इप्टा | ज़रूरत तो अब भी है, वो लोग ही नहीं रहे

  • 10:12 am
  • 25 May 2020

‘‘लेखक और कलाकार आओ, अभिनेता और नाटककार आओ, हाथ से और दिमाग़ से काम करने वाले आओ और स्वंय को आज़ादी और सामाजिक न्याय की नयी दुनिया के निर्माण के लिये समर्पित कर दो.’’ आज से 77 साल पहले 25 मई, 1943 को मुंबई के मारवाड़ी हाल में प्रो. हीरेन मुखर्जी ने इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोशिएसन यानी ‘इप्टा’ की स्थापना के मौक़े पर, इस आयोजन की अध्यक्षता करते हुए, जब संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों से ये क्रांतिकारी आह्वान किया था, तब उन्होंने भी यह नहीं सोचा होगा कि आगे चलकर ‘इप्टा’ देश में ऐसा सांस्कृतिक पुनर्जागरण करेगा, जिससे न सिर्फ़ कला और संस्कृति में नए आयाम जुड़ेंगे, बल्कि बड़े पैमाने पर अवाम को आज़ादी के लिए जागृत करेगा. ये वक्त का तकाज़ा था या फिर ‘इप्टा’ का करिश्मा कि कला, काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक नाट्यरूप आदि से जुड़े हुए हजारों लेखक, कलाकार, संस्कृतिकर्मी और बुद्धिजीवी इसकी ओर खिचे चले आए. और इन्होंने ‘इप्टा’ के मार्फ़त हिन्दोस्तानी तहजीब में नए रंग भरे. उसका आकाश सतरंगी किया. मुल्क की आज़ादी के लिए अनथक कोशिशें कीं. संगठन की मकबूलियत कुछ इस क़दर बढ़ी कि मुल्क के कोने-कोने में इसके हमसफ़र और हिमायती हो गए. एक वक्त ऐसा भी आया, जब मुल्क के 22 राज्यों में तक़रीबन 12 हज़ार से ज्यादा कलाकार ‘इप्टा’ से सक्रिय तौर पर जुड़े हुए थे और अपने कामों से जनचेतना फैला रहे थे. सचमुच वह ‘इप्टा’ का सुनहरा दौर था.

उस दौर में ‘इप्टा’ ऐसी संस्था बनी, जो सीधे अवाम से जुड़ी और अवाम को भी अपने साथ जोड़ा. बंगाल का अकाल हो, या जापान का साम्राज्यवादी हमला या फिर आज़ादी की जद्दोजहद, ‘इप्टा’ ने अपने जन गीतों और नाटकों को देशवासियों की आवाज़ बनाया. ‘इप्टा’ के गठन की पृष्ठभूमि में जाएं, तो इसके पीछे देश में घटा एक बड़ा वाकिया है. साल 1943 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा. इस अकाल में तकरीबन तीस लाख लोग मारे गए. वह तब, जब देश में अनाज की कोई कमी नहीं थी. ऐसे अमानवीय और संवेदनहीन हालात में बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए राहत जुटाने के वास्ते लोग ख़ुद आगे आए और उन्होंने ‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ बनाया. इस सांस्कृतिक दल ने बंगाल में घूम-घूमकर अपने नाटक ‘ज़बानबंदी’ और ‘नबान्न’ के ज़रिए अकाल पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा किया.

‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ के इन नाटकों की लोकप्रियता ही ‘इप्टा’ की स्थापना की प्रेरणा बनी. कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े बुद्धिजीवियों और तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े लेखक-कलाकारों ने सोचा कि यूरोप के ‘यूनिटी थिएटर’, अमेरिका के ‘रिवोल्यूशनरी थिएटर’ और चीन के ‘पीपुल्स थिएटर’ की तर्ज पर हिन्दुस्तान में भी एक पीपुल्स थिएटर यानी अवामी थिएटर का गठन किया जाए. ये थिएटर देश भर में न सिर्फ़ आज़ादी की अलख जगाए, बल्कि सामाजिक बुराइयों, अशिक्षा और अंधविश्वास से भी लोहा ले. देशवासियों में एकता का पैग़ाम पहुंचाए. इस थिएटर को आकार देने काम श्रीलंका मूल की अनिल डि सिल्वा ने शुरू किया. उनकी कोशिशों का ही नतीजा था कि बहुत से हमख़्याल लोग एक साथ आते चले गए और बंबई में बाकायदा ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ बन गया. ‘इप्टा’ का नामकरण वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया, तो ‘इप्टा’ का प्रतीक चिन्ह ‘कॉल आफ द ड्रम्स’ चित्तप्रसाद ने बनाया. संगठन का नारा बना, ‘‘इप्टा’ की नायक जनता है.’ बंबई में ‘इप्टा’ का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ, ट्रेड यूनियन लीडर एन. एम. जोशी अध्यक्ष और महासचिव अनिल डि सिल्वा चुनी गईं. इस मौक़े पर पारित प्रस्ताव, जो ‘इप्टा’ का घोषणा-पत्र है, में कहा गया कि ‘‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के तत्वावधान में आयोजित यह सम्मेलन रंगमंच और परंपरागत कलाओं को पुनर्जीवित करने और साथ ही उन्हें स्वतंत्रता, सांस्कृतिक प्रगति और आर्थिक न्याय के लिए लोगों के संघर्ष को अभिव्यक्ति और संगठन का माध्यम बनाने और पूरे भारत में जन थिएटर आंदोलन शुरू करने की तत्काल आवश्यकता को स्वीकार करता है.’’ इतिहास गवाह है, आगे चलकर ‘इप्टा’ अपने इस एलान पर पूरी तरह से खरा उतरा. ‘इप्टा’ एक ऐसा अज़ीम आंदोलन बना, जिसने पूरे मुल्क में न सिर्फ़ लोक कलाओं की परिवर्तनकारी ताक़त को पहचाना बल्कि मेहनतकश अवाम को भी इससे जोड़ा.

‘इप्टा’ ने अवाम को जागरूक करने के लिए लोक कलाओं का इस्तेमाल किस तरह किया, यह समझने के लिए ‘पीपुल्स वार’ में 21 जनवरी 1945 को छपे लेख का यह अंश देखिए, ‘‘केरल के कय्यूर शहीदों की कथा को लोकप्रिय बनाने के लिए ‘इप्टा’ के कलाकार दयाल कुमार ने ‘पांचाली’ रूप का प्रयोग और दुलाल रॉय ने लेनिनग्राद की रक्षा का जोशीला विवरण देने के लिए ‘कीर्तन’ को अंगीकार किया. एक मौखिक साक्षात्कार में दुलाल रॉय ने ज़ोर देकर कहा कि उन्होंने ‘तर्जा’ रूप के साथ प्रयोग किया और अपने नए संदेश के अनुकूल मुकंददास के ‘स्वदेशी जात्रा’ और नजरुल के गीतों से धुनों का समावेश किया. आंध्र में ‘बुर्रकथा’ का नए ढंग से प्रयोग हुआ. अन्नाभाऊ साठे और गावंकर जैसे प्रतिभावान कलाकारों सहित बंबई दल ने ‘तमाशा’ और ‘पवाडा’ रूपों को नया जीवन दिया और बंबई मजदूरों तथा ग्रामीण इलाकों में ये प्रयोग किए. उन्होंने भारी संख्या में दर्शकों को आकर्षित किया.’’ आगे चलकर इन नाटकों में ‘कोलट्टम’ (छड़ी नृत्य), ‘जरी नृत्य’, ‘बाउल’, ‘लंबाड़ी नृत्य’, ‘गजन’, ‘रामलीला’ जैसी लोककलाओं का भी सफलतापूर्वक इस्तेमाल हुआ.

‘इप्टा’ की तत्कालीन गतिविधियों का केंद्र बंबई था, लेकिन बंगाल, असम, पंजाब, दिल्ली, संयुक्त प्रांत, मालाबार, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु में भी प्रांतीय समितियां बनी. ‘रौशनाई’ में सज्जाद जहीर लिखते हैं, ‘‘देश के विभिन्न हिस्सों में पीपुल्स थिएटर की सफल स्थापना हमारे सांस्कृतिक विकास के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी. इसके कार्यकर्ता अक्सर वे नौजवान लड़के और लड़कियां थीं, जो राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे और जिनमें से अधिकांश देश के जनतांत्रिक आंदोलनों से जुड़े हुए थे. इनके व्यक्तित्व और अवामी थिएटर में कला, राजनीति और संस्कृति का भेदभाव नहीं होता था. इनका सारा जीवन वतनी आज़ादी और जनवाद की जीत के प्रयासों के लिए समर्पित था. इसलिए इनकी कला जाने-अनजाने उसी महान राष्ट्रीय अभियान और संघर्ष का एक हिस्सा और पहलू थी.’’ ‘बंगाल कल्चरल स्क्वॉड’ की प्रस्तुतियों और कार्यशैली से प्रभावित होकर बिनय राय के नेतृत्व में ‘इप्टा’ के सबसे सक्रिय समूह ‘सेंट्रल ट्रूप’ का जुलाई, 1944 में गठन हुआ, जिसमें पूर्णकालिक कार्यकर्ता शामिल थे. ‘इप्टा’ के इस सेंट्रल स्क्वॉड यानी केन्द्रीय दल में अबनी दासगुप्ता, शांति बर्धन, प्रेम धवन, पंडित रविशंकर, मराठी के मशहूर गायक अमर शेख़, ख्वाजा अहमद अब्बास के अलावा देश से विविध कार्य क्षेत्र से संबंधित सदस्य एक साथ रहते. इनके साहचर्य ने ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’, ‘इंडिया इम्मॉर्टल’, ‘कश्मीर’ जैसी लाजवाब पेशकश संभव हुईं. ‘स्प्रिट ऑफ इंडिया’ के बारे में केन्द्रीय दल की पहली स्मारिका में ज़िक्र मिलता है कि ‘‘वह सिर्फ नृत्य नाटक नहीं बल्कि देशभक्ति पूर्ण शानदार प्रदर्शन था. इसमें साम्राज्यवाद, सामंतवाद और नवसाम्राज्यवादी पूंजीवाद के तिहरे अभिशाप के अधीन लोगों की दुर्दशा को दर्शाया गया था और उसका समापन लोगों की एकता से उत्पन्न आशा की भावना के साथ होता था.’’

साल 1943-44 के दरमियान ही ‘इप्टा’ की बंगाल शाखा ने ‘बंगाल स्क्वॉड’ तैयार किया. इस दल ने पंजाब, मुंबई, महाराष्ट्र और गुजरात में घूम-घूम कर अपने कार्यक्रमों के ज़रिए बंगाल के अकाल पीड़ितों के लिए लाखों रुपये का चंदा इकट्ठा किया. इस दल की सर्वाधिक लोकप्रिय प्रस्तुति विनय रॉय की संक्षिप्त नाटिका ‘मैं भूखा हूं’ और उषा दत्त का ‘हंगर डांस’ था. इसके अलावा वामिक़ जौनपुरी की नज़्म ‘भूका बंगाल’ ने लोगों के दिलों पर इतना गहरा किया कि यह जैसे बंगाल के अकाल पीड़ितों की आवाज़ बन गई. सज्जाद जहीर ने लिखा है, ‘‘तरक्कीपसंद अदब की तारीख़ में वामिक़ का यह तराना सही मायने में सोने के हरूफ से लिखे जाने लायक़ है. वह वक्त की आवाज़ थी. वह हमारी इंसान दोस्ती की भावना को सीधे-सीधे उभारता था.’’ ‘इप्टा’ के ‘बंगाल स्क्वॉड’ और ‘सेंट्रल स्क्वॉड’ दल के कार्यक्रमों ने बंगाल के अकाल के प्रति देश के दूसरे हिस्सों में बंधुत्व का भाव पैदा किया. किसानों, मजदूरों और मध्यम वर्ग को तकलीफ़ झेल रही बंगाल की जनता से जोड़ा. मेहनतकशों, कामगारों पर आई किसी मुसीबत के मौक़े पर वह उनकी आवाज़ बनता, गीतों-नाटकों के जरिए एकता का पैगाम देकर, उन्हें संघर्ष के लिए खड़ा करता.

‘इप्टा’ के इंकलाबी आंदोलन ने रंगमंच के क्षेत्र में भी युगांतकारी परिवर्तन किए. जो नाटक, गीत, संगीत ऑडिटोरियम की दीवारों के भीतर सीमित था, उसे वह लोगों के बीच बाहर लेकर आया. गलियों में, सड़कों पर, खेतों में, कारखानों पर हर जगह नाटक खेले जाने लगे. कला, अब कला के लिए नहीं, ज़िंदगी के लिए थी. इंसानियत को बचाने के लिए थी. एक अहम बात और, इस सांस्कृतिक आंदोलन से पहले लोकगीतों को छोड़कर भारतीय संगीत में कोरस यानी सामूहिक गान की अहमियत नहीं थी, पर ‘इप्टा’ ने समूह गान को मुख्य धारा के संगीत का अहम हिस्सा बनाया. ‘इप्टा’ के गीतों की ख़ासियत यही थी कि वे जोशीले थे, लोगों को आंदोलित करते थे. फ़ैज अहमद फैज़, साहिर लुधियानवी, मख्दूम, शैलेंद्र, कैफी आज़मी जैसे शायर जो कुछ लिखते, वह नारे बन जाते. ‘इप्टा’ के ऐसे कई जनगीत और नज़्में हैं, जो आज भी मजदूरों-किसानों के बीच जोश से गाई जाती हैं.

कथ्य, कहानी और विचार के स्तर पर ही नहीं ‘इप्टा’ के ’नबान्न’, ‘ज़बानबंदी’, ‘रामलीला’, ’ये किसका ख़ून है’, ‘यह है अमृता’, ‘पर्दे के पीछे’, ‘परछाइयां’, ‘हरी चूड़ियां’, ‘भूत गाड़ी’ और ’ज़ुबैदा’ जैसे नाटकों ने सेट डिज़ाइन, अभिनय औऱ प्रस्तुति के स्तर पर भी भारतीय रंगमंच की तस्वीर को पूरी तरह से बदल दिया. ‘इप्टा’ ने देश में यथार्थवादी नाटकों की नींव रखी. नाटक के केन्द्र में आम आदमी आया. नाटक जनता और उसकी समस्याओं पर लिखे जाने लगे. ‘इप्टा’ के नाटकों की एक लंबी फेहरिस्त है, जो अपने शानदार कथ्य और ट्रीटमेंट की बदौलत आज भी ख़ूब पसंद किए जाते हैं.

‘इप्टा’ ने भारतीय सिनेमा पर भी गहरा असर छोड़ा. ‘इप्टा’ से निकले कलाकारों, गीतकारों और निर्देशकों का ही असर था कि फ़िल्मों में यथार्थवाद ने दस्तक दी. ‘इप्टा’ ने एक फ़िल्म ‘धरती के लाल’ बनाई भी, जो बलराज साहनी की पहली फ़िल्म थी. और बंगाली नाटक ‘नबान्न’ और ‘ज़बानबंदी’ पर आधारित थी. फ़िल्म के निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास थे, गीत अली सरदार जाफ़री और प्रेम धवन ने लिखे और पंडित रविशंकर ने इसका संगीत तैयार किया था. व्यावसायिक तौर पर भले ही कामयाब नहीं हुई, लेकिन इस फ़िल्म ने भारतीय सिनेमा की एक नई धारा को जन्म दिया. ‘नीचा नगर’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘पाथेर पांचाली’, ‘दो आंखें, बारह हाथ’, ‘नया दौर’, ‘आवारा’ इस धारा की प्रमुख फिल्में हैं. ‘इप्टा’ ने अपने नाटकों में हमारी आधी आबादी महिलाओं को हमेशा तवज्जोह दी. उनकी समस्याओं को नाटकों का मुख्य विषय बनाया. उन्हें एक आवाज दी. साथ ही महिलाओं को नाटकों से जोड़ा भी. दीना गांधी, ज़ोहरा सहगल, तृप्ति मित्रा, गुल बर्धन. दीना पाठक, शीला भाटिया, शांता गांधी, रेखा जैन, रेवा रॉय चौधरी, रूबी दत्त, दमयंती साहनी, ऊषा दत्त, क़ुदसिया ज़ैदी, रशीद जहां, गौरी दत्त, प्रीति सरकार, नूर धवन ने ‘इप्टा’ में मिली अलग-अलग ज़िम्मेदारी निभाई. अभिनय, गायन, नृत्य, निर्देशन से लेकर उन्होंने नाटक तक लिखे.

ऐसा नहीं कि ‘इप्टा’ को यह सब करने के लिए मुल्क में हमेशा ख़ुशगवार माहौल मिला, आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भी उसे सरकारी दमन, पाबंदियों का सामना करना पड़ा. कई जगहों पर उसके गीतों, नाटकों और कार्यक्रमों पर पाबंदी लगी. अंग्रेजी हुकूमत के साथ-साथ संकीर्णतावादियों ने भी ‘इप्टा’ के नाटकों का विरोध किया. नाटक खेलने में कई तरह की अड़चनें पैदा कीं. नाटक की वजह से कुछ साथियों को जेल हुई, तो कुछ मारे भी गए. ‘इप्टा’ का नाट्यकर्म मगर जारी रहा. सामाजिक, सांस्कृतिक जागरण का उसका उद्देश्य और मनुष्य की वास्तविक आज़ादी, वर्गविहीन समाज और सामाजिक न्याय का उसका लक्ष्य बरकरार है. आज़ादी के पहले ‘इप्टा’ के सामने जो चुनौतियां थीं, आज उस तरह की कोई चुनौती नहीं, लेकिन जो चुनौतियां हैं, वह भी कम नहीं. ‘इप्टा’ के सामने सबसे बड़ी चुनौती सांगठनिक तौर पर मजबूत होना है. संगठन के स्तर पर इसमें बहुत बड़ा बिखराव आया है. नए कलाकार, लेखक, निर्देशक इससे जुड़ नहीं रहे और जो जुड़ते हैं, उनमें वह वैचारिकता नहीं. नई इकाईयां बन नहीं रही और जो हैं, वे काम नहीं कर रहीं. कभी अच्छी स्क्रिप्ट, कलाकार तो कभी फंड के अभाव में नाटक नहीं हो पाते. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आए दिन जिस तरह हमले होते रहते हैं, उसने नाट्यकर्म को और भी ज्यादा मुश्किल बना दिया है.


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