जब नंगे हो कर कम्बल के भीतर चले जाते हैं, तो यह गरमागरम थुक्-पा तब चीनी मिट्टी के कटोरों में भर-भर कर उनको दिया जाता है.

4 मई को अब जोड़्-पोन् से पिंड छूट गया था, इसलिए हम सवेरे ही बिना चाय पिये चल पड़े. सामने नदी के पार हुए और लाल मंदिर वाले गाँव से होकर आगे बढ़े. पिछली यात्रा में गेशे धर्मवर्द्धन के साथ हम स-स्क्या की ओर से आते वक्त एक डांडा पार करके आए थे, लेकिन अब हम परिक्रमा करके चल रहे थे, जिसके कारण डांडे की चढ़ाई से बच गए. एक बहुत छोटा-सा डोग्‍-पा गाँव मिला. डोग्‍-पा तिब्बत में ऐसे पशु वालों को कहा जाता है, जिनकी जीविका केवल पशुपालन है. कितनी ही जगहों पर अब वह थोड़ी-सी खेती भी कर लेते हैं, लेकिन उनकी जीविका के अधिकांश साधन भेड़ें और याक होते हैं. उनके घरों में भी बेसरोसामानी देखी जाती है. हमारे देश के किसी गाँव में आप चले जाइए, आपका यदि वहाँ कोई परिचित न हो, या सौभाग्य से कोई सज्जन पुरुष न मिले, तो पैसा और रसोई का कच्चा सामान रखते हुए भी आपको भूखों मरना पड़ेगा. तिब्बत का यात्री इस विषय में ज्यादा सौभाग्यवान है, क्योंकि हर घर में उसे टिकान मिल सकती है, और चीज होने पर पैसे से खरीदी जा सकती है. हम दोपहर को उस डोग्‍-पा गाँव में एक काली-कराली के घर में चाय पीने के लिए ठहर गए. तिब्बत के लोग काले नहीं होते, लेकिन जब वर्षों से उन्होंने शरीर को पानी से न छुआने की कसम खा रखी हो, और जो भी मैल और कालिख शरीर पर आवे, उसके ऊपर घी या चरबी की चिकनाई मलना भी शोभा-वृद्धि के लिए आवश्यक समझा जाता हो, तो कलकत्ते की कालियों का कैसा अभाव हो सकता है? यदि आप किसी जगह मैले होने का संकेत करें, तो महाकाली उसी समय उस जगह थूक मलकर स्वच्छ बना देंगी. पहले-पहल हमारे देश के जूठ-मीठ में पले आदमी को ऐसे हाथों से खाने-पीने की चीजें लेने में भी घृणा होती है, लेकिन ऐसे आदमियों के लिए तिब्बत यात्रा नहीं है.

चाय और सत्तू खा-पीकर कर फिर चल पड़े. रास्ते में कई जगह धरती में से सोता उछला हुआ था. धोने का इतना सस्ता सामान, हजारों मन मौजूद था, बस बटोर लेने का सवाल था, लेकिन तब भी कपड़ा धोने की किसको फुर्सत थी? हमारे घोड़े इस भूमि से चलते वक्‍त अधिक खाँस रहे थे. शायद लोहे के तीक्ष्ण कण उनकी नाक में घुस रहे थे. मैदान में फिर बालू के बहुत से टीले आए. तिब्बती लोगों का ही विश्‍वास नहीं है, बल्कि हमारे नेपाली सहयात्री भी उसे सत्य मानते थे – इन टीलों के बनाने वाले अताबू नामक पिशाच हैं. वस्तुत: यह अताबू पिशाच यहाँ की हवा है, जो तेज चलने पर लाखों मन बालू एक जगह से दूसरी जगह लाकर रख देती है, कभी-कभी तो यह काम घंटे भर के भीतर हो जाता है. ऐसे बवंडर में यात्री के लिए खतरा भी हो सकता है. लेकिन आज हवा नहीं चल रही थी. अताबू के बनाए टीले विचित्र आकार के होते हैं. इनके एक ओर कुछ जगह खाली होती है, और बाकी तीन ओर ढलानवाली टेकरी जैसी मालूम होती थी. अताबूओं का काम है टीलों को एक जगह से दूसरी जगह रखते रहना. मैंने अपने साथियों से कहा – शायद पिछले दिनों के काम से थके-माँदे बेचारे कहीं लंबा पड़े होंगे. रास्ते में दो नदियाँ और पार करनी पड़ी, फिर हम मब्जा (मोर) नदी की कछार में पहुँचे. यह सभी नदियाँ अपने पानी को कोशी के नाम से भारत में भेजती हैं. छोन्-दु गाँव में सूर्यास्त से पहले ही हम पहुँच गए. छोन्-दु में भी चारों ओर श्रीहीनता छायी हुई थी. किसी समय यह एक प्रसिद्ध महाग्राम या बाजार रहा होगा. उस समय यहाँ पर नेपाली व्यापारी भी रहते रहे होंगे. व्यापार के अभाव के कारण अब ऐनम के बाद नेपाली व्यापारी और उनकी दुकानें शि-गर्-चे में ही मिलती थीं, जिनके बीच में बारह दिन का रास्ता है. जब खरीदारों का पता नहीं तो कोई नेपाली क्यों दुकान खोलकर वहाँ बैठे? छोन्-दु में कभी एक प्रसिद्ध बौद्ध विहार था, जो कि उसके नाम-धर्म-समाज-से भी मालूम होता है. पुराना विहार अब भी मौजूद है. स्तूप भग्नावस्था में है. गाँव में मकान भी कम ही हैं. बड़ी मुश्किल से हमें आते-जाते सैनिकों के ठहरने के लिए बने मकान में जगह मिली. खाने-पीने की चीजें हमारे साथ थीं, ईंधन मिल गया और जानवरों के लिए चारा भी. रात हमने किसी तरह काट ली.

5 मई को बिना चाय पिये ही हम सवेरे चल पड़े. मब्जा-उपत्यका बहुत चौड़ी, और उत्तर-दक्खिन को है. तिब्बत की सभी उपत्यकाओं की तरह यहाँ भी पहाड़ छोटे-छोटे और बहुत दूर हैं, जिसके कारण धूप के आने में कोई रुकावट नहीं है. किसी समय सारी मब्जा-उपत्यका धन-धान्य से समृद्ध दर्जनों गाँव से भरी थी, लेकिन अब कितने ही गाँव उजड़ गए हैं. कुछ घरों की दीवारों की पत्थर की चिनाई इतनी मजबूत है कि दो-तीन शताब्दियों से परित्यक्त होने पर भी वह अभी जैसी की तैसी खड़ी हैं. जहाँ तीन-चार इंच साल में वर्षा होती हो, वहाँ मिट्टी की दीवारें भी काफी वर्षों तक खड़ी रह सकती हैं. इन पत्थरों की दीवारों पर तो छत डाल किवाड़ और खिड़की लगाकर अच्छे मकान बनाए जा सकते हैं. यहाँ की किसी-किसी शाखा-उपत्यका में पद्म (धूप) जैसे देवदार जातीय वृक्ष भी मिलते हैं, जिससे पता लगता है, कि शायद पुराने जमाने में इन पहाड़ों में कहीं-कहीं इनके जंगल भी थे. आजकल इन वृक्षों की रक्षा और वृद्धि का कोई ख्याल न करके लोग अंधाधुंध काटते रहते हैं. मब्जा-उपत्यका की श्रीहीनता को देखकर मुझे ख्याल आता था-क्या फिर कभी इसके दिन लौटेंगे? उस समय तो बहुत दूर की बात मालूम होती थी, लेकिन इन पंक्तियों के लिखते समय (दिसंबर 1951 में) अब वह समय बिल्कुल सामने आ गया है, ल्हासा से मानसरोवर तक की जो मोटर सड़क बनाई जा रही है, वह शि-गर्-चे, स-स्क्या, मब्जा, तिड्‍रि होकर ही आगे ब्रह्मपुत्र का किनारा पकड़ेगी. क्योंकि इस रास्ते में ब्रह्मपुत्र से कटे भीषण पहाड़ों से मुकाबला नहीं करना पड़ेगा, दूसरे यदि ब्रह्मपुत्र के किनारे-किनारे का रास्ता लिया गया तो, इधर तो इलाकों के और भी श्रीहीन होने का डर है.

मब्जा में ही हमारे मित्र डोनीला (डोंन्-यिग-ला) का मकान और खेती है. वह एक छोटे-मोटे जमींदार-जागीरदार हैं. मकान भी उनका अच्छा है. पिछली यात्रा में मैं उनके बहनोई डोनी-छेन्पो का बहुत दिनों तक मेहमान रह चुका था, और उनके सौजन्य के कारण उनका घर अपना घर-सा मालूम पड़ता था. अब भी मैं उन्हीं का मेहमान होने जा रहा था, इसलिए मैंने घोड़ा बढ़ा कर डोनीला से मिल लेना जरूरी समझा. डोनीला इस वक्त स-स्क्या गए हुए थे. उनकी माता ने चाय पीने के लिए बहुत आग्रह किया, किंतु साथी अपने घोड़ों को आगे बढ़ाये जा रहे थे, मैं नहीं चाहता था, कि आगे का विशाल डंडा-डोड्-ला अकेला पार करूँ. तिब्बत में सबसे खतरे के स्थान यही ला (डांडे) हैं, जो तेरह-चौदह से सत्रह-अठारह हजार फुट तक ऊँचे हैं. ऊँचाई के कारण उनके दोनों तरफ पाँच-पाँच सात-सात मील तक गाँव या आबादी नहीं होती. डांडों के दोनों तरफ की आठ-दस मील की भूमि डाकुओं की शिकारगाह होती है, जहाँ यात्री को बहुत सावधानी से जाना पड़ता है. स्वयं तिब्बती भी इक्के-दुक्के चलना वहाँ पसंद नहीं करते.

अगले गाँव ल्ह-तोड्‍ में हम चाय पीने के लिए ठहरे. मब्जा उपत्यका में यही नहीं कि बहुत-से गाँव उजड़ गए हैं और उनकी पत्थर की दीवारें खड़ी हैं, बल्कि जिन गाँवों में लोग रहते हैं उनमें भी उजड़े घर ज्यादा मिलते हैं. चाय-सत्तू खाकर एक बजे फिर हम रवाना हुए और दो घंटे बाद डोड्‍़-ला पर पहुँचे. चढ़ाई दूर तक होने से आसान थी, लेकिन यदि हमें पैदल चलना पड़ता तो, हवा के क्षीण होने का प्रभाव हमारे फेफड़ों पर जरूर मालूम होता. आज तेजरत्न से फोटो के बारे में बात हुई. अगले ही दिन स-स्क्या में उनका साथ छूटने वाला था. वह इस बात पर राजी हो गए कि प्लेट और कागज दे देने पर बारह आने में एक प्लेट की तीन कापी कर दे देगें, अर्थात मसाला और मेहनत के लिए उनको प्रति प्लेट बारह आना मिलेगा. दिन में पचास-साठ प्लेट वह आसानी से खींच सकते थे, इसलिए कोई घाटे का सौदा नहीं था. हमें भी सैकड़ों तालपत्र की पोथियाँ मिलने वाली थीं, जिनका फोटो लेना आवश्यक था. अबकी यात्रा में हमारे पास हजार रुपए के आसपास थे, जिसमें ही दो आदमियों का खर्च भी था, इसलिए ज्यादा साखर्ची नहीं दिखला सकते थे.

शाम होने से पहले ही हमारे खच्चर-घोड़े वाले लुग्ररा (भेड़ स्थान) गाँव में पहुँच गए. गाँव में जाते तो रहने को अच्छा स्थान मिलता, लेकिन शायद मालिक (जोड़्-पोन्) का परिचय होगा, इसलिए खच्चर वाले एक महल के पास गए. महल वाले आम तौर से जमींदार होते हैं, और बड़े-से-बड़े सामंत भी व्यापार को अपना आवश्यक पेशा मानते हैं, इसलिए शायद इस महल के मालिक के खच्चर व्यापार के लिए ऐनम् के इलाके में जाते होंगे, इसलिए दोनों का स्वार्थ संबंध हो जाना स्वाभाविक था. अभी दिन इतना था कि हम आसानी से डेढ़ घंटे में स-स्क्या पहुँच सकते थे, जहाँ घर की तरह सारा इंतजाम था और जहाँ पर हमें अपने काम में लग जाना था, लेकिन खच्चर वालों से मनवावे कौन? उसको यहाँ छड् (कच्ची शराब) मुफ्त मिलने वाली थी, जानवरों के लिए घास-चारा भी मुफ्त नहीं तो कम दाम में मिलता, फिर वह क्यों आगे जाता? लेकिन हम लोग तो बहुत घाटे में रहे. आज तकलीफ की पराकाष्ठा हो गई. एक अत्यंत छोटी-सी कोठरी में छह आदमियों को रात बितानी पड़ी. महल से बाहर न जाने किसलिए यह दरबा बनाया गया था. कुत्ते का दरबा तो नहीं हो सकता था, क्योंकि यह उससे बड़ा था. हमें पैर फैलाकर सोने के लिए भी जगह नहीं थी. मुझे उस समय पिछले साल (1935 ई.) की ईरान में मशहद और जाहिदान के बीच की लारी-यात्रा याद आ रही थी, जबकि हम बोरों की तरह उसमें भर दिए गए थे. लेकिन वहाँ सारे रात-दिन उस लारी में गुजारा करना पड़ा था, और यहाँ केवल एक रात.

अभयसिंह जी को तिब्बत लाने का उद्देश्य यही था, कि वह यहाँ दो-तीन साल रहकर तिब्बती साहित्य का अच्छा अध्ययन कर लें, जिससे आगे वह भारत के खोये हुए ग्रंथ-रत्नों को फिर से संस्कृत में लाने का काम करें. इतने दिनों के तिब्बत में साथ यात्रा करने से मालूम हुआ, कि उनको हम यहाँ के बारे में कोई बात सिखला नहीं सकते और न सिखलाने का हमारा प्रयत्न उनके लिए रुचिकर होता. यह जरूर था, कि स-स्क्या और दूसरे विहारों में जो संस्कृत के ताल-पत्र मौजूद हैं, उनमें से कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों को उतारने में वह मदद कर सकते थे, लेकिन हम जानते थे कि आदमी का बच्चा भी ठोक-पीट कर बनाया नहीं जाता, फिर सयाने की तो बात ही क्या? वह अपने तजर्बे से सीख लेंगें. उनके पढ़ने के लिए अच्छा स्थान टशी-ल्हूंपो का महाविहार ही हो सकता था, जहाँ पर कि हिंदी जानने वाले मेरे परिचित रघुवीर रहते थे. मैंने उनसे कहा कि यह सारे घोड़े शि-गर्-चे जा रहे हैं, साथी भी मिल रहे हैं, मैं चिट्ठी और पैसा दे देता हूँ, आप इनके साथ चले जाएँ, और रघुवीर के साथ रहकर तिब्बती भाषा पढ़ें. शि-गर्-चे और टशी-लहूंपो दोनों ही आसपास हैं, मठ का नाम टशी-ल्हूंपो है, और कस्बे का नाम शि-गर्-चे. अभयसिंह जी को विशेषकर ऐनम् से इधर की यात्रा में कुछ बातें अरुचिकर मालूम हुई थीं, लेकिन मुझे इस तजर्बे से इतना ही मालूम हुआ कि इनको अपने ऊपर छोड़ देने से सब ठीक हो जाएगा. जब मैं पैसा देने लगा, तो वह रो पड़े. मैंने फिर उन्हें आगे जाने के लिए नहीं कहा. यद्यपि मुझे यह विश्वास नहीं था कि मेरे साथ रहने से उन्हें अधिक लाभ हो सकेगा.

6 मई को छह बजे सवेरे ही अभयसिंह के साथ मैं आगे बढ़ चला. अभी भी यहाँ सवेरे के वक्त नालियों में पानी बरफ बनकर जमा हुआ था. मई का प्रथम सप्ताह खत्म हो रहा था, लेकिन वृक्षों में पत्तियाँ छोटी-छोटी कलियों की तरह ही दिखाई पड़ रही थीं, हरियाली का कहीं भी पता नहीं था. किसान खेतों को अभी ही थोड़ा जोतने लगे थे. डोड्-ला ब्रह्मपुत्र और गंगा में जाता है, और डोड्‍़-ला से इधर का पानी स-स्क्या नदी से होकर ब्रह्मपुत्र में गिरता है. स-स्क्या नदी के पुल को पार कर हम साढ़े सात बजे कुशो डोड्‍़-यिग्-छेन के घर पहुँच गए. वृद्ध कुशो ने दिल खोलकर स्वागत किया.

 

आवरण चित्र| क्रिस्टोफ़र मिशेल/ विकीमीडिया कॉमन्स

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