सारा मलिक की डायरी | पहला रोज़ा

  • 3:25 pm
  • 3 May 2020

इबादत करना फ़र्ज़ है, और हक भी.

रमज़ान का महीना रोज़े और इबादत का महीना, बरकतों वाला महीना है. अल्लाह ख़ैर करे, इस साल हालात मुख्तलिफ़ हैं. दुनिया में वबा फैली है. मुल्क भी उसी की चपेट में है. ऐसे में हुकूमत ने एहतियात के तौर पर तालाबंदी कर दी है. पिछले लगभग एक महीने से हम सब तालाबंदी में जीने की आदत डाल रहे थे कि रमज़ान आ गए. इस बार बहुत सन्नाटा है, घबराहट है, मन भारी है, बस ऊपर वाला सुन ले, और निजात दे दे,  ज़िंदगी अपने मामूल पर वापस लौट आए.

आज पहला रोज़ा है तो मैँने सोचा अपनी फूफी के घर जाकर साथ में रोज़ा खोलूं. काफी दिन से बुला रही थीं, लॉकडाउन की वजह से जा नहीं पा रही थी. जाने का इरादा कई बार किया लेकिन हिम्मत न हुई. वीरान रास्ते चारो ओर पसरा सन्नाटा देख खौफ़ लगता है आजकल, और फिर नाहक घर से क्यों निकला जाए, यह सवाल भी वाजिब सा है. ख़ैर फूफी के पैर में चोट लग गई है सो देखने जाना तो बनता है. बचपन में कितनी बार मेरी चोटों पर उन्होंने मरहम लगाया होगा,  मुझे तो याद भी नहीं. रिश्ते ऐसे ही तो होते हैँ. तमाम बातें तो याद भी नहीं रहती, और तमाम बातें याद रखनी भी नहीं चाहिए, रिश्ते मज़बूत रहते हैँ. कुछ ख़ून के रिश्ते होते हैँ, कुछ इंसान समाज में रहते हुए बनाता है. यक़ीन जानिए, बड़ा अच्छा लगता है जब कोई आपका ख़्याल करे.

मेरी फूफी घर राबिया नाम की औरत घरेलू काम करने के लिए आती है. ग़रीब लोग हैं, फूफी उनका ख़्याल करती हैं. राबिया की एक किडनी ख़राब है और कोरोना वायरस की दहशत इतनी ज़्यादा है कि लोग काम नहीं ले रहे हैं. बेचारी काफी परेशान हैं तो फूफी से उसकी जो मदद हो सकती है, कर देती हैं.

उसकी एक बेटी है – जमालो. होगी कोई सात-आठ बरस की दुबली-पतली, देखने से कुपोषित, कमज़ोर सी, पर हिम्मती और अपनी मां की हिमायती, आंखों में चमक  कि “हार नहीं मानेंगे, रार नई ठानेंगे”. रोज़ की ज़िंदगी के मामूल से लड़ती हुई, आगे बढ़ती हुई.

मुझसे बोली – अप्पी, आप जल्दी कैसे आईं?  मैँने कहा, स्कूटी से. वो बोली, वो पैदल आती है, तभी उसको आने-जाने में देर लगती है, सवाल भी ख़ुद किया, और जवाब भी ख़ुद ही. पर उसके जवाब ने मेरे लिए कई सवाल छोड़ दिए, और मैं सोचने लगी उसकी तरह, जो मैं कभी न सोच पाती, अगर उससे न मिली होती तो. समाज के हर तबके के सवाल और उनकी अहमियत कितनी अलग होती है, और एक तबके का दूसरे तबके की परेशानी से कोई सरोकार नहीं रह गया है.  इंसानियत मर रही है.

ख़ैर, रोज़ा खोलने बैठे तो वो बोली, अपने इफ़्तारी की प्लेट घर से ले आऊं. मैंने पूछ लिया – तो पीने के लिए शर्बत बना दूं! वो बोली शर्बत नहीं, कोल्ड्रिंक पसंद है. फूफी ने पैसे दिए कि अपनी पसंद की कोल्ड ड्रिंक ले आओ, जल्दी आना. थोड़ी देर बाद आई तो कोल्ड ड्रिंक नहीं लाई. पूछा तो बोली कि आजकल पैसों की बड़ी तंगी है घर में, सो पैसे अम्मी को दिए. पैसे बहुत काम आते हैं. ठंडे पानी से रोज़ा खोल लूंगी और कल से शरबत में नींबू न मिलाना,  मुझे पसंद नहीं! उसकी मासूमियत पर हंसी आ गई. मैंने कहा, अच्छा बाबा. फिर उसे क़रीब बुलाकर मैंने चॉकलेट दी. वो ख़ुश होकर घर चली गई.

मैँ सोच रही थी, आज ख़ुदा ने इबादत कबूल की होगी, तो फ़रिश्तों ने जमालो का रोज़ा नज़राने के तौर पर ख़ुश होकर पेश किया होगा. अल्लाह भी ख़ुश हो गया होगा. तभी देखती हूं कि, “रहमत की बारिश हो रही”, मौसम ठंडा हो गया, सोचा जमालो थकी हुई थी, चैन से सो गई होगी, और अल्लाह भी ख़ुश हो गया होगा.

न जाने कितनी ही जमालो दुनिया में होंगी, ग़रीबी और बेबसी में जी रही होंगी, लेकिन उम्मीदों की मुट्ठी बंधी हुई होगी. बस रब की मेहर हो जाए, की दुआ में जब हाथ उठे तो उनकी परेशानियां दूर हो जाएं. उनके बचपन की सारी ख़्वाहिशें पूरी हो जाएं. हर “जमालो“ को अपनी मां के साथ काम करने, पैसे बचाने के बारे में न सोचना पड़े. खिलखिलाता बचपन, ढ़ेर सारी ख़ुशियां बेहतर ज़िंदगी, जो कि उनका हक है,  उन सब को मिले,  एक नई तस्वीर बने इस दुनिया की, और इस समाज की.

 

(सारा लखनऊ में रहती हैं. अपने समाज और समाज को दर्ज करती रहती हैं. )

 

 

 

 


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