सफ़रनामा | तिब्बत की तीसरी यात्रा

अब तो मैं तीसरी बार तिब्बत में प्रवेश कर रहा था, इस रास्ते यह दूसरी बार जा रहा था. पहले प्रवेश में मुझे उतना ही कष्टों का सामना करना पड़ा था, जितना कि हनुमान जी को लंका-प्रवेश में.

21 अप्रैल को हम बहुत दूर नहीं गए. डाम गाँव के सामने तेजी गंग (रमइती) में रात के लिए ठहर गए. पहली यात्रा में हम कई दिनों के लिए डाम गाँव में ठहरे थे. अबकी गाँव से पहले पड़ने वाले लोहे के झूले को पार कर अभी सवेरा ही था, जबकि गाँव में पहुँच गए. यह लोहे का झूला सतयुग का कहा जाता है – जंजीरों का पुल है, और काफी लंबा होने की वजह से बीच में पहुँचने पर खूब हिलता है. अभयसिंह जी को पहले-पहल ऐसे पुल से वास्ता पड़ा था, इसलिए उनके पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे. मैंने कहा – आँखें मूँद करके चले आओ. चला आना तो था ही, क्या लौट कर काठमांडू जाते? गाँव से पार होने लगे, तो हमें अपनी पहली यात्रा की सहायिका यल्मोवाली साधुनी अनीबुटी एक घर में बैठी हुई दिखाई पड़ीं. सात ही वर्ष तो हुए थे, उसने देखते ही पहचान लिया. वह और डुग्पा लामा का एक और शिष्य वहाँ थे. उनसे थोड़ी देर बातचीत हुई. पहली यात्रा में तो मैं तिब्बती भाषा नाममात्र की जानता था, लेकिन अब भाषा की कोई कठिनाई नहीं थी.

अब भोटकोशी के किनारे-किनारे कभी उसके एक तट पर कभी दूसरे तट पर आगे बढ़ाना था. रास्ते में कहीं भोजन किया और कहीं दूध पीने को मिला. तिब्बती भाषा-भाषी क्षेत्र में यात्री को ठहरने का कुछ सुभीता जरूर हो जाता है. वहाँ चौके-चूल्हे की छूत का सवाल नहीं है, न जनाने-मर्दाने का ही, इसलिए घर के चूल्हे पर जाकर आप अपनी रसोई बना सकते हैं. खाने-पीने की जो भी चीज घर में मौजूद है, उसे पैसे से खरीद सकते हैं, और बहुत कम ऐसे गृहपति मिलेंगे, जो ठहरने का स्थान रहने पर भी देने से इंकार करेंगे.

अप्रैल का अंतिम सप्ताह था. हम सात-आठ फुट की ऊँचाई पर चल रहे थे. यहाँ लाल, गुलाबी, और सफेद कई रंग के फूलों वाले गुरास (बुराँश) के पेड़ थे. बहुत से पेड़ तो आजकल अपने फूलों से ढके हुए थे. बुराँश को कोई-कोई अशोक भी कहते हैं, लेकिन यह हमारा देशी अशोक नहीं है. अंग्रेजी में बुराँश को रोडेंड्रन कहते हैं. एक वृक्ष तो अपने फूलों से ढका हुआ इतना सुंदर मालूम होता था, कि मैं थोड़ी देर उसके देखने के लिए ठहर गया. कैमरे से फ़ोटो लिया, लेकिन फ़ोटो में रंग कहाँ से आ सकता था? रास्ता चढ़ाई का था और बहुत कठोर था. उस दिन रात को छोकसुम में ठहरना था. यहाँ तक हमें भोटकोशी पर नौ बार पुल पार करना पड़ा. तातपानी अगर नेपाल के भीतर का तुप्त कुंड था, तो यह तिब्बत के भीतर का. हम छह बजे के करीब टिकान पर पहुँच गए, उस वक्त थोड़ी बूँदाबाँदी थी. नौ-दस हजार की ऊँचाई पर ऐसे मौसम, सरदी का अधिक होना स्वाभाविक ही था. मुफ़्त का गरम पानी मिलता हो, तो मैं स्नान करने से कैसे रुक सकता था? लेकिन सरदी के मारे अभयसिंह जी ने तुप्त कुंड जाने की हिम्मत नहीं की.

ऐनम्
अभी हम जंगल और वनस्पति की भूमि में ही थे, लेकिन कुछ ही मीलों बाद उसका साथ चिरकाल के लिए छूटने वाला था. तातपानी से यहाँ तक, भोटकाशी के दोनों किनारों के पहाड़ हरे-भरे जंगलों से भरे थे, वृक्षों में छोटी बाँसी, बुराँश, बंज (बजराँठ, ओक) और देवदार जातीय वृक्ष बहुत थे. यहाँ का जंगल इसलिए भी सुरक्षित रह गया, क्योंकि यहाँ जनवृद्धि का डर नहीं है. तिब्बती लोगों में पांडव (सभी भाइयों का एक) विवाह होता है, एक पीढ़ी में दो भाई हैं, दूसरी में दस तो तीसरी पीढ़ी में फिर दो-तीन हो जाने की संभावना है, इस प्रकार न वहाँ घर बढ़ता है न खेत या संपति बँटती है. आदमियों के न बढ़ने के कारण जंगल काटकर नए खेतों के आबाद करने की भी आवश्यकता नहीं होती. यदि हम नेपाल के भीतर होते और दूसरी जाति के लोग यहाँ बसे रहते, तो आसपास के पहाड़ों में और भी कितने ही गाँव बसे दिखाई पड़ते. छोकसुम से भात खाकर साढ़े आठ बजे रवाना हुए थे. आगे रास्ता कठिन था और कहीं-कहीं बरफ भी थी, दो-एक मर्तबे नदी को भी आर-पार करना पड़ा. यह नमक का मौसम था. नेपाल के इधर के पहाड़ों में तिब्बत का नमक चलता है, जो सस्ता भी होता है. नेपाली लोग अपनी पीठ पर मक्की, चावल या कोई अनाज लादकर ऐनम् पहुँचते हैं, और वहाँ से नमक लेकर लौट जाते हैं. इधर के गाँवों में हर जगह बौद्ध-चैत्य (स्तूप) या मंत्र खुदे हुए पत्थरों की दीवारें (मानी) रहती हैं. गाँव के पास आम तौर से वह देखे जाते हैं. नमक वाले अपनी ठिकानों में पाखाना जाने के लिए सबसे अच्छा स्थान इन्हीं चैत्यों और मानियों को समझते हैं. बस्ती के आसपास तो गंदगी का ठिकाना नहीं. ढाई बजे हम ऐनम् पहुँचे और साहू ज्ञानमान के बत लाए अनुसार साहू जोगमान के यहाँ ठहरे. ऐनम् से पहले ही पहाड़ी दृश्य तिब्बत का हो जाता है, अर्थात् बिल्कुल नंगे पहाड़, जिनके ऊपर न कहीं वृक्ष हैं, न वनस्पति, यहाँ तक कि झाड़ियाँ भी नहीं दिखाई पड़तीं. ऐनम् के पास पहुँचते समय हमें एवरेस्ट पर्वत भी दिखाई पड़ा, जो स्वच्छ नीले आकाश में बहुत समीप मालूम होता था. सरदी काफी थी. अभयसिंह को पहले-पहल उससे मुकाबला पड़ रहा था. इसलिए वह उसे अधिक महसूस करते थे. साहू जोगमान ने बतलाया, कि घोड़ों के लिए तीन-चार दिन ठहरना पड़ेगा.

ऐनम् में तिब्बत के मजिस्ट्रेट (जोड़्पोन्) रहते हैं. 17वीं सदी के मध्य में, जबकि तिब्बत का शासन वहाँ के एक मठाधीश (दलाई लामा) के हाथ में आया, तब से शासन-व्यवस्था में एक नई चीज़ क़ायम की गई, कि हर एक दिन के लिए जोड़ा अफसर हों – एक भिक्षु, और दूसरा गृहस्थ. कभी-कभी दोनों गृहस्थ भी दिखाई पड़ते हैं, यदि कोई मंत्रियों के अनुकूल साधु नहीं मिला. ऐनम् में दो जोड़्पोन् थे, जिनमें एक को जोड़्-शर (पूर्ववाला जोड़्) और दूसरा जोड़्-नुब (पश्चिम जोड़्पोन्) कहा जाता था. हम 24 अपैल को दस बजे जोड़्-नुब के पास गए. कितनी ही देर तक बातचीत होती रही. जोड़्पोन् लोग सरकारी काम करते हुए अपना व्यापार भी किया करते हैं, जिसके लिए उनके पास अपने घोड़े-खच्चर होते हैं. हम तो इस ख्याल से गए, कि उनसे किराए पर घोड़ा माँगेंगे, लेकिन कुछ देर बात करने के बाद उन्होंने कहा-नेपाली छोड़कर यहाँ से आगे किसी को जाने देना मना है. मैंने इस बात की ओर ख्याल नहीं किया था. समझता था, मैं दो बार तिब्बत हो आया हूँ और ल्हासा के बड़े-बड़े आदमियों से मेरा परिचय है, साथ ही यह जोड़्-पोन् अभी-अभी धर्मासाह के घर पर मुझे मिल चुका है, इसलिए वह क्यों रुकावट डालेगा? दरअसल वह रुकावट पैदा भी नहीं करना चाहता था, लेकिन सारी ज़िम्मेवारी अपने ऊपर लेना नहीं चाहता था; इसलिए उसने कहा – आप मेरे साथी जोड़्-शर् से भी आज्ञा ले लें. उसने यह भी कहा, कि हम सस्क्या तक के लिए घोड़ा भी दे देंगे. मैं वहाँ से जोड़्-शर् के पास गया. वह उस वक्त भोजन कर रहा था. जोड्‍पोनों की तनखाह 20-25 रुपए महीने से ज्यादा नहीं होती, लेकिन यह अपने जिले के बादशाह होते हैं. ल्हासा दूर होने से उनके न्याय और अन्याय की शिकायत भी कोई नहीं कर सकता और तिब्बत में कोई लिखित कानून तो हैं नहीं, सब फैसला अपनी विवेक बुद्धि से ही करना पड़ता है. हरेक मुकद्दमे में वादी और प्रतिवादी दोनों को जोड़्-पोन् की पूजा करना पड़ती है. मांस, मक्खन और अनाज तो बिना पैसे का उनके यहाँ भरा रहता है. ऐनम् अब भी कम से कम नेपाल से आने वाले माल की व्यापारिक मंडी है. यहाँ से चावल, चूरा और कितनी ही चीजें तिब्बत जाती हैं. इस व्यापार में जोड़्पोन लोगों का भी हाथ होता है, जिससे उनको काफी आमदनी होती है, इसलिए 20-25 रुपया मासिक पाने वाले आदमी की स्त्रियाँ चीनी रेशम और मोती-मूँगा से लदी हो, तो आश्चर्य क्या? उनका रौब-दाब भी किसी बादशाह से कम नहीं होता. मुझे पहले तो बैठने के लिए कहा गया, इसके बाद कल आने का हुक्म हुआ. मेरी यात्रा फिर कुछ संदिग्ध-सी हो गई. जोड़्-शर के बारे में लोग कह रहे थे, कि ल्हासा का आदमी है और बड़े कड़े मिजाज का है.

अगले दिन (25 अप्रैल) फिर दस बजे जोड़्-शर के दरबार में गए. अपनी छपी हुई पुस्तकें और ल्हासा के कई मित्रों के चित्रों को दिखला कर यह विश्वास दिलाया, कि दो बार मैं राजधानी हो आया हूँ, और यह भी बतलाया कि मेरे जाने की मंशा है प्राचीन बौद्ध ग्रंथों का उद्धार. अंत में जोड़्-शर ने कहा- वैसे तो आचार (भारतीय साधु आदि) को हम ऊपर नहीं जाने देते, किंतु आप धर्म-कार्य के लिए जा रहे हैं, इसीलिए हम दोनों जोड़्पोन् बात करके सब बंदोबस्त कर देंगें.

खैर, निराश होने की बात नहीं मालूम हुई. भारतीयों के लिए इतनी कड़ाई होने का कारण भी है. पिछली शताब्दी में जबकि अँग्रेजों की इच्छा भारत के उत्तरी सीमांत को पार करके और आगे हाथ मारने की थी, उनके गुप्तचर बनकर कितने ही भारतीय तिब्बत गए थे. जिनके कृत्यों के कारण तिब्बती लोगों के दिलों में भारतीयों के प्रति अविश्वास पैदा हो गया. उन्हें क्या पता था, कि मैं उस तरह का अंग्रेजी गुप्तचर नहीं हूँ, इसलिए कड़ाई होनी ही चाहिए थी. उसी दिन शाम को जोडनुब की ओर से चावल और मांस की भेंट मेरे पास आई. अभयसिंह जी के साथ मैं भी कुछ सौगात लेकर उनके पास पहुँचा. दोनों ने बात कर ली थी. जोड्‍बुन के पास खच्चर भी मौजूद थे, लेकिन वह कह रहा था: केवल तीन खच्चरों को अलग देना हमारे लिए मुश्किल है, जब पच्चीस खच्चरों का माल आ जाएगा, तो हम भेज देंगे. खैर, यात्रा का तो विघ्न टल गया, सिर्फ यात्रा के दिन की बात थी. यह भी मालूम हुआ, कि 25 खच्चरों का माल आ गया है, इसलिए अधिक दिन रुकना नहीं पड़ेगा. तीन-चार नेपाली भी शि-गर्‍-चे को जाने वाले थे. हमने 25 को तैयारी शुरू कर दी, लेकिन प्रस्थान 28 को करना पड़ा. हमें सस्क्या जाना था, जो कि शि-गर्-चे से तीन-चार दिन के रास्ते पर ही पड़ता था. तीन खच्चर वहाँ में छोड़कर लौट तो नहीं सकते थे, उन्हें तो आखिर जाना पड़ता, शि-गर्-चे तक ही इसलिए दोनों जगहों का किराया सवारी के खच्चर के लिए 50 साड्‍़ (प्राय: बारह रुपया) और ढुलाई के खच्चर का 40 साड़् तय हुआ. हमने अपना पैसा नेपाल में साहू धर्ममान के यहाँ रख दिया था. समझा था, आगे तो उनकी कोठी या दूसरी दुकानों में पैसा मिल ही जाएगा, इसलिए साथ में ढोने की क्या आवश्यकता? लेकिन यहाँ जोगमान साहू रुपया देने में हिचकिचाने लगे, यद्यपि उनके लिए हम चिट्ठी लाए थे. बहुत कहने-सुनने पर 100 रुपए के भोटिया (तिब्बती) सिक्के उन्होंने दिए. चीजों के खरीदने के लिए अब हमारे पास काफी पैसा नहीं था. सस्क्या में न जाने कितने दिन ठहरना पड़े और पैसा देने वाले नेपाली सौदागर शि-गर्-चे में ही मिलने वाले थे.

तिड्‍़री की ओर
एक अपैल के नौ बजे हम आगे के लिए रवाना हुए. हमारे और अभयसिंह के अतिरिक्त चार नेपाली सवार साथी हुए, जिनमें शि-गर्-चे के नेपाली फ़ोटोग्राफर तेजरत्न तथा उनकी तिब्बती स्त्री भी थी. जोड़् का नौकर भी घोड़े पर और खच्चरों की देखभाल के लिए एक आदमी था. पूरा काफिला था. तिब्बत तथा मध्य एशिया के और देशों में भी सवारी के घोड़ों पर खुर्जी में पंद्रह-बीस सेर सामान लटकाने का इंतजाम रहता है, इसलिए खान-पीने की कितनी ही चीजें हमारी अपनी खुर्जियों (ताडू) में थीं. सामान के लिए दो गधे थे, जिन्हें जोड़्पोन् का नौकर बेगार में जहाँ-तहाँ ले लिया करता था. हमारा खच्चर बूढ़ा था और अभयसिंह को एक दुबला घोड़ा मिला था. खैर, हमें घुड़दौड़ तो करनी नहीं थी, और अभयसिंह को घुड़सवारी से पहले-पहले वास्ता पड़ रहा था, इसलिए दुबला घोड़ा उनके लिए अच्छा नहीं था. ऐनम् से आगे बढ़े, तो रास्ते में सैकड़ों चमरियाँ नमक लादे ऐनम् की ओर जाती दिखाई पड़ी. अप्रैल का महीना बीत रहा था, लेकिन अभी यहाँ जुताई का काम जरा-जरा लगा था. तिब्बत के चारों तरफ के ऊँचे पहाड़, विशेषकर हिमालय, समुद्र से उठे बादलों को तिब्बत की ओर बढ़ने नहीं देते, जिसके कारण बरफ और वर्षा दोनों ही वहाँ कम होती है. शायद इस वक्त हम बारह हजार फुट के ऊपर चल रहे थे. लेकिन बरफ आसपास की पहाड़ियों पर ही कहीं-कहीं दिखलाई पड़ती थी. एक बजे के करीब सके गुंबा को पार कर दो बजे हम चाड़्-दो-ओमा गाँव में पहुँचे. शायद आज दस मील आए होंगे. जोड़्-शर भी ल्हासा जा रहा था. वह भी अपने कई अनुचरों के साथ यहाँ पहुँचा. सारे गाँव के नर-नारी उसकी अगवानी के लिए गए. इसे कहने की आवश्यकता नहीं, कि चाड़्-दो-ओम के किसानों के लिए जोड़्-शर किसी राजा से कम नहीं था. लोगों को उसके खाने-पीने, भेंट-पूजा करने, उसके नौकरों और जानवरों को खिलाने-पिलाने में अपना तन बेचकर इंतजाम करना पड़ा. कितना दुस्साह शासन उस समय तिब्बत में रहा, यह कहने की बात नहीं है.

हाल में 23 नवंबर (1951) को ल्हासा से लिखी चिट्ठी मुझे 4 दिसंबर को मसूरी में मिली. उसमें लिखा है – “चीनी लोगों के ल्हासा पहुँचने से पहले तक मध्यवर्ग और निम्नवर्ग के लोग कम्युनिस्टों से बहुत आशा किए हुए थे. लेकिन चीनी लोग बड़ी संख्या में आने लगे और खाने-पीने की चीजें बहुत महँगी होने लगीं. अब तो वह बहुत निराश हुए और चीनियों को शंका की दृष्टि से देख रहे हैं. कूटा (अफसर) लोग तो चीनियों से घृणा कर रहे हैं, लेकिन लाचार होकर चुपचाप बैठे हैं.” कूटा लोग भला क्यों चीनियों के आने तथा नवीन तिब्बत के अविर्भाव को अच्छी आँखों से देखेंगे? कहाँ सारे तिब्बत के लोगों को लूट-मार कर मौज उड़ाना, और कहाँ अब नए शासन में उनका चारों ओर से रास्ता रुका होना. जोड़्-शर की यात्रा को देखने से ही हमें मालूम हो रहा था कि इनका शासन अत्यंत असह्य ही नहीं है, बल्कि कूटा (अफसर) कितना दोनों हाथ से जनसाधारण का शोषण कर रहे हैं. जोड्‍ को अपने घोड़ो-खच्चरों के लिए घास-चारा पर भी पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं थी. ऊपर से वह बेगार में जितने चाहें, उतने घोड़े, गधे या चमरियाँ ले सकते थे. यह मौज भला अब कहाँ मिलने वाली है. लेकिन आज से सोलह वर्ष पहले 1936 में जोड़्-शर और उसके भाई-बंधुओं को क्या मालूम था, कि आगे क्या आने वाला है.

29 अप्रैल – भोजन कर दस बजे रवाना हुए. शायद हमारे घोड़े भी बेगार के थे, इसलिए उन्हें बदलते रहना पड़ता था. उस दिन तक अभयसिंह की जरा हिम्मत भी खुल गई, और वह घोड़ा दौड़ते हुए आगे बढ़ गए. घोड़े वाला बहुत नाराज होने लगा. खैरियत यही हुई कि उसने गाली-गलौज नहीं की. नेपाली व्यापारियों को तिब्बती लोग साधारण बनियों की तरह कायर समझते हैं, इसलिए दो गाली दे देना भी उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है. उस दिन हम रात को थूलुगड्‍़ में थोड्‍़ला डांडे से कितने ही मील पहले ही रात के लिए ठहर गए – ऊँचाई चौदह-पंद्रह हजार फुट होगी. सरदी तो काफी होनी ही चाहिए. अभयसिंह जी नींद न आने की शिकायत कर रहे थे, और इससे पहले सिरदर्द भी हो चुका था. अधिक ऊँचाई पर कमजोर हृदय वालों के लिए प्राणों का खतरा होता है. कुछ चिंता होने लगी है, लेकिन यह जानकर धैर्य हुआ, कि उनके हृदय को साँस लेने में कोई कष्ट नहीं है.
30 अप्रैल को सूर्योदय के साथ-साथ हम आगे के लिए रवाना हुए. साढ़े आठ बजे एक जगह चाय पीने के लिए रुके और बारह बजे थोड्‍़ला के ऊपर पहुँचे. भारत से तिब्बत की ओर जाने वाले हिमालय के जितने बड़े-बड़े डांडे हैं, उनमें से यह एक है और बहुत ऊँचा है – सत्रह हजार फुट के करीब ऊँचा होगा. डांडे के पास जितने ही पहुँचते जाते थे, उतनी ही खड्ड में सफेद बरफ अधिक फूली-सी दिखाई पड़ रही थी. लेकिन जैसा कि पहले कहा, वर्षा-बादल के कम आने के कारण रास्ते में बहुत बरफ नहीं थी. डंडा पार करके हल्की उतराई उतरते हुए कोई पाँच घंटे में हमें लड़्कोर पहुँचे. अभयसिंह जी यहाँ न्यायाचार्य से वैद्याचार्य बन गए. इधर कोई अस्पताल या चिकित्सा का इंतजाम सरकार की ओर से नहीं है, इसलिए बीमार लोग आते-जाते लोगों से ही अपनी चिकित्सा कराते हैं. घर के मालिक को आतशक (गर्मी) की बीमारी थी. अभयसिंह जी ने उनको कोई दवाई दी. किसी को सिरदर्द था, उसे भी दवाई दी.

यानि कानिच मूलानि येन केनापि पिंशयेत.
यस्य कस्यापि दातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यति॥

खैर, अभयसिंह जी कोई खतरे की दवाई नहीं दे रहे थे. लड़्कोर और तिड्‍रि में हम बारह-तेरह हजार फुट से नीचे थे, लेकिन यहाँ गरमी मालूम हो रही थी. यद्यपि वह मई के अनुरूप नहीं थी.

सात बजे चाय पीकर हम फिर रवाना हुए. जोड्‍पोन साहब का साथ था, इसलिए उनके अनुसार ही हमें भी करना पड़ता था. साढ़े दस बजे तीन घंटा चलकर कम तिड्‍रि पहुँच गए. तिड्‍रि नेपाल-तिब्बत वणिक्-पथ का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और सामरिक केंद्र है-है नहीं, ‘था’ कहना चाहिए, क्योंकि कलिम्पोड़्-ल्हासा का रास्ता खुल जाने पर इस वणिक्-पथ का उतना महत्व नहीं रहा, जिसके कारण अब तिड्‍रि की रौनक जाती रही. तिड्‍रि का अर्थ है समाधि-पर्वत. यहाँ एक पचासों वर्ग मील का खूब विस्तृत मैदान है, जिसके एक कोने पर, किंतु पर्वत माला से हटकर, एक छोटी पहाड़ी है, इसका ही नाम तिड्‍रि है. पहाड़ी के ऊपर जोड़् (गढ़) है, जहाँ पर इस इलाके का जोड़्पोन् रहता है. बस्ती पहाड़ी के एक तरफ है, जिसके पास से रास्ता जाता है. जोड्‍पोन को अपने भाई जोड़्पोन् से मिलना-जुलना था, इसलिए वह यहीं ठहर गए. उनके ठहरने पर हमें भी ठहरना जरूरी था, क्योंकि बेगार के घोड़े को ही हमें किराए पर दिया गया था. लड़्कोर और तिड्‍रि दोनों ही भारत से तिब्बत आने वाले पुराने रास्ते पर हैं, इसलिए यहाँ पुराने अवशेष होने ही चाहिए. लड़्कोर के मंदिर में भारतीय सिद्ध फदम्‍पा सड्‍-ग्येस (सत्पिता बुद्ध) अपने भारत और तिब्बत की अनेक यात्राओं में ठहरा था. वहाँ के मंदिर में उसकी मूर्ति मौजूद है. यद्यपि मठ अच्छी हालत में नहीं है. तिड्‍रि भी अपने विहार के लिए कोई प्रसिद्धि नहीं रखता. तिब्बत की कृषि- योग्य भूमि का बहुत बड़ा भाग विहरों (मठों) और सामंतों की जागीरों में बँटा हुआ है, सीधे सरकार की जमीन बहुत ज्यादा नहीं है. हाँ सरकार अपने जागीदारों से नगद और जींस के रूप में भू-कर लेती है, तथा जागीर की बढ़ाई-छुड़ाई के अनुसार जागीदारों को आवश्यकता पड़ने पर अपने यहाँ से सेना के लिए जवान देना पड़ता है. वर्तमान शताब्दी के आरंभ तक तो उन्हें गोली-बारूद भी देनी पड़ती थी, लेकिन अब पुराने हथियारों के बेकार होने के कारण, वह उन्हें देना नहीं पड़ता. तिड्‍रि के पास ही एक बड़े विहार का शि-का है. शि-का (शिड्‍-का) का मतलब है, जागीदार की अपनी जिरातया सीर्. अपने ‘शि-कों’ में मठ अपना कोई एक होशियार कारिंदा भिक्षु भेज देता है, जो सारा इंतजाम करता है. पहली यात्रा में यहाँ के ऐसे ही एक शि-का में हम एक कारिंदा के यहाँ मेहमान हुए थे.

अभी ताजा मांस का मौसम नहीं आया था. जाड़ों के आरंभ होने पर घास-चारे की कमी के कारण पशु दुर्बल होने लगते हैं, इसलिए कई महीनों के लिए मांस को जाड़ा आरंभ होने से पहले ही पशुओं को मारकर रख लिया जाता है. जाड़े भर में भेड या याक ज्यादा सूख जाते हैं, इसलिए उनको मारना घाटे का सौदा है, फिर इसके बाद तिब्बती पंचांग का चौथा महीना साका-दावा (साक्य मास) आ जाता है, जो बुद्ध के जन्म, निर्माण और बुद्धत्व-प्राप्ति का महीना होने के कारण बहुत पुनीत माना जाता है. इसलिए उस समय प्राणी हिंसा करना बुरा समझा जाता है. उसके बाद से फिर ताजा मांस मिलना शुरू हो जाता है. इस प्रकार आजकल सूखा मांस ही मिलता था. तिब्बत में शत-प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि वहाँ मांस सुलभ है. बड़े घरों में सूखा मांस हमेशा तैयार रहता है, क्योंकि किसी मेहमान की खातिरदारी के लिए मांस आवश्यक चीज है. सूखा होने पर उसे पकाने की आवश्यकता नहीं समझी जाती. उसके दो-एक बड़े टुकड़े एक ऊँचे पाँव की तस्तरी पर रखकर नमक और चाकू के साथ मेहमान के सामने रख दिए जाते हैं. इसके साथ उस छोटी चौकी पर लकड़ी के सुंदर सत्तू दान में सत्तू और सुंदर चीनी प्याला चाय के लिए रखा जाता है. तिड्‍रि जैसे स्थानों में मांस का मिलना उतना कठिन नहीं है. लेकिन मांस खाना और मांस पकाना जैसे एक चीज नहीं है, उसी तरह मांस काटने की भी कला है जैसे छुरी काँटे के पकड़ने का एक मान्य नियम है, उसी तरह मांस काटने के लिए इन देशों मे लंबा तजर्बे के आधार पर कुछ नियम बना लिए गए हैं, जिनके अनुसरण न करने पर लोग आपको अनाड़ी समझ कर मन से हँसेंगे, जिसका अर्थ है कि आप अभद्र भी हैं. साथ ही डर है, कि आप अपने को कहीं काट न लें. उस दिन मांसोदान के लिए मांस काटने का काम अभयसिंह ने लिया था और वह अपना अँगूठा काट बैठे. बाँए हाथ में मांस खंड लेकर दाहिने हाथ में चाकू पकड़कर काटते वक्त चाकू की धार अपनी ओर नहीं बल्कि बाहर की ओर रखनी चाहिए यह भी एक शिष्टाचार है. सारा दिन तिड्‍रि के मैदान को देखने, लोगों से बातचीत करने में गुजरा. जिस को हम सत्संग और संलाप कहते हैं, उसका मौका तिब्बत में बहुत कम जगहों पर मिलता है. तिब्बती लोगों से घनिष्ठता पैदा करने के साधन हैं शराब और गाना. यदि कोई विद्या प्रेमी या विद्वान हो, उससे संलाप द्वारा भी समीपता पैदा की जा सकती है. पहले साधनों से हम वंचित थे.

मैदान में इस समय अभी पीली-पीली घास दिखाई पड़ती है. दूर से देखने पर मालूम होता था, कि घास मखमल की तरह बिछी है परंतु नजदीक जाने पर हाथ-हाथ भर घास कहीं-कहीं तो पाँच-पाँच हाथ के अंतर में खड़ी थी. वर्षा के दिनों में सारा मैदान हरा-भरा मालूम होता होगा, इसमें संदेह नहीं. पिछली यात्रा में जब मैं इधर से ऊपर जा रहा था, तो यहाँ जंगली गधों (क्याड्‍) के झुण्ड चरते दिखाई पड़े थे, लेकिन इस वक्त वह यहाँ नहीं थे. भूमि में जहाँ-तहाँ स्वत: पानी निकल रहा था. अक्टूबर के महीने में ही ऐसा कितनी जगहों पर देखा जाता है. इस मैदान में वैसे खोतों को दस-गुना बीस-गुना बढ़ाया जा सकता है, लेकिन नेपाल की तरह यहाँ जनवृद्धि की समस्या नहीं है. यहाँ आसपास के पहाड़ों में वनस्पति के अभाव के कारण प्राकृतिक स्रोतों से खाद मिलने की संभावना नहीं है, आप उतनी ही भूमि में कोई चीज उगा सकते हैं, जितनी में गोबर या मेंगनी डाल सकें. पानी का प्रबंध आसानी से हो सकता है.

आवरण फ़ोटो|विकीमीडिया कॉमन्स

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