जगजीत सिंह वाया जालंधर
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हिन्दुस्तान में ग़ज़ल गायकी को नए आयाम और मुकाम देने वाले जगजीत सिंह की ज़िंदगी के सफ़र में जालंधर अहम पड़ाव बनकर न आता तो शायद वह शोहरत की उस बुलंदी तक न पहुंच पाते. बेशक वह गाने के लिए ही इस दुनिया में आए और इसके सिवाय वह कुछ और कर भी न पाते.
वह शास्त्रीय संगीत की राह पर थे. जालंधर ने उनकी यह बुनियाद पुख़्ता करते हुए उन्हें ग़ज़ल गायकी की ओर ऐसा मोड़ा कि अंततः वह अपनी मंज़िल तक पहुंच ही गए. इसी शहर ने उन्हें ‘जगमोहन’ से ‘जगजीत’ बनाया और बंबई जाकर जूझने का जज़्बा दिया. हर बड़ी शख़्सियत की तरह जगजीत सिंह भी बहुत कुछ भूले होंगे लेकिन नहीं भूले तो जालंधर को. जालंधर वालों को भी नहीं मालूम कि ज़िंदगी के आख़िरी सालों में वह गुपचुप जालंधर आते रहे. अकेले-अपने निजत्व के साथ. ये ख़ामोश यात्राएं थीं. अपने कुछ जा चुके, छूट गए दोस्तो की मिट्टी छूने. जालंधर आख़िरी वक़्त तक उनके भीतर सोया-जागता और खोया रहता रहा.
सत्तर के दशक में जगजीत सिंह, जो तब जगमोहन सिंह होते थे, श्रीगंगानगर से बीएससी की पढाई करने जालंधर के डीएवी कॉलेज में आए थे. बीस साल की उम्र में लड़कपन का हर मिज़ाज वजूद पर तारी था लेकिन संगीत के लिए गंभीरता विलक्षण थी. सोते-जागते, उठते-बैठते, घूमते-फिरते संगीत उनके साथ रहता. ऐसी संगीतमय दीवानगी तथा फक़ीरी में पढ़ाई कहां होनी थी? किताबों के बजाए साज़ इर्द-गिर्द मिलते. होनहार गायक होने के नाते डीएवी के प्रिंसिपल डॉक्टर सूरजभान ने उन्हें हॉस्टल में अलग कमरा दे दिया था. वहीं एकांत या आसपास के शोर के बीच रियाज़ होता था और महफ़िलें भी सजतीं.
नामधारी परिवार से वाबस्ता जगजीत सिंह जालंधर आए तो परंपरागत सिख वेशभूषा में रहते और जब तक यहां रहे, ऐसे ही रहे. वह तलत महबूब के मुरीद थे और उनके तमाम गीतों-ग़ज़लों को वह अपने रंग, अपने अंदाज़ और अपने रियाज़ के साथ बख़ूबी गाते. कॉलेज में रिसैस के ऐन पहले प्रिंसिपल सूरजभान रोज़ पांच मिनट के लिए अपने दफ़्तर के पब्लिक अड्रेस सिस्टम से विद्यार्थियों को संबोधित करते. इसके बाद प्रिंसिपल लंच के लिए चले जाते और पीछे उनके दफ़्तर का अड्रेसल सिस्टम जगजीत सिंह को मिल जाता. हारमोनियम लिए 25 मिनट तक वह गाते.
पढ़ाई के दिनों में ही उनकी पहचान उभरते शास्त्रीय गायक की बन गई. डीएवी कॉलेज की ओर से वह तमाम प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते और अक्सर पहली तीन श्रेणियों में से किसी एक में रहते. जगजीत सिंह ग़ज़ल गायकी की ओर न मुड़ते, शास्त्रीय गायक ही बने रहते, अगर पुरुषोत्तम जोशी शास्त्रीय संगीत में उन्हें चुनौती देने के लिए नहीं होते. दोनों के सहपाठी रहे सुरेंद्र मोहन पाठक याद करते हैं, “संगीत मानों पुरुषोत्तम जोशी को घुट्टी में पिलाया गया था. सिर्फ आठ साल की उम्र में वह ऑल इंडिया रेडियो जालंधर का रेगुलर स्टाफ आर्टिस्ट था और तब भी रेडियो पर उसका शास्त्रीय गायन नियमित रूप से प्रसारित होता था और शौक़ से सुना जाता था. किसी भी संदर्भ में जब कभी डीएवी के ओपन एयर थिएटर में उसके गायन का कार्यक्रम होता था तो थिएटर गेट क्रेशिंग की मिसाल बन जाता था. सारे जालंधर के संगीत प्रेमी बिन बुलाए पुरुषोत्तम जोशी का गायन सुनने के लिए दौड़े चले आते थे और कॉलेज उनकी आमद पर अंकुश नहीं लगा पाता था. तब थिएटर हमेशा ऐसा खचाखच भर जाता था कि तिल धरने की जगह नहीं होती थी. संगीत प्रेमी नगर समुदाय पुरुषोत्तम जोशी नामक छोटे से लड़के को यूं सुनता था जैसे किसी बड़े मक़बूल उस्ताद को सुन रहा हो. ये हाल तब था जबकि यह कहने वालों की कोई कमी नहीं थी कि जगजीत सिंह और पुरुषोत्तम जोशी की गायन प्रवीणता में उन्नीस-बीस का भी फर्क नहीं था. यह स्थापित था कि जब कभी भी दोनों एक कॉम्प्टीशन में हिस्सा लेंगे तो यक़ीनी तौर पर जोशी प्रथम आएगा और जगजीत द्वितीय. हमेशा यही होता था. नतीजतन जगजीत सिंह को ऐसा कॉप्लेक्स हुआ कि उसने क्लासिकल में कंटेस्ट करना ही बंद कर दिया और लाइट म्यूज़िक में, सुगम संगीत में रुचि लेनी शुरू कर दी. उसके ऐसा करने की देर थी कि उसके लिए सफलता के जैसे चौतरफा द्वार खुल गए. हर कंटेस्ट में, हर कॉम्प्टीश में जगजीत सिंह ने झंडे गाड़े. कॉलेज के वक्त में ही बहुत नाम कमा लिया लेकिन उस दिशा में जो हुआ, सिर्फ इसलिए हुआ कि कॉलेज में पुरुषोत्तम जोशी नाम का एक जन्मजात शास्त्रीय संगीत विशारद मौजूद था, शास्त्रीय संगीत में जिसके आगे जगजीत सिंह की कभी पेश न चली. पुरुषोत्तम जोशी न होता तो एशियन उपमहाद्वीप का हरदिलअज़ीज़ ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह कभी न बन पाया होता. ग़ज़ल का ऐसा शहंशाह कभी न बन पाया होता, जिससे मेहंदी हसन भी रश्क करते थे.”
जालंधर में इन पंक्तियों के लेखक ने कई लोगों से बात की तो उन्होंने इसकी पुष्टि की लेकिन कोई भी ऐसा नहीं मिला जो बता पाता कि पुरुषोत्तम जोशी गुमनामी के अंधेरों में कैसे खो गए और अब कहां हैं, क्या कर रहे हैं?
जालंधर में जगजीत सिंह के कुछ पुराने सहपाठियों को वह तब भी किवदंती लगते थे. उनकी अद्भुत प्रतिभा की एक मिसाल यह दी जाती है कि वह दुनिया का कोई भी साज़, जिसको बजाया होना तो दूर, जगजीत ने कभी देखा भी न हो, उन्हें देकर आधे घंटे के लिए अकेला छोड़ दिया जाए, तो जगजीत उसे अधिकारपूर्वक बजाकर दिखा सकते थे. ऐसा कई बार हुआ.
एक लोहड़ी पर जगजीत सिंह ने विद्यार्थियों की महफ़िल में गाया, ‘एह तां जग दियां लोहड़ियां/ साडी कादी लोहड़ी अक्खां सजना ने मोड़ियां….’ दो साल लोहड़ी पर यह गीत जगजीत ने गाया और फ़रमाइश पर कई बार बग़ैर त्योहार के भी. इसे सुनते हुए कई आंखें पनीली हो जाती थीं. उस दौर के डीएवी कॉलेज के कई जालंधरी विद्यार्थियों को आज भी वह मंज़र ख़ूब याद है. इस गीत में जगजीत विरह की ऐसी हूक डालते थे कि तमाम छात्र-छात्राएं बरबस सुबकने लगते. उसी कॉलेज में पढ़ने वाली और बाद में अमृतसर के एक कॉलेज में प्रिंसिपल रहीं एक मोहतरमा के अनुसार जगजीत ने गाकर रूहों पर छाना जालंधर में ही साध लिया था.
जगजीत सिंह बीएससी में फेल हो गए और दूसरी बार इम्तिहान देकर पास हुए क्योंकि संगीत ही उनके लिए सब कुछ था, कोर्स की किताबें तो मजबूरी थीं. (बाद में उन्होंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए किया). संगीत उनकी ख़ूबी थी (कमजोरी नहीं, जैसा कि मुहावरे में कहा जाता है). ऊंचे पाये के संगीत वाली फ़िल्में उन्हें बेइंतहा पसंद थीं. 1960 में ‘मुग़ल-ए-आज़म’ रिलीज़ हुई तो जगजीत सिंह जालंधर में ही पढ़ते थे. किसी वजह से वह फ़िल्म पहले हफ़्ते जालंधर में नहीं लगी. जगजीत ने लुधियाना जाकर फ़िल्म देखी और कई हफ़्तों तक उसके गीत गाते-सुनाते रहे. डीएवी के पीछे अब पॉश कॉलोनियों की कतार है. जगजीत जब पढ़ते थे तब यह इलाक़ा जंगल हुआ करता था. जब वह शोर से आज़िज़ आ जाते तो अपना हरमोनियम लेकर इसी जंगल के बीच कहीं बैठकर रियाज़ करते. रियाज़ के साथ-साथ सिगरेटनोशी भी, जिससे सार्वजनिक तौर पर वह बचते थे. सिगरेट की लत उन्हें जालंधर आकर लगी थी. तब तक शराब शायद नहीं पीते थे. सिगरेट और रसरंजन की जुगलबंदी बंबई जाकर शुरू हुई और जमकर हुई.
खैर, सिगरेट की बाबत एक वाकया जालंधर में उनके साथ पढ़े और गहरे दोस्त रहे लेखक शैलेंद्र शैल के जरिए अर्ज है, “एक शाम मैं हॉस्टल में जगजीत के कमरे पर गया. दीवारों पर तलत महमूद के पोस्टर चस्पां थे. थोड़ी देर बाद उसने दरवाज़ा बंद कर लिया और आलमारी से सिगरेट का पैकेट निकाला और मेरी और बढ़ा दिया. मुझे हल्का झटका लगा पर जल्दी ही संभल गया. मैंने कहा, तुम पियो, मैं नहीं पीता. उसने सिगरेट सुलगाई और आराम से कश लगाने लगा. मुझे लगा वह अभी बेतहाशा खांसने लगेगा. पर वह तलत का गीत, ‘ये हवा ये रात, ये चांदनी…’ गुनगुनाने लगा. हम दोस्तों को अंदाज़ा भी नहीं था कि वह संगीत की इतनी बुलंदियों को छू लेगा. अक्सर हम उसे तानसेन की औलाद या सहगल की आत्मा कहकर चिढ़ाते. जगजीत कहा करता था कि तलत उसके आदर्श हैं. पता नहीं, कभी उन जैसा गा पाऊंगा या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास उस समय नहीं होता था. बाद में समय ने ही इसका जवाब दिया.”
जालंधर में जगजीत सिंह के सबसे गहरे दोस्त सुदर्शन फ़ाकिर थे. वह भी डीएवी में पढ़े थे. पहले-पहल जगजीत ने फ़ाकिर के अल्फाज से ही ग़ज़ल गायन का सफ़र शुरू किया. फ़ाकिर की लिखी बेशुमार गजलें उन्होंने गाईं और उनकी दोस्ती अंत बनी रही. दोनों एक-दूसरे के पूरक थे. दोनों ने एक दूसरे को ‘बनाया’. सुदर्शन फ़ाकिर की गजलें गाने का सिलसिला जगजीत ने जालंधर से शुरू किया था और बंबई में आख़िर तक इसे क़ायम रखा. 2008 में जालंधर में सुदर्शन फ़ाकिर की मौत हुई तो जगजीत एकबारगी टूट-से गए थे. उनकी याद में फफक-फफक कर रोते थे. फ़ाकिर के जाने के बाद जगजीत का संपर्क उनके जालंधर रहते परिवार से लगातार बना रहा. फ़ाकिर मजाहिया लहजे में कहा करते थे कि, “जगजीत सिंह पूरा बंबइया बन पाया हो या नहीं लेकिन पूरा जालंधरी वह आज भी है!”
प्रसंगवश, जगजीत सिंह की यारबाशी का एक किस्सा उनके एक जालंधरी दोस्त बेहद भावुक होकर सुनाते हैं. डीएवी में वह जगजीत के सहपाठी और दोस्त थे. जगजीत गरीब परिवार से थे और पैसे की किल्लत रहती थी. वह दोस्त वक्त-ज़रूरत मदद कर दिया करते थे. समय का पहिया घूमा. बंबई जाकर जगजीत ख़ासे दौलतमंद हो गए और इधर जालंधरी दोस्त व्यापार में हुए घाटे के चलते दाने-दाने को मोहताज़. बेटी की शादी थी. किसी तरह बंबई में जगजीत सिंह से मुलाकात करने में कामयाब हो गए. पुराने दिनों को याद करते हुए जगजीत ने उस जालंधरी दोस्त की ख़ूब खातिरदारी की. दोस्त की दुश्वारियां भांप गए. पता चला कि बेटी की शादी सिर पर है और जेब ख़ाली है. जगजीत ने तुरंत 15 लाख रुपये का बंदोबस्त करके दिया. यह तब की बात है, जब 15 लाख रुपए बहुत बड़ी रकम होती थी. उस दोस्त से बात करते वक्त वह उनकी याद में फूट-फूटकर रोने लगे. जगजीत की दी हुई रक़म से बेटी की शादी ही नहीं हुई बल्कि परिवार को नए सिरे से ज़िंदगी भी हासिल हुई. ज़रूरत पड़ने पर जगजीत सिंह ने अपने जालंधरी दोस्तों को अच्छे से ‘संभाला.’ उन्हीं दोस्त के मुताबिक, जगजीत कहा करते थे कि मैं क़र्ज़ नहीं दे रहा बल्कि ऐसा करके जालंधर का क़र्ज़ उतार रहा हूं.
(इस आलेख के कुछ संदर्भ सुरेंद्र मोहन पाठक की आत्मकथा के प्रथम खंड ‘न बैरी न कोई बेगाना’ और शैलेंद्र शैल के संस्मरण-संग्रह ‘स्मृतियों का बाइस्कोप’ से लिए गए हैं. दोनों जन का आभार).
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