ग़ज़ल सा ख़ूबसूरत एक दोस्त जिससे बतियाना दरिया की मौजों को सुनने जैसा अनुभव था

  • 12:01 am
  • 8 February 2020

यह उन दिनों की बात है. उस मानूस अजनबी में ऐसा क्या था कि वह लोगों की ज़िंदगी की हसरत, तमन्ना, मायूसी, उदासी, तन्हाई, रात की तारीकी के एहसास, सुबह के इंतज़ार को सुरीली रंगत देता रहा और लाखों की आवाज़ बना रहा?मुझे मालूम नहीं कि उसने पंद्रह मिनट के वक़्त को पांच घंटे की मुलाक़ात में कैसे और क्यों तब्दील कर दिया? यह भी नहीं पता कि उस एक मुलाक़ात की बुनियाद पर अपनी बाक़ी बची ज़िंदगी तक रिश्ते को कैसे निभाता रहा? ग़ज़ल और गायिकी के सारे रंग-रूप अपनी आवाज़ में समोकर गाने वाले और ‘इंटरव्यू’ के लिए नहीं मिलने के लिए बदनाम शख़्स ने क्यों उस नौसिखुआ, अप्रशिक्षित ख़बरनवीस (जिसके पास बताने के लिए किसी रिसाले का नाम तक न था, कि जहां वह उस मुलाक़ात की बात को छपने के लिए कहता) को वक़्त दिया, इंतज़ार किया, ख़ुद के लिए आई मोटर भेजकर मेरे घर से टेप रिकॉर्डर मंगाया, आधी रात को जोहता रहा, खाने की ज़िद की, पहले खिलाया, फिर ख़ुद खाया? वह उस रात क्यों जागा? या वो जागे जिसे नींद न आए या कोई ‘उसके’ जैसा जागे.

यह उन्हीं दिनों की बात थी, रात थी, जब वह बोलता रहा, सुनाता रहा, जैसे महकते मीठे दरिया का पानी बहता है. वह रात ज़िंदगी की उन कुछ रातों में से एक है, जो अमर है. वैसे ही जैसे कि मन उस रात की जीवतंता को 18 बरसों तक पूरी ताज़गी के साथ महसूस करता रहा. यह 18 साल उसके बचे हुए साल थे. यह भी नहीं बूझ पा रहा हूं कि 21 दिसंबर 1993 की उस सर्द और धुंध से भरी रात की बात का कोई भी हिस्सा अब से पहले हक़ीकत के सांचे में क्यों न ढल सका? छब्बीस साल से भी ज्यादा वक़्त के बाद उस रात कहे गए बहुत कुछ में से कुछ मुख़्तसर सा यहां दर्ज किया है…(अरे हां, उस शख़्स का नाम बताना याद नहीं रहा. उसे जगजीत सिंह कहते हैं. ग़ज़ल-सी ख़ूबसूरत उनके साथ की दोस्ती की तामीर इसी मुलाक़ात की बुनियाद पर हुई.)

बचपन, घर, परिवार के बारे में | “हमारी नॉर्मल मिडिल क्लास फैमिली थी. हम गंगानगर राजस्थान में रहते थे. पिता पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट में मुलाज़िम थे. तीन भाई और चार बहनों में मैं तीसरा था.”
शुरूआती तालीम पर| “परिवार में गायिकी या संगीत की कोई परंपरा नहीं थी. घर में संगीत का कोई माहौल नहीं था. मेरी दिलचस्पी थी तो संगीत की ए.बी.सी.डी. गंगानगर में ही गुरु छगनलाल शर्मा से साल-डेढ़ साल तक सीखा. उनके बाद कुछ और एडवांस जानना हुआ तो उस्ताद जमाल खां से सीखना शुरू किया. उसके बाद से सुन-सुन कर सीखना शुरू किया और सीख ही रहा हूं. जिस दिन यह मान लूंगा कि सीख लिया है, उसी दिन ठहर जाऊंगा, ग्रो नहीं कर पाऊंगा, प्रोग्रेस नहीं होगी. दरअसल गुरु से ग्रामर और राग सीखकर सही मायने में सीखना तो सुनकर सीखना होता है. उसी समय कॉलेज के दौरान ही प्रयाग संगीत समिति से प्रभाकर और प्रवीण कर लिया था.”
संगीत क्या है, इसके साधना, सौंदर्य और (या) मनोरंजन होने पर | “संगीत ख़ुशी है, दर्द है, ख़ुद को पाने का रास्ता है, मेडिटेशन है. प्रोग्राम या कंसर्ट तो रोज़ी-रोटी है. घर में जब तानपूरे के साथ बैठता हूं तो ख़ुद को एनालाइज करता हूं यानी टोटल कंसंट्रेशन होता है. वही ईश्वर से जोड़ता है. निजी तौर पर यह साधना की चीज़ है. स्टेज पर होता हूं तो साधना के साथ मनोरंजन भी जुड़ जाता है. अब पैसा मिल रहा है तो लेने में क्या हर्ज़ है. रोजी-रोटी या उससे भी ज्यादा मिले तो लेते रहिए. सारी उम्र तो गाऊंगा नहीं. मैंने सोचा है कि 55-56 साल का होते ही गाना बंद. उसके बाद जो 20-25 साल और जीना, उसके लिए धन तो होना ही चाहिए..”
संगीत की सहज उपलब्धता, श्रोता की साधना और तकनीकी बदलाव पर | “आसानी से संगीत उपलब्ध हो जाने पर श्रोता की साधना नष्ट नहीं होती..लोग रिकॉर्ड या लाइव सुनकर ही आते हैं..चलो मान लिया कि अब देखने भी आते हैं लेकिन इसके पीछे ग्रामोफोन और कैसेट ही है. सुनकर लोग सोचते हैं कि यह फ़नकार कैसे दिखता है, रूबरू कैसे गाता होगा? यह तकनीकी बदलाव है. इसी तकनीकी बदलाव की वजह से आर्टिस्ट अब मंहगी मर्सिडीज़ गाड़ियों में घूमता है. अब पहले जैसे भूखे-नंगे कलाकार कहां हैं? पुराने किसी गवैया के पास फिएट से ऊपर की गाड़ी नहीं होती होती थी.”
सुनने वाले और अच्छा गाने वाले के रिश्ते | “हर फ़नकार की ख़्वाहिश होती है कि उसे अच्छा सुनने वाले मिलें. आप ही थिएटर करते हैं तो समझदार दर्शक की तलाश में रहते हैं. ग़ज़ल सुनना है तो संगीत का शौक और समझ रखनी होगी. बीच में टोका-टाकी ठीक नहीं होती. श्रोताओं में धैर्य होना चाहिए कि फ़नकार पहले अपने मन से सुनाए. आज इलाहाबाद में मैंने अच्छा नहीं गाया. मैंने गंदा गाया. मूड भी ख़राब था. साउंड खराब था लेकिन लोगों को बहुत अच्छा लगा, लोग झूमे भी. मैं तो लोगों को लपेट लेता हूं, क्लासिकल भी गाता हूं, ग़ज़ल भी, ठुमरी भी, भजन भी, पंजाबी भी और आजकल तो दोहे भी गा रहा हूं..”
गाने के लिए ग़ज़ल के चयन का मेयार क्या है | “पहले तो उसकी ज़ुबान साधारण हो, जो सबको समझ में आ जाए. पूरी तरह से उर्दू न हो. थॉट अच्छा हो और ज़िंदगी के आस-पास हो कि हर किसी को लगे कि मेरी ही बात हो रही है. रिद्म और दूसरा म्यूज़िकल ट्रीटमेंट कुछ कम या नहीं भी है तो यह मैं अपने हिसाब से कर लेता हूं.”
ग़ज़ल का विकास और आजकल की पॉपुलर गायकी | “पहले तो मुशायरे में शायर गा दिया करते थे या पढ़ दिया करते थे. उनका अपना तरन्नुम होता था. फिर ग़ज़ल कोठों पर गाए जाने लगी, सारंगी के साथ. उसके बाद ड्राइंग रूम में ग़ज़ल आ गई, फिर स्टेज पर. अब मॉडर्न चोले में ग़ज़ल स्टेज पर है. आजकल ज्यादातर जो लोग आ रहे हैं, वह ग़ज़ल नहीं गा रहे हैं. दो-चार गाने हिट हो गए, उससे उन्हें कुछ देर की लोकप्रियता और पैसे तो मिल जाते हैं लेकिन देखिए ग़ज़ल की पूरी तस्वीर में ऐसे लोग कहां है? आजकल जो लोग आ रहे हैं, वह संगीत तो सीखते नहीं. शॉर्टकट चाहते हैं, ज़ुबान भी नहीं सीखते. इससे बात तो बनती नहीं.”
आज के हिंदुस्तान में ग़ज़ल की लोकप्रियता पर | “आज ग़ज़ल की लोकप्रियता बहुत ज़्यादा है. आपने इलाहाबाद में देखा कि जितने लोग हॉल के अंदर थे, उतने ही बाहर. हर जगह का यही हाल है. जयपुर में पांच हज़ार लोग थे, दिल्ली के हौज ख़ास में तो आठ हज़ार लोग. अहमदाबाद में 30-40 हज़ार लोग खुले में ग़ज़ल सुनने के लिए आए थे. देखिए ग़ज़ल के बोल अच्छे हों, पोएट्री हो, थॉट हो, क्लासिकल रंगत हो तो अच्छा सुनने वाले एन्जॉय करते ही हैं.”
ग़ज़ल, भजन, ठुमरी को फ़िल्म संगीत जैसी लोकप्रियता क्यों नहीं | “ठुमरी, कजरी, ख्याल, टप्पा, दादरा आदि के श्रोता अलग हैं. इन्हें सुनने वह जाते हैं जो सुनने में प्रशिक्षित हैं. ग़ज़ल की लोकप्रियता अलग तरह की है. संगीत की समझ और शौक़ रखने के अलावा बोल, थॉट, पोएट्री में दिलचस्पी रखने वाले भी ग़ज़ल सुनते हैं. फ़िल्म संगीत सबके लिए होता है.”
मिर्ज़ा ग़ालिब को गाने के तजुर्बे, उससे हासिल शोहरत पर | “मिर्ज़ा ग़ालिब सिर्फ़ एक नाम या एक शायर नहीं हैं. वह पोएट, थिंकर और फ़िलॉस्फर हैं. वह सदियों के शायर हैं और मैं सदी का भाग्यशाली फ़नकार जिसने मिर्ज़ा ग़ालिब को गाया है. मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब को गाने का मौका मिला, वह बहुत मक़बूल हुआ. हालांकि, ग़ालिब को बहुत लोगों ने गाया लेकिन तमग़ा मुझे मिला, सेहरा मेरे सिर बंधा. इतनी शोहरत के पीछे हो सकता है कि मेरा ग़ालिब से किसी जन्म का कोई रिश्ता हो.”
सिनेमा में गाने और संगीत देने का कैसा अनुभव | “सिनेमा में सिचुएशन और हीरो के लिए गाने गाए जाते हैं. डायरेक्टर की इच्छा के लिए गाना होता है. आजकल तो यह भी हो गया है कि फ़िल्म फ़्लॉप हुई तो गाना भी डूब जाता है.”
संगीत और अन्य कला माध्यम | “जीवन के नवरस कला के किसी माध्यम में हो सकते हैं. संगीत में एक अलग अनुभूति है. संगीत का एडवांटेज है कि इसके साउंड में वाइब्रेशन है. सुनने वालों पर वाइब्रेशन अलग और ज्यादा असर करता है. उनसे जुड़ जाता है. अन्य कला माध्यमों में यह नहीं है. कोई पेंटिंग देख कर रोएगा नहीं लेकिन गाना सुनकर रो सकते हैं. साउंड का इफेक्ट वीडियो के बैकग्राउंड से हटा दीजिए फिर फ़र्क देख लीजिए. यह अधिक सूक्ष्म है.”
एक गंभीर कलाकार की सामाजिक ज़िम्मेदारियों पर | “मैं अपनी कला के साथ ईमानदार रहूं, यही होना चाहिए. हमारा काम है ऑडियंस को एंटरटेन करना. हम किसी राजनीतिक पार्टी के साथ नहीं और किसी के ख़िलाफ़ भी नहीं. हमारा काम है ग़ज़ल सुनने आए लोगों का मनोरंजन करना, न कि प्रवचन देना. ज़िंदगी की जो सही चीज़ें हैं, उसे कला के जरिए कहता रहूं. यही मेरी ज़िम्मेदारी है.”
किसको पढ़ना पसंद है? | “कृष्णमूर्ति को पढ़ना शुरू किया लेकिन वह बोर करने लगा. फिर ओशो को पढ़ा. कविता-शायरी बहुत पढ़ता हूं. सभी शायरों को पढ़ता हूं, नए पुराने सभी को.”
शौक? | “बागवानी का शौक है. पेड़-पौधों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है. जुआ खेलने का भी शौक़ है. रेस के घोड़ों पर बाज़ी लगाना और घोड़े रखना ख़ूब भाता है.”
किसको सुनते हैं? | “ज्यादातर क्लासिकल सुनता हूं. आजकल राशिद खान को सुन रहा हूं. बढ़िया गाते हैं. मेहंदी हसन, ग़ुलाम अली को सुनना अच्छा लगता है. हर किसी को सुनता हूं, जिनसे कुछ सीख सकता हूं, जिनके गाने में कुछ ‘सरप्राइज़’ है. इनके अलावा मधुरानी है, नुसरत फ़तेह अली ख़ान है.”
सेक्स के बारे में क्या सोचते हैं? | “यह बेसिक ज़रूरत है, भूख जैसी. यह मुझे पसंद है. यह अलग बात है कि ख़ुद से पूछते रहना होगा कि किसके साथ और किस तरह? इस बात को हमेशा चेक करते रहना चाहिए कि किसी की अनिच्छा तो नहीं, कहीं अपराध तो नहीं? नैतिक है या नहीं? कोई हर्ट तो नहीं हो रहा है?”
कोई घटना जो बार-बार याद आए? | “बच्चे विवेक की मौत नहीं भूलती. वह बार-बार याद आता है.”
कोई निजी ख़्वाहिश | “जो मेरे सहयोगी हैं, जान-पहचान वाले हैं, जो मेरे आस-पास हैं, उनकी भी मदद हो. उन्हें भी ऊपर उठाना है. पैसा काफी कमा लिया लेकिन किसके लिए कमाया? कितना खा लेंगे? ज़रूरी है कि जो आस-पास हैं, वे भी सुखी हो जाएं. साथ ही, अच्छा संगीत मेरे साथ रहे बना रहे.”
कुछ लिखते भी हैं? | “अपने लिए लिखता हूं. मेरा आखिरी एल.पी. अपना लिखा होगा. उसके बाद सब बंद कर दूंगा. वह आख़िरी होगा.”

(कवरः समीर मंडल की पेंटिंग. उनके फ़ेसबुक पेज से साभार.)

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जगजीत सिंह वाया जालंधर


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