बग़ैर उनवान के | नेहरू के नाम मंटो का ख़त
सआदत हसन मंटो का एक उपन्यास है – बग़ैर उनवान के. इस उपन्यास की भूमिका पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाम मंटो का एक ख़त है. यों इस ख़त का उपन्यास से कोई रिश्ता नहीं है, मगर उस दौर के सियासी और समाजी हालात के बारे में मंटो का नज़रिया, साथ ही तब के लेखकों के लिखने के ढंग का भी अंदाज़ लगता है. नेहरू को यह ख़त मिला, उन्होंने इसका कोई जवाब लिखा, इसका कोई दस्तावेज़ नहीं मिलता. अलबत्ता उर्दू मेें लिखे गए इस ख़त के अंग्रेज़ी और हिन्दी में कई अनुवाद हुए हैं. इसी तरह ‘चचा सैम को ख़त’ की शक़्ल में व्यंग्य की उनकी पूरी श्रंखला है.
पंडित जी,
अस्सलाम अलैकुम.
यह मेरा पहला ख़त है जो मैं आपको भेज रहा हूँ. आप माशा अल्लाह अमरीकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं. लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं. अगर मैं अमरीका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्न का रुतबा अता हो जाए. लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्तान का मशहूर अफ़सानानिगार. इन दोनों के बीच बड़ा फ़ासिला है. बहरहाल हम दोनों में एक चीज़ साझा है कि आप कश्मीरी हैं और मैं भी. आप नेहरू हैं, मैं मंटो… कश्मीरी होने का दूसरा मतलब ख़ूबसूरती और ख़ूबसूरती का मतलब… मैं नहीं जानता.
मुद्दत से मेरी ख़्वाहिश है कि मैं आपसे मिलूँ (बशर्ते इस ज़िंदगी में मुलाक़ात हो जाए). मेरे बुज़ुर्ग तो आपके बुज़ुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाक़ात हो सके. यह कैसी ट्रेजडी है कि मैंने आपको देखा तक नहीं. आवाज़ रेडियो पर अलबत्ता ज़रूर सुनी है, वह भी एक बार.
जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि मुद्दत से मेरी ख़्वाहिश रही है कि आपसे मिलूँ, इसलिए कि आपसे मेरा कश्मीर का रिश्ता है, लेकिन अब सोचता हूँ इसकी ज़रूरत ही क्या है? कश्मीरी किसी न किसी रास्ते से, किसी न किसी चौराहे पर दूसरे कश्मीरी से मिल ही लेता है.
आप किसी नहर के क़रीब आबाद हुए और नेहरू हो गये और मैं अब तक सोचता हूँ कि मंटो कैसे हो गया? आपने तो ख़ैर लाखों बार कश्मीर देखा होगा. मुझे सिर्फ बानिहाल तक जाना नसीब हुआ है. मेरे कश्मीरी दोस्त जो कश्मीरी ज़बान जानते हैं, मुझे बताते हैं कि मंटो का मतलब ‘मंट’ से है यानी डेढ़ सेर का बट्टा. आप यक़ीनन कश्मीरी ज़बान जानते होंगे. इसका जवाब लिखने की अगर आप ज़हमत फरमाएँगे तो मुझे ज़रूर लिखिए कि ‘मंटो’ नामकरण की वजह क्या है?
अगर मैं सिर्फ डेढ़ सेर हूँ तो मेरा आपका मुक़ाबला नहीं. आप पूरी नहर हैं और मैं सिर्फ़ डेढ़ सेर. आपसे मैं कैसे टक्कर ले सकता हूँ? लेकिन हम दोनों ऐसी बंदूकें हैं जो कश्मीरियों के बारे में प्रचलित कहावत के अनुसार ‘धूप में ठस करती हैं…’
मुआफ़ कीजिएगा, आप इसका बुरा न मानिएगा. मैंने भी यह फ़र्जी कहावत सुनी तो कश्मीरी होने की वजह से मेरे तन-बदन में आग लग गई. मगर चूँकि यह दिलचस्प है, इसलिए मैंने इसका ज़िक्र तफ़रीह के लिए कर दिया है. हालाँकि मैं आप दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि हम कश्मीरी किसी मैदान में आज तक नहीं हारे.
राजनीति में आपका नाम मैं बड़े गर्व के साथ ले सकता हूँ क्योंकि बात कह कर फ़ौरन खंडन करना आप ख़ूब जानते हैं. पहलवानी में हम कश्मीरियों को आज तक किसने हराया है, शाइरी में हमसे कौन बाज़ी ले सका है. लेकिन मुझे यह सुनकर हैरत हुई है कि आप हमारा दरिया बंद कर रहे हैं. लेकिन पंडित जी, आप तो सिर्फ नेहरू हैं. अफ़सोस कि मैं डेढ़ सेर का बट्टा हूँ. अगर मैं तीस-चालीस हजार मन का पत्थर होता तो खुद को इस दरिया में लुढ़का देता कि इसे निकालने के लिए आपको कुछ देर तक अपने इंजीनियरों से मशविरा करने की ज़रूरत पड़ती.
पंडित जी, इसमें कोई शक नहीं कि आप बहुत बड़े आदमी हैं, आप भारत के प्रधान मंत्री हैं. उस मुल्क पर, जिससे हमारा संबंध रहा है, आपकी हुक्मरानी है. आप सब कुछ हैं लेकिन गुस्त़ाखी मुआफ़ कि आपने इस ख़ाकसार (जो कश्मीरी है) की किसी बात की परवाह नहीं की.
देखिए, मैं आपसे एक दिलचस्प बात का जिक्र करता हूँ. मेरे वालिद साहब (स्वर्गीय), जो ज़ाहिर है कि कश्मीरी थे, जब किसी हातो को देखते तो घर ले आते, ड्योढ़ी में बिठाकर उसे नमकीन चाय पिलाते. साथ कुलचा भी होता. इसके बाद वे बड़े गर्व से उस हातो से कहते, “मैं भी काशर हूँ.”
पंडित जी, आप काशर हैं… ख़ुदा की क़सम अगर आप मेरी जान लेना चाहें तो हर वक़्त हाज़िर हैं. मैं जानता हूँ बल्कि समझता हूँ कि आप सिर्फ इसलिए कश्मीर के साथ चिमटे हुए हैं कि आपको कश्मीरी होने के कारण कश्मीर से चुंबकीय क़िस्म का प्यार है. यह हर कश्मीरी को चाहे उसने कश्मीर कभी देखा भी हो या न देखा हो, होना चाहिए.
जैसा कि मैं इस ख़त में पहले लिख चुका हूँ. मैं सिर्फ बानिहाल तक गया हूँ. कद, बटौत, किश्तबार ये सब इलाके़े मैंने देखे हैं लेकिन हुस्न के साथ मैंने दरिद्रता भी देखी. अगर आपने दरिद्रता दूर कर दी है तो कश्मीर अपने पास रखिए. मगर मुझे यक़ीन है कि कश्मीरी होने के बावजूद आप उसे दूर नहीं कर सकते, इसलिए कि आपको इतनी फ़ुरसत ही नहीं.
आप ऐसा क्यों नहीं करते… मैं आपका पंडित भाई हूँ, मुझे बुला लीजिए. मैं पहले आपके घर शलजम की शबदेग खाऊँगा. इसके बाद कश्मीर का सारा काम सम्हाल लूँगा. ये बख्शी वगैरह अब बख्श देने के क़ाबिल है… अव्वल दर्जे के चार सौ बीस हैं. इन्हें आपने ख्वाहमख्वाह अपनी ज़रूरतों के मुताबिक आला रुतबा बख्श रखा है… आखिर क्यों? मैं समझता हूँ कि आप राजनेता हैं जो कि मैं नहीं हूँ. लेकिन यह मतलब नहीं कि मैं कोई बात समझ न सकता.
आप अंग्रेजी ज़बान के लेखक हैं. मैं भी यहाँ उर्दू में कहानियाँ लिखता हूँ… उस ज़बान में जिसको आपके हिंदुस्तान में मिटाने की कोशिश की जा रही है. पंडित जी, मैं आपके बयान पढ़ता रहता हूँ. इनसे मैंने यह नतीजा निकाला है कि आपको उर्दू से प्यार है. लेकिन मैंने आपकी एक तक़रीर रेडियो पर, जब हिंदुस्तान के दो टुकड़े हुए थे, सुनी… आपकी अंग्रेजी के तो सब कायल हैं लेकिन जब आपने नाम निहाद उर्दू में बोलना शुरू किया तो ऐसा मालूम होता था कि आपकी अंग्रेज़ी तकरीर का तर्जुमा किसी ने ऐसा किया है, जिसे पढ़ते वक्त आपकी ज़बान का ज़ायका दुरुस्त नहीं था. आप हर फिक़रे पर अटके जा रहे थे.
मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ऐसी तहरीर पढ़ना क़ुबूल कैसे किया… यह उस ज़माने की बात है जब रेडक्लिफ़ ने हिंदुस्तान की डबल रोटी के दो तोश बना कर रख दिए थे लेकिन अफ़सोस है अभी तक वे सेंके नहीं गए. उधर आप सेंक रहे हैं और इधर हम. लेकिन आग आपकी-हमारी अंगीठियों में से बाहर से आ रही है.
पंडित जी, आजकल बगूगोशों का मौसम है… गोशे तो ख़ैर मैंने बेशुमार देखे हैं लेकिन बगूगोशे खाने को जी बहुत चाहता है. यह आपने क्या जुल्म किया कि बख्शी को सारा हक बख्श दिया कि वह बख्शीश में भी मुझे थोड़े से बगूगोशे नहीं भेजता.
बख्शी जाए जहन्नुम में और बगू गोशे… नहीं, वे जहाँ हैं सलामत रहें. मुझे दरअसल आपसे कहना यह था, आप मेरी किताबें क्यों नहीं पढ़ते? आपने अगर पढ़ी हैं तो मुझे अफ़सोस है कि आपने दाद नहीं दी. और अगर नहीं पढ़ी हैं तो और भी ज्यादा अफ़सोस का मुक़ाम है, इसलिए कि आप एक लेखक हैं.
अश्लील लेखन के आरोप में मुझ पर कई मुकदमे चल चुके हैं मगर यह कितनी बड़ी ज्यादती है कि दिल्ली में, आपकी नाक के ऐन नीचे वहाँ का एक पब्लिशर मेरी कहानियों का संग्रह ‘मंटो के फोह्श अफ़साने’ के नाम से छाप देता है. मैंने किताब लिखी – ‘गंजे फ़रिश्ते’ और हिन्दुस्तानी पब्लिशर ने उसे ‘पर्द के पीछे’ नाम देकर छाप लिया. आप ही बताएं कि मैं क्या करूं?
मैंने किताब लिखी है. इसकी भूमिका यही ख़त है जो मैंने आपके नाम लिखा है… अगर यह किताब भी आपके यहाँ नाजायज तौर पर छप गई तो ख़ुदा की क़सम मैं किसी न किसी तरह दिल्ली पहुँच कर आपको पकड़ लूँगा. फिर छोड़ूँगा नहीं आपको… आपके साथ ऐसा चिमटूँगा कि आप सारी उम्र याद रखेंगे. हर रोज सुबह को आपसे कहूँगा कि नमकीन चाय पिलाएँ. साथ में कुलचा भी हो. शलजमों की शबदेग तो खैर हर हफ़्ते के बाद ज़रूर होगी.
यह किताब छप जाए तो मैं इसकी प्रति आपको भेजूँगा. उम्मीद है कि आप मुझे इसकी प्राप्ति सूचना ज़रूर देंगे और मेरी तहरीर के बारे में अपनी राय से ज़रूर आगाह करेंगे.
आपको मेरे इस ख़त से जले हुए गोश्त की बू आएगी… आपको मालूम है, हमारे वतन कश्मीर में एक शाइर ‘गनी’ रहता था जो गनी कश्मीरी के नाम से मशहूर है. उसके पास ईरान से एक शाइर आया. उसके घर के दरवाज़े खुले थे, इसलिए कि वह घर में नहीं था. वह लोगों से कहा करता था कि मेरे घर में क्या है जो मैं दरवाज़े बंद रखूँ? अलबत्ता जब मैं घर में होता हूँ, दरवाज़े बंद कर देता हूँ. इसलिए कि मैं ही तो इसकी इकलौती दौलत हूँ. ईरानी शाइर उसके सूने घर में अपनी बयाज छोड़ गया. इसमें एक शेर नामुक़म्मल था. मिसरा सानी हो गया था, मगर मिसरा ऊला उस शाइर से नहीं कहा गया था. मिसरा सानी यह था :
कि अज लिबास तो बू-ए-कबाब भी आयद
जब वह ईरानी शाइर कुछ देर के बाद वापस आया, उसने अपनी बयाज देखी. मिसरा ऊला मौजूद था :
कदाम सोख्ता जाँ दस्त जो बदामानत
पंडित जी, मैं भी एक सोख्ताजाँ (दग्ध-हृदय) हूँ. मैंने आपके दामन पर अपना हाथ दिया है, इसलिए कि मैं यह किताब आपको समर्पित कर रहा हूँ.
27 अगस्त, 1954
सआदत हसन मंटो
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