स्मृति शेष | शेखर जोशी

  • 11:00 pm
  • 4 October 2022

हिंदी के सुपरिचित कथाकार शेखर जोशी का आज दोपहर को ग़ाजियाबाद के एक अस्पताल में निधन हो गया. वह 90 वर्ष के थे. सन् 1997 में उनको ‘पहल सम्मान’ दिए जाने की घोषणा के बाद 18 सितंबर को इलाहाबाद में प्रवीण से उनकी यह बातचीत पुरानी ज़रूर है, मगर उनकी रचनाधर्मिता और नज़रिये को समझने में मदद करती है. -सं.

सुपरिचित कथाकार शेखर जोशी बहुत ख़ामोश रहकर भी बहुत मुखर रचनाकार हैं. उन्हें वर्ष ’97 का प्रतिष्ठित ‘पहल सम्मान’ दिए जाने की घोषणा हुई है. हिन्दी कहानी लेखन के महत्वपूर्ण नाम शेखर जोशी ऐसी रचना के प्रशंसक हैं, जो वक्तव्य न होकर कला के रूप में व्यक्ति को संवेदित और आंदोलित करे. एक ख़ास मुलाक़ात में उन्होंने कहा कि उनकी कोशिश रहती है कि जो भी लिखा जाए, उसमें कलात्मकता रहे. यों उनकी कहानियों के बारे में कहा जाता है कि उनमें संघर्ष ‘अंडरटोन’ रहता है. हमारी बातचीत की शुरुआत इसी सवाल को केंद्र में रखकर हुई.

  • संघर्ष सतह पर आने से क्या शिल्प को क्षति का ख़तरा रहता है या कि संवेदना को स्पष्ट करने के लिए संघर्ष का सतह पर आना ज़रूरी है?


मैंने अति प्रगतिशीलता का दौर भी देखा है. कुछ लोगों को लगता था कि क्रांति बहुत नज़दीक है और क्रांति की सब तैयारियां हो चुकी है. उस दौर में वैसी कहानियां लिखी गईं लेकिन उनकी पीढ़ी उससे प्रभावित नहीं थी. लोग कहते थे कि जो कुछ व्यक्त करो, वह स्पष्ट हो लेकिन वह इतना स्पष्ट होता था कि राजनीतिक वक्तव्य लगने लगता था. उस विचार की क्या परिणिति हुई, वह सामने है. मेरी समझ में रचनात्मकता में बात ‘परकोलेट’ होकर आनी चाहिए. बहुत-सी ऐसी रचनाएं भी हुई हैं, जिनमें संघर्ष अधिक मुखर होकर आता है जैसे ‘स्पार्टकस’ में. रचना की शक्ति इस बात पर निर्भर है कि उसमें ‘इन्वॉल्वमेंट’ कैसा है.

  • आप की कहानियों में आंचलिकता का समावेश रहता है. क्या क्षेत्र विशेष का सच पूरे के पूरे समाज का व्यापक सच बन सकता है?


आंचलिकता सार्वजनीन स्वरूप को व्यक्त नहीं करती लेकिन आंचलिकता कहीं बाधा भी नहीं बनती. अनुभूति को लोग किसी न किसी रूप में दूसरों से बांटते हैं. अन्य लोगों के यहां भी वैसा ही व्यवहार होता है. पुराने सोवियत यूनियन की सबसे कम बोली जाने वाली भाषा अज़रबैजानी के लेखक चंगेज आइत्मातोव और हमारे यहां रेणु ने अपने अंचल पर केंद्रित लिखा. परेशानी वहां होती है, जहाँ आंचलिकता ओढ़ी हुई होती है, चाहे वह भाषा के स्तर पर हो या फिर परिवेश के सम्बन्ध में. आप भले ही छोटे परिवेश को लिख रहे हो, पर अगर उसमें “इन्टेंसिटी” के साथ अभिव्यक्ति हुई है तो उसका असर होगा ही.

  • आजकल लिखी जा रही ज्यादातर कहानियों में से कहानीपन का लोप हो रहा है. फ़ॉर्मूला आधारित कहानियां आ रही हैं या फिर ऐसी कहानियां जो सिर्फ़ कला ही साधती रहती है. आप की क्या प्रतिक्रिया है?


दूसरी विधाओं का प्रभाव भी कला अनुशासन पर पड़ता है. पारम्परिक चीज़ों में बदलाव आया है. यह साहित्य, चित्रकला, संगीत, कविता आदि सभी में है. सिनेमा की दुनिया में ‘दि बायसायकिल थीव्स’ जैसी फ़िल्मव के यथार्थवाद से लेकर बॉक्स ऑफिस तक का सफर. कविता भी गद्यात्मक हो गई. दूसरी बात यह है कि चीज़ें युग-सापेक्ष और समय-सापेक्ष हुआ करती हैं, कलात्मकता भी. यह देश-काल की स्थितियों पर निर्भर करता है. कहानियों में बदलाव तो आता ही रहता है लेकिन आज की कहानियों में बदलाव फ़ैशन के तौर पर भी आया है और कुछ नया दिखने के चक्कर में भी. हो सकता है कि यह पुरानी सोच की बात हो लेकिन महत्वपूर्ण है कहानी में ‘फ़ोकल प्वाइन्ट’ की तलाश की बात. बहुत-सी कहानियां नाटकीय ढंग से चलती हैं, पढ़ते समय आकर्षित करती हैं लेकिन ऐसी कहानियों का दोबारा कोई नहीं पढ़ना चाहता.

  • आपके बाद की पीढ़ी के लेखक ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह सभी संस्मरण लिख रहे हैं. ख़ुद आप संस्मरण लिखने के बारे में क्या सोचते हैं?


मैने कई बार सोचा कि संस्मरण लिखूं तो नामवर जी की एक उक्ति याद आ जाती है कि जब आदमी के पास कहने-बताने को कुछ नहीं होता तब वह पीछे मड़कर देखता है, जुगाली करता है. दूसरी बात यह कि जो लोग संस्मरण लिख रहे हैं, वे सब शुरू से समझदार रहे होंगे कि उन लोगों नोट्स लिए और डायरी लिखी. हमने कभी डायरी लिखी नहीं, तो संस्मरण लिखना हमारे लिए मुश्किल है. वेसे यह भी ज़रूरी नहीं कि संस्मरण साहित्यिक व्यक्तियों पर ही लिखे जाएं. उनसे अलग संस्मरण लिखे जा सकते हैं जैसे कि हरिशंकर परसाई या रामविलास शर्मा के संस्मरण. कहानीकार में अपने “रॉ मैटेरियल” का इस्तेमाल अपनी कहानियों में प्रयोग करने का मोह भी होता है.

  • साहित्यकार अपनी रचनाओं में जैसे समाज या व्यक्तियों की अपेक्षा करता है, वैसा वह अक्सर नहीं दिखता, इसकी क्या वजह है?


मनुष्य नाम के जीव की बनावट बहुत ‘कॉम्प्लीकेटेड’ है. मनुष्य के जीवन में कई तरह की कुंठाएं होती हैं. व्यक्ति का पर्यावरण उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है. कई बार देखा गया है कि अपने ज़माने के धूर्ततम लोग श्रेष्ठतम साहित्यकार थे. अश्क जी तो कहा करते थे कि व्यक्ति की निजी ज़िंदगी से मतलब होना ही नहीं चाहिए, महत्व की बात तो यह है कि वह साहित्यकार कैसा है. आदर्श तो यह होना चाहिए कि जैसा वह चाहता है, वैसा ही बने लेकिन मनुष्य का दिमाग़, उसके व्यक्तित्व निर्माण के कारकों से चलता है. कई लोगों की मानसिक बनावट इस तरह होती है कि जब तक वह ‘मेच्योर’ रचनाकार बनते हैं, तब तक काफी देर हो चुकी होती है.
यह भी है कि कोई शुरू से आदर्शवादी रहा हो तो हो सकता है वह जटिल लेखन न कर पाए क्योंकि उसका आदर्शवाद आड़े आएगा. वह पूरे परिप्रेक्ष्य में सोचेगा कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है. किन्तु जैसा भी है, उसकी रचनाओं से अच्छे परिणाम निकलते हैं और उसको पढ़ने के बाद परिष्कार होता है तो क्षम्य है.

  • सभी वामपंथी लेखक संगठन एकजुट क्यों नहीं होते? जैसे मान बहादुर सिंह की हत्या पर सब एक साथ नहीं आए. जबकि यह साहित्य पर हमला था.


राजनैतिक स्तर पर जितना ‘लेफ़्ट मूवमेंट’ है, उन सबका लक्ष्य एक है. कहीं कोई पुरानी ग़लतियों का हिसाब होगा. सभी अपने कार्यक्रम लेकर चल रहे हैं लेकिन एकजुट नहीं है. स्थान विशेष की भी बात होती है. मान बहादुर सिंह की हत्या के बाद लखनऊ में हुए धरने में सब एक साथ थे. सवाल यह है कि आपस में कितना ‘मोबिलाइज’ कर पाते हैं. दरअसल, पहल की कमी है और स्थानीय स्तर पर कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व नहीं है, जिसके साथ सब लोग काम कर सकें. सभी काम करने के लिए उत्सुक हैं लेकिन छोटी-छोटी टीम बना कर दुराग्रह पाले बैठे हैं जबकि आयडियोलॉजी एक है.

  • मौजूदा दौर में ज्यादा साफ़ दिखाई देने वाले सांस्कृतिक संकट के पीछे क्या वजह मानते हैं


ऐतिहासिक वजहें हैं और सामाजिक भी. शिक्षित हो जाना या शिक्षा का प्रसार होना, संस्कृति-सम्पन्न हो जाना नहीं है. ज्यादातर लोग अपने जीवन की ख़ुशियां, दु:ख बांटते हैं लेकिन उपभोक्तावादी समाज में उसका क्षरण हो रहा है. हमारी सांस्कृतिक विरासत धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है. अजीब-सी मैकेनिकल या भौंडी चीज़ें आ रही हैं. अलग-अलग ऋतुओं, पर्वों, त्योहारों के हिसाब से हमारी संस्कृति का स्वरूप था, प्रकृति से हमारा तादात्म्य था, और समाज की अंतरंगता हर वर्ग के साथ होती थी. यह सब छूटता जा रहा है, सामाजिकता भी ख़त्म हो रही है. सामाजिकता ख़त्म होते रहने के हाल में संस्कृति के संकट पर हैरानी नहीं होनी चाहिए.

  • कहानीकार के तौर पर किन संपादकों ने पहचान दी?


मार्गदर्शन और माहौल देने के मामले में भैरव प्रसाद गुप्त जी का बहुत बड़ा योगदान है. जब मैं इलाहाबाद आया तो श्रीपत जी की ‘कहानी’ पत्रिका प्रतियोगिता में कमलेश्वर, अमरकांत, आनन्द प्रकाश की कहानियां पुरस्कृत हुई थीं. मेरी कहानी पुरस्कृत तो नहीं हुई लेकिन प्रकाशन के लिए स्वीकृत ज़रूर हुई. श्रीपत जी कहानी के बड़े पारखी थे. फिर ‘साहित्यिकी’ में उन्होंने ‘दाज्यू’ कहानी का पाठ किया. साहित्यकी के संयोजक कमलेश्वर थे. इस कहानी को अश्क जी ने ‘संकेत’ के विशेषांक में प्रकाशित किया. कमलेश्वर व मार्कण्डेय ‘संकेत’ के उस अंक के सम्पादक थे और अश्क जी प्रधान संपादक. इसके बाद अमृत राय जी ने हंस में और धर्मवीर भारती ने निकष (अंक 3-4) में कहानी प्रकाशित की.

जो बिना उपदेश दिए मुझसे लिखवा ले गया, उससे चीज़ें स्थापित हुईं. मेरी कहानियों को भैरव जी ने कई बार छापा. भैरव जी की संपादन का ढंग अनूठा थ. जिसमें संभावना दिखती है, उससे दबाव डालकर वह कहानियां लिखवाते थे और लगातार उसकी कहानियां प्रकाशित करके पाठकों के बीच परिचित करा देते थे.
______________________________________________________________

चौथे दशक में अल्मोड़ा के एक गांव ओलिया में जन्में शेखर जोशी की शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुई. 1953 में लिखी पहली कहानी ‘दाज्यू’ से शेखर जोशी ने अपना ध्यान रचनात्मक संसार में आकृष्ट किया.

प्रगतिशील लेखकों और ट्रेड यूनियनों के गहरे सम्पर्क से शेखर जोशी की कहानियों में श्रम के प्रति एक गहरा सौंदर्य और विचार उत्पन्न हुआ. शेखर जोशी का पहला कहानी संग्रह ‘कोसी का घटवार’ 1958 में प्रकाशित हुआ. उसके बाद से उनके छह कहानी संग्रह अब तक प्रकाशित हैं. ‘नौरंगी बीमार है’ उनका ताज़ा प्रकाशित कहानी संग्रह है.

शेखर जोशी के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा कारख़ानों में बीता और कारख़ानों के कारीगर, उनकी कहानियों के महत्वपूर्ण पात्र बन कर आते हैं. सेवानिवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखक के रूप में वह इलाहाबाद में बस गए हैं.
______________________________________________________________


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.