लोकश्रुति में शेरगढ़ के भाँड़ों की बहुत अहमियत रही है. भाँड़ का मतलब यों तो विदूषक या मसख़रा ही होता है मगर भूरे यानी ग़ुलाम हसन को इस लफ़्ज़ से ही परहेज़ है. ज़माने ने भाँड़ लफ़्ज़ कुछ इस तरह बरता है कि अब उन्हें यह अपमानजनक लगता है, [….]
रियासत के दिनों में हरम में रहने वालों की ज़िंदगी बाहर से जितनी चकाचौंध भर लगती थी, क़रीब से देखने पर उनकी आत्मा उतनी ही उदास, ख़ामोश, बेबस और तारीकी में डूबी हुई मिलती. ‘द बेग़म एण्ड द दास्तान’ ताक़त और वैभव के ख़ौफ़ के बीच ख़ुद की ख़ुशियों-आकांक्षाओं को पीछे धकेलकर ज़िंदगी गुज़ार देने वालों की ख़ामोशी को ज़बान देती है. [….]
रामपुर में रज़ा लाइब्रेरी की अज़ीमुश्शान इमारत और किताबों के ख़ज़ाने के बीच किसी तारीक कोने में एक कतबा रहता है. क़यामगाह-ए-ग़ालिब की निशानी इस कतबे को झाड़-पोंछकर रोशनी में लाने पर जो पढ़ा जा सकता है, वह है – रामपुर में ग़ालिब का क़याम 1860 में रहा. 22 फ़रवरी 1944 को इसकी तारीख़ी अहमियत को महफ़ूज़ करने के लिए यह कतबा लगाया. [….]