अमृत कौरः राजशाही छोड़कर आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली राजकुमारी

  • 8:46 pm
  • 7 March 2020

एक पुरानी कहावत है: ‘राजघराने ख़त्म हो जाते हैं लेकिन उनकी कहानियां रह जाती हैं…! ‘टाइम’ पत्रिका ने बीती सदी की 100 प्रभावशाली महिलाओं की सूची में दो भारतीय शख़्सियतों को शुमार किया है – पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजकुमारी अमृत कौर. श्रीमती गांधी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं (और फिलहाल तक आख़िरी भी), जबकि राजकुमारी अमृत कौर देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री थीं.यानी सत्ता की राजनीति में उनसे वरिष्ठ. यह बात अलहदा है कि इंदिरा गांधी की शख़्सियत की बाबत दुनिया जानती है और राजकुमारी अमृत कौर के बारे में बहुत कम. इतिहास के बेशुमार पन्नों में, कभी ‘महारानी’ नहीं बनीं इस ‘राजकुमारी’ के लिए, अब भी काफ़ी कुछ लिखा जाना बाक़ी है. पंजाब के कपूरथला राजघराने से वाबस्ता अमृत कौर के नाम फिर भी इतिहास में बहुत कुछ ऐसा दर्ज है, जो बेमिसाल है. सन् 1947 से पहले बहुत कम राजकुमारियां ऐसी हुईं, जिन्होंने कोशिश करके ‘महारानी’ होने से इन्कार किया और राजशाही की आरामपसंदी को छोड़कर आज़ादी की लड़ाई में शिरकत की हो. और ‘नेहरूवादी सत्ता’ में आकर अपना लोकहितवादी चेहरा अवाम को गहरी प्रतिबद्धता के साथ दिखाया हो. इससे पहले स्त्री अस्मिता और आत्मसम्मान की पुरजोर हिफ़ाज़त की मिसाल कायम की हो.

शिमला के राष्ट्रपति निवास को तब ‘वाइस रिगल लॉज’ कहा जाता था. भारत पर हुकूमत करने वाले अंग्रेज़ों ने 1909 में वहां एक पार्टी रखी. अंग्रेज़ हुकूमत की साम्राज्यशाही तब पार्टियों में जमकर बजबजाती थी. इसे आप आज की आधुनिकता कह सकते हैं और अपसंस्कृति भी. ख़ैर, अंग्रेज़ हुक्मरान ने उस पार्टी में राजकुमारी अमृत कौर के पिता राजा सर हरनाम सिंह के परिवार को भी आमंत्रित किया. पार्टी में सर हरनाम सिंह के साथ उनकी बेटी (जो उस वक्त राजकुमारी का ख़िताब रखती थीं) अमृत कौर भी गईं. उनकी उम्र तब बीस साल थी. साम्राज्यशाही पार्टियों की रिवायत के मुताबिक, शराब के प्याले छलक रहे थे और डांस हो रहा था. एक आला अंग्रेज़ अफ़सर ने राजकुमारी अमृत कौर को अपने साथ नृत्य करने के लिए आमंत्रित किया. बार-बार के इसरार के बावजूद अमृत कौर ने सख़्ती से इन्कार का रवैया बरकरार रखा और आला अंग्रेज़ हुकमरान को भरी महफिल में खरी-खोटी सुनाकर पार्टी छोड़कर चली आईं. ज़ाहिरा तौर पर, अपमानित अंग्रेज़ अफ़सर का ग़ुस्सा काबू से बाहर हो गया और उसने कहा कि भारतीयों को कभी आज़ादी नहीं देनी चाहिए, वे बिगड़ैल हो चुके हैं. पार्टी हॉल से बाहर आते-आते राजकुमारी अमृत कौर ने यह बात सुन ली और वह बेहद आहत हुईं. इसके बाद उन्होंने राजशाही शान-शौकत को दरकिनार करके स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का फ़ैसला किया. इन तथ्यों की पुष्टि इतिहास के जानकार मरहूम खुशवंत सिंह ने तो की ही है, चंडीगढ़ में रहने वाले राजकुमारी अमृत कौर के एक वंशज सिद्धांत दास भी करते हैं. सिद्धांत के मुताबिक अमृत कौर उनके परनाना की सगी बहन थीं. बता दें कि सिद्धांत ने अपनी नानी बुआ की जिंदगी पर काफी उल्लेखनीय शोध किया है.

जिक़्र-ए-ख़ास यह है कि जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद महात्मा गांधी अमृतसर दौरे पर आए थे और उसके बाद जालंधर रहे. वहां अमृत कौर ने उनसे मुलाक़ात की और बाक़ायदा उनके मिशन से जुड़ने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर की. गांधीजी बख़ूबी जानते थे कि अमृत एक राजघराने से ताल्लुक रखती हैं. जालंधर उन दिनों कपूरथला राजघराने के तहत आता था. महात्मा गांधी ने तय किया कि वह सेवाग्राम आश्रम आ जाएं. वह एक तरह से अमृत कौर की परीक्षा लेना चाहते थे. अमृत कौर सेवाग्राम चली गईं. वहां उन्हें हरिजन-सेवा और शौचालय साफ़ करने का काम दिया गया. मनोयोग से इस काम को उन्होंने बापू और मानवता के आशीर्वाद के तौर पर अच्छी तरह अंजाम दिया. गांधीजी ने उन्हें आशीर्वाद से नवाजा और कहा कि वह उनकी ‘परीक्षा’ में सफल रही हैं और तभी से उन्हें स्वतंत्रता सेनानी मान लिया गया.

महात्मा गांधी से जुड़ने के बाद राजकुमारी अमृत कौर बाक़ायदा स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय हिस्सेदारी करने लगीं. उन्होंने सरोजनी नायडू के साथ मिलकर ऑल इंडिया वूमेन कांफ्रेंस और आई इंडिया वूमेन कांग्रेस की स्थापना की. 1942 में अंग्रेज़ हुकूमत ने उन पर देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज किया और बेहद सख़्त पाबंदियों में अंबाला जेल में डाल दिया. अंबाला जेल उन दिनों यातना शिविर के तौर पर भी कुख्यात थी. अंबाला जेल में बंद रहने के दौरान अमृत कौर की तबियत काफ़ी बिगड़ गई तो हुकूमत ने उन्हें वहां से निकालकर शिमला की मैनोविर्ल हवेली में तीन साल के लिए नज़रबंद कर दिया. वहां भी उन पर सख़्त पाबंदियां आयद थीं.

सन् 1947 में उनकी रिहाई हुई. अमृत कौर के सात भाई थे. इनमें से एक सैन्य डॉक्टर थे. अमृत कौर भी डॉक्टर बनना चाहती थीं, 1909 की घटना के बाद पढ़ाई नहीं कर पाईं और आज़ादी आंदोलन में सक्रिय हो गईं. चिकित्सा जगत में जाने की हसरत को नियति ने किसी और रूप में स्वीकार किया. देश आज़ाद होने के बाद जब भारत सरकार का विधिवत गठन हुआ तो अमृत कौर भारत की पहली केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनीं. इस ओहदे पर रहते हुए उन्होंने कई महत्वपूर्ण काम किए. अखिल भारतीय आयुर्वेदिक संस्थान यानी दिल्ली में देश के पहले एम्स की स्थापना का श्रेय उन्हीं को जाता है. उस समय ऐसे विशाल और आधुनिक मेडिकल (शोध) संस्थान के लिए पर्याप्त बजट नहीं था तो उन्होंने देश के बाहर के उद्योगपतियों और भारतवंशी पूंजीपतियों से मदद की गुहार की. धन मिला और एम्स संभव हो सका. एम्स में राजकुमारी अमृत कौर के नाम पर ओपीडी ब्लॉक है. बताने वाले बताते हैं कि इस परियोजना के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिया था. शिमला में ‘राजशाही’ (हालांकि व्यावहारिक तौर पर उसे वह बहुत पहले त्याग चुकी थीं) की विरासत के तौर पर उनके पास एक घर था, जिसे उन्होंने एम्स के डॉक्टरों और अन्य स्टाफ के रेस्ट हाउस के तौर पर दान कर दिया था.

तो यह थी कभी महारानी नहीं बनने वालीं राजकुमारी अमृत कौर की मुख़्तसर सी कहानी!


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