भोपाल | एक छात्रा की डायरी से कुछ फुटकर नोट्स

वह खड़ा हो गया. शायद पैकेट से अंदाजा लगा चुका था.
और बिना देर किए कहने लगा कि मांगता नहीं हूं दीदी, राशन में केवल चावल मिला है. और डेढ़ महीना होने को आया, ऑटो खड़ा है, कोई काम नहीं. एक पैकेट मिल जाएगा क्या?
कभी हाथ न फैलाने वाले पिता ने हाथ फैलाने में रत्ती भर देर न की.
मेहनत की कमाई से पक्की दीवारें और छत से लटकता बेशकीमती झूमर शायद न मिले. लेकिन, सीने में आत्मसम्मान की अकड़ और आंखों में इज्जत के दीप जरूर झिलमिलाते हैं.
लेकिन इस भयावह माहौल ने आज इस ऑटो वाले की तरह ही न जाने कितने ही लोगों की कमर तोड़ दी है, लाखों-लाख आंखों में कभी न ख़त्म होने वाला अंधकार है, और कान दूर तलक सिर्फ़ सांय-सांय सुन पा रहे हैं.

दूसरी जगहों पर क्या घट रहा था, इस से अनभिज्ञ मैं अपने एमए के दूसरे सेमेस्टर के इम्तहान की अचानक आ गई तारीख़ की वजह से तैयारियों में जुटी हुई थी. हमारी दुनिया में चहुं ओर यही कोलाहल था कि कॉलेज के इतिहास में आज तक ऐसा न हुआ कि छह महीने का सेमेस्टर सिर्फ़ तीन महीनों में पूरा हो जाएगा, और वह भी बिना किसी पूर्व सूचना के. बहरहाल, हमने जैसे-तैसे इस सच को स्वीकारने की हिम्मत जुटाई. मगर बहुत तेज़ी से, बहुत ढेर सारी पढ़ाई का लक्ष्य तय करने भर से दिमाग़ पर बोझ ख़ासा बढ़ा हुआ था, और वह अचानक इम्तहान कराने के इस फ़ैसले की वजह तलाश करता रहा. तभी यूट्यूब पर नोटिफ़िकेशन मिला कि कोरोना को लेकर कमलनाथ प्रदेश को संबोधित करेंगे.
भोपाल के राजनीतिक गलियारों में हलचल मची हुई थी. रातों-रात सरकार बदल रही थी. जनता के चुनाव पर राजनीतिक व्यापार ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाता हुआ दुनिया भर को अंगूठा दिखा रहा था.
और इस तरह हमारे इम्तहान की तारीख़ टल गई, अनिश्चितकाल के लिए बढ गई.
पूरी घटना का हमारे साथियों पर असर बस इतना था कि सभी ने चैन की सांस ली और अपने घरों को चल दिए.

लेकिन, हमारी एक साथी ने सोचा कि कुछ दिनों की तो बात है. फिर सब ठीक हो जाएगा. तो वह भोपाल में ही रुक गई.
फिर ख़बर आई कि ट्रेनें चलना भी बंद हो जाएंगी. यह जानने के बाद उसने डर के मारे फटाफट टिकट कराया, लेकिन जा नहीं सकी.
हम सभी ने कॉलेज के व्हाट्सएप ग्रुप में उसका हाल-चाल पूछा और जानने की कोशिश की कि आखिर वह गई क्यों नहीं? स्टेशन जाकर वापस क्यों आ गई? उसने बताया कि कोरोना के डर से पूरी ट्रेन खाली थी. और उसे आठ घंटों का सफ़र अकेले ही करना था. फिर अकेले सफ़र करने वाली औरतों की दुश्वारियों की कितनी ही कहानियां दिमाग़ में घूमने लगीं. लगा कि मैं अकेले इतना लंबा सफ़र नहीं कर पाऊंगी. मुझे कोरोना का ख़ौफ़ नहीं, ख़ुराफ़ाती लड़कों से डर लगता है. उसके इस जवाब पर “हा-हा-हा” और एक आंख बंद किए-जीभ निकाले हुए इमोजी दनादन आने लगे. लेकिन सच तो यह है कि हममें से बहुतों के मन में वह बात बहुत गहरे तक चुभ गई थी.

भोपाल झीलों का शहर है. चौड़ी सड़कों और हरियाली से सजा हुआ, आराम करता ख़ूबसूरत शहर, जिसकी हवा में गुनगुनाहट, फ़िज़ा में सुकून और मिज़ाज में अपना बना लेने की ख़ुसूसियत है. और पुराना भोपाल तो जैसे दिल है इसका. ख़ूब हलचल वाला इलाक़ा, सिर से सिर जोड़कर खड़ी दुकानें, जिनमें हर वो सामान मौजूद कि शहर को जिसकी ज़रूरत हो और ज़ायके के बेशुमार ठिकाने. आधी रात के देर बाद तक जगमगाती चटोरी गली को देखना भी.. उफ्फ, कितना दिलकश हुआ करता था.

लेकिन, इन दिनों के सूरते हाल का तो अंदाज़ा भर लगाया जा सकता है. उधर रहने वाली एक दोस्त ने फ़ोन पर बताया कि एक बेहद दुबला-पतला आदमी बहुत तेज़ी से दौड़ता हुआ उसकी गली से गुज़रा है, जो ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता जा रहा था कि मैंने तीन दिनो से खाना नहीं खाया..कोई खाना दे दो, कोई खाना दे दो. वह फ़ोन पर जाने क्या-क्या बता रही थी मगर मेरे कानों में एक क़ातर सा स्वर लगातार गूंज रहा था – भूखा हूं, कोई खाना दे दो. मैं उससे पूछना चाहती थी कि उस शख़्स का क्या हुआ? क्या किसी ने उसे खाना दिया? मगर मेरे मुंह से कोई आवाज़ नहीं निकली. बहुत मनहूसियत और उदासी और कुछ न कर पाने के अपराधबोध को अपने दिल में दबा कर सोने चली गई, हालांकि नींद एक मिनट के लिए भी पास नहीं फटकी.

सुबह जब अख़बार से पता चला कि लॉक डाउन की वजह से किसानों का मंडियों में जाना भी कमोबेश बंद है. सब्ज़ी-अनाज सब खेतों से घरों तक ही रह गए. और एक ख़बर यह भी मिली कि फूलों से लहलहाते खेतों में किसानों ने ख़ुद ट्रेक्टर चला दिए. सोचती रही कि कितनी गहरी वेदना से गुज़रना पड़ा होगा उन लोगों को, जिन्होंने कितने ही दिनों की मेहनत करके फूल उगाए होंगे. मगर ऐसे हाल में उन फूलों का वे करेंगे भी क्या? पुष्प की अभिलाषा में ये कब लिखा गया था कि – चाह नहीं कि ट्रैक्टर के नीचे कुचला जाऊं.

क़ुदरत ने किसान को उसकी मेहनत का फल देने में तो कंजूसी नहीं की थी. मगर ख़बरें हैं कि भोपाल में सीहोर के पास के गांव के किसानों ने अपने फले-फूले सब्जियों के खेतों पर ट्रैक्टर चला दिए. लोगों में बांटने के बाद भी सड़कों पर और खेतों में टमाटर सड़ रहे थे, सब्जियां सड़ रही थी, जानवर भी उसे नहीं खा रहे थे. जगह-जगह सड़कों और खेतों में सड़ी सब्जियों के ढेर लग गए हैं.

एक तरफ भूख से तिलमिलाते, दम तोड़ने के हाल में पहुंच गए ग़रीब और असहाय लोगों की भीड़ है और दूसरी तरफ़ अन्नदाता किसान और उनकी ख़राब होती फसलें. इन सबसे निरपेक्ष एक और तबका है जो सुविधाओं से लैस है, जमाखोरी करने में आगे है, जो कभी थाली बजाता है तो कभी दीया जलाता है. भूखे ग़रीबों के घरों में बर्तन बिना भोजन के खड़खड़ा रहे हैं और भूख की आग पेट जला रही है.

और सरकार का आग्रह है कि संकट की घड़ी में साथ दीजिए. भूखे पेट कब तक और कैसे साथ दे सकेंगे लोग?

मुझे परसाई जी की याद आ रही है,”सरकार कहती है, कि हमने चूहे पकड़ने के लिए चूहेदानियां लगा रखी हैं. एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की. उस में घुसने के छेद से बड़ा छेद पीछे से निकलने के लिए है. चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है. पिंजरे बनाने वाले और चूहे पकड़ने वाले चूहों से मिले हैं. वे इधर हमें पिंजरा दिखाते हैं और उधर चूहे को खेत दिखा रहे हैं. हमारे माथे पर से चूहेदानी का ख़र्च चढ़ रहा है.”

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