अमेरिका | वॉलंटियर्स हलकान तो कुछ मौज-मस्ती पर पाबंदी से परेशान
आप इस शख़्स के बारे में सोचकर देखिए. क्या लगता है कि वह जो कर रहा है, उससे ख़ुश और संतुष्ट है? इस सवाल का जवाब हां भी हो सकता है और ना भी. सोशल डिस्टेंसिंग के इस दौर में अमेरिका का हाल भी कुछ ऐसा ही है. घोर संकट की घड़ी में महामारी से जूझने के लिए जब हम सभी को एक साथ खड़े होना चाहिए, हम गहरे तक बंटे हुए समाज में तब्दील हो गए हैं.
अपनी बात को और बेहतर समझाने से पहले इतना बताती चलूं कि मैं भारतीय-अमेरिकी हूं, और मुझे फ़ख्र है कि मेरी जड़ें हिन्दुस्तान में हैं और परवाज़ अमेरिका के आसमान में. तो अभी जो सूरते-हाल है, उसे तीन तरह से देख-समझ पाती हूं.
परिस्थिति एक: मीडिया का सारा ज़ोर इन दिनों साजिशों की थ्योरी और असल ज़िंदगी के बेशुमार नज़रिये पर है. हर कोई यही ख़बरें पढ़ रहा है, सुन रहा है और फिर अपनी समझ से उसे सही ठहराते हुए बांट रहा है. ज़ाहिर है कि सही ठहराने के उनके तर्क उनके चश्मे के रंग के मुताबिक़ ही होंगे. यहां अमेरिका में आप डेमोक्रेट हो सकते हैं या रिपब्लिकन. और यही मुश्किल की जड़ है. दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क़ के सबसे ताक़तवर शख़्स के तौर पर एक नासमझ को चुनना मुल्क के लिए घातक साबित हुआ है. यही वजह है कि महामारी के पूरे दो महीनों में एकदम नकार से शुरू करके भ्रम, झूठ-फ़रेब और आरोप-प्रत्यारोप के दौर से गुज़रते हुए हम अब इंसानियत की क़ब्र पर चुनावी तैयारियों में लगे हुए मिलते हैं. वैचारिक बंटवारे के लिए महामारी के ख़ौफ़ का धड़ल्ले से इस्तेमाल हुआ है और अब इसे अर्थव्यवस्था की दुरुस्ती का खाद-पानी दिया जा रहा है.
परिस्थिति दो: मैं जिस सूबे में रहती हूं, वहां रिपब्लिकन सत्ता में हैं. तो गवर्नर एक तरह से राष्ट्रपति की प्रतिच्छाया ही हैं. महामारी के हमले से बुरी तरह प्रभावित न्यूयॉर्क या न्यू जर्सी की तरह तो नहीं फिर भी हमारे यहां पिछले महीने संक्रमण के 5000 से ज़्यादा मामले मिले हैं और 250 से ज़्यादा लोगों की जान चली गई. लॉकडाउन नहीं करने के लिए गर्वनर अब लगातार आलोचकों के निशाने पर हैं. मगर क्या आप यक़ीन करेंगे कि जब केवल ज़रूरी सेवाएं चालू रखने की इजाज़त थी, तो गोल्फ़ कोर्स, मसाज़ पार्लर और स्पा सैलून खुले थे (छह फ़ीट की दूरी!). चूंकि आधिकारिक तौर पर बंद नहीं हैं, इसलिए आपको ग्रॉसरी स्टोर, हाइकिंग ट्रेल्स और पार्क में ऐसे लोगों की भरमार दिखाई देती है, जो 30 अप्रैल तक अपने पसंदीदा पब, रेस्तरां या सिनेमाघर नहीं जा पाने की वजह से परेशान, उदास, यहां तक कि अवसाद में हैं. ऐसे लोग सरकारी दफ़्तरों पर रैलियां करके काम-धंधे फिर से शुरू करने की मांग कर रहे हैं. उनको भरोसा है कि कोविड-19 फ़र्जी आपदा है. अब ऐसे लोगों पर मुझे ग़ुस्सा आता है. इन लोगों ने ज़िंदगी में कभी कोई दुश्वारी झेली नहीं है, कोई मुश्किल कभी जानी नहीं. ये वही लोग हैं, जिनका दिमाग़ रिपब्लिकन सरकार, मोटी तनख्वाहों या विरासत में मिली समृद्धि ने फेर दिया है. हम लोग इस सबके बीच में हैं, और वायरस के चौदह दिनों में अपना असर दिखाने के गुण के चलते यह भी ख़ूब समझते हैं कि जल्दी ही ऐसे लोग लड़खड़ाती हुई मौजूदा स्वास्थ्य सेवा पर बड़ा बोझ बनने वाले हैं.
हेल्थकेयर का मसला पहले ही गंभीर है. सब जानते है कि टेस्ट किट्स, पीपीई, वेंटिलेटर और अस्पतालों में जगह की क़िल्लत हो रही है. कटौती के बाद इमरजेंसी फंड इतना कम रह गया है कि इन सब चीजों का इंतज़ाम मुश्किल हो रहा है. किसी आपदा का मुक़ाबला करने की हमारी तैयारियां कितनी नाकाफ़ी है, यह भी ज़ाहिर हो गया है. आम लोग ख़ुद मास्क सिल-सिलकर हेल्थकेयर वर्कर्स को भेज रहे हैं ताकि वे अपना काम सुचारू रख सकें.
परिस्थिति तीन: रोज़मर्रा की ज़िंदगी में यह सब मेरे जैसे लोगों पर सचमुच बहुत भारी पड़ रहा है – बहुत सारे हिन्दुस्तानी, अमेरिकियों, माओं और कामकाजी मध्य वर्ग के लोग इस अभूतपूर्व दौर का ताप झेल रहे हैं. और हम ही क्या, दुनिया भर में ख़ामियाज़ा भुगतने वाले लोग ऐसा ही महसूस कर रहे हैं.
हम बच्चों को घर में पढ़ा रहे हैं, और हर स्कूल का अलग ऑनलाइन प्लेटफार्म होने की वजह से यह बड़ी चुनौती है. चाहे छोटे क्लास की पढ़ाई हो, हाई स्कूल या फिर कॉलेज की, बच्चों से उम्मीदें कम नहीं हुई हैं. अभी जब कैंपस पूरे शिक्षा सत्र के लिए बंद हैं, स्कूल ऑनलाइन हो गए हैं. यानी 11 हफ़्ते की ऑनलाइन पढ़ाई. और किसी को अंदाज़ नहीं है कि अगले सेमेस्टर में पढ़ाई का तौर-तरीक़ा क्या होगा?
माइक्रोसॉफ़्ट टीम्स, ज़ूम, वेबेक्स, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, गूगल क्लासरूम, मीट्स, हैंगआउट और यहां तक कि हाउसपार्टी भी हमारे जीवन की धुरी बन गए हैं. हमारे पास ज़ूम हैपी ऑवर्स और हैंगआउट हैं! हम मास्क भी बना रहे हैं और जिन्हें ज़रूरत हो, उन तक भेजने का जतन कर रहे हैं. छह फ़ीट की दूरी बनाकर राशन ख़रीद रहे हैं, चंदा दे रहे हैं और फ़ूड बैंक और बुज़ुर्गों की मदद करने के लिए समय निकाल रहे हैं और महीने भर से ज़्यादा वक़्त हो गया कि अपनी मर्ज़ी से अपने घर में बैठे हैं. ख़ुद को दुरुस्त रखने के लिए योग कर रहे हैं, तस्वीरें खींचते-पोस्ट करते हैं, खाना बनाते हैं, सोशल नेटवर्किंग में मसरूफ़ रहते हैं और साथ इस बात को लेकर फ़िक्रमंद भी कि कल का क्या बनेगा. हम अर्थव्यवस्था और छंटनी के साथ ही समाज के नए चेहरे के बारे में सशंकित हैं, जो हर रोज़ बदलता दिखाई दे रहा है. हम संदेह और आशंकाओं में जी रहे हैं लेकिन उम्मीदों के साथ जी रहे हैं. जी हाँ, हमें उम्मीद है कि इस दौर से हम पार पा जाएंगे.
आवरण चित्र| azcentral.com से साभार
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