जसवंत सिंह कंवल: विदा हो गया पंजाबी लोकाचार का प्रतिबद्ध महान कलमकार!

  • 6:32 pm
  • 1 February 2020

पंजाबी गल्प की महान शख्सियत जसवंत सिंह कंवल चले गए. ‘बाबा बोहड़’ (वटवृक्ष) के नाम से पुकारे जाने वाले कंवल ने मोगा में गांव ढूडिके में शनिवार (एक फरवरी) को आख़िरी सांस ली. वह 101 साल के थे.

उन्होंने बीस साल की उम्र से लिखना शुरू किया था और सौ साल की उम्र तक यानी साल भर पहले तक उनकी कलम लगातार चलती रही. पंजाबी में सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में उनका नाम शुमार है. कुछ लोग उन्हें पंजाब का रसूल हमजातोव भी कहते हैं. उनके उपन्यासों में पंजाब के ग्रामीण जीवन की धड़कन सुनाई देती है. पंजाब की लगभग हर सियासी, सामाजिक और सांस्कृतिक लहर उनकी रचनाओं का आधार विषय बनती रही है. आलोचक उन्हें ‘लहरों का लेखक’ भी कहते थे.

सन् 1969  में पंजाब में नक्सलबाड़ी लहर ने दस्तक दी थी. पंजाब के जनजीवन पर उस लहर ने जो असर छोड़ा,  आज 50 साल के बाद भी उसे महसूस किया जा सकता है. पंजाबी के पाश, लाल सिंह दिल, सुरजीत पातर, संत राम उदासी, अमरजीत चंदन और हरभजन हलवारवी नक्सलबाड़ी आंदोलन की देन हैं. लेकिन उस लहर या आंदोलन की एक बड़ी देन जसवंत सिंह कंवल का लिखा उपन्यास ‘लहू दी लौ’ है, जिसके अनगिनत संस्करणों की पांच लाख से ज्यादा प्रतियां छपीं. जसवंत सिंह कंवल ने इसे सन् 1970 के बाद लिखा था. इसकी पांडुलिपि तैयार हुई तो पंजाब में इसे किसी ने नहीं छापा. तब आपातकाल लागू हो गया था और कई क़िस्म की पाबंदियां थीं लेकिन कंवल इसे छपाकर घर-घर पहुंचाने पर आमादा थे. ‘लहू दी लौ’ आख़िरकार सिंगापुर में छपा और गुप्त रूप से पंजाब लाया गया. बड़ी तादाद में लोगों ने इसे पढ़ा और सराहा. पंजाब में यह आपातकाल हटने के बाद छपा. तब भी लोगों ने इसे ख़ूब ख़रीदा और पढ़ा. यह उपन्यास पंजाब के किसानों के संघर्ष, उनकी मुश्किलों और उस दौर में नक्सलवाद की प्रासंगिकता की गाथा है. आज भी ‘लहू दी लौ’ पंजाबी में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले उपन्यासों में शुमार है. हर साल इसका नया संस्करण छपता है. इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी ख़ूब पढ़ा गया और इसे जसवंत जी की प्रतिनिधि कृति माना जाता है.

‘रात बाक़ी है’, ‘पूर्णमासी’, ‘पाली’ और ‘तोशाली दी हंसो’ उनके अन्य बहुचर्चित उपन्यास हैं. ‘तोशाली दी हंसो’ के लिए सन् 1998 में उन्हें भारतीय साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. सन् 1996 में कहानी संग्रह ‘पक्खी’ के लिए साहित्य अकादमी फेलोशिप दी गई. कई बार अपने गांव के निर्विरोध सरपंच चुने गए जसवंत सिंह कंवल ग्रामीण पंजाब, पंजाबी सभ्याचार और समाज के हर उतार-चढ़ाव से बख़ूबी वाक़िफ़ थे. ग्रामीण समाज में ज़मीनी स्तर पर विचर कर वह उसका सूक्ष्म अध्ययन करते. इसीलिए उनकी रचनाओं में ग्रामीण समाज की ऐसी छवियां और परछाइयां मिलती हैं, जो अन्यत्र कहीं नहीं हैं. लोकभावना की कंवल सरीखी सूक्ष्म समझ उनके किसी दूसरे समकालीन के यहां नहीं पाई गई. इसीलिए कहने वालों ने उन्हें पंजाब का रसूल हमजातोव कहा तो उनकी रचनाओं पर लेव टॉलस्टॉय की छाप भी देखी. लेखकीय स्तर पर वह कई आंदोलनों से जुड़े. 1969 के पंजाब के नक्सलवादी आंदोलन का खुला समर्थन किया तो व्यवस्था के ख़िलाफ़ सिख अलगाववादी आंदोलन से भी खुली सहानुभूति रखी. दोनों ही बार वह बेख़ौफ़, बेबाक और तार्किक दिखे. खालिस्तानी लहर के दौरान उनकी वैचारिक पुस्तक ‘पंजाब बोलदा है’  रिकॉर्ड तादाद में बिकी. नक्सलवादी आंदोलन और खालिस्तानी लहर के दौरान कई बार सरगोशियां हुईं कि हुक़ूमत उन्हें गिरफ्तार कर सकती है. उन्हें सरकारी स्तर पर चेतावनियां भी दी गईं मगर वह अडिग रहे. यह उनकी बुलंद कलम का भी करिश्मा था. वैचारिक लेखन में उन्होंने नशों का छठा दरिया बनते पंजाब और पंजाबियों के विदेश-प्रवास पर जमकर लिखा तथा बुज़ुर्ग के लहज़े में लोगों को लताड़ा. उनके लेखों में अक्सर यह पंक्ति कहीं न कहीं रहती कि, ‘पंजाबियों अब भी संभल जाओ नहीं तो मारे जाओगे !’ अंधविश्वास, बिगड़ते सामाजिक ताने-बाने और मरती किसानी पर भी उन्होंने निरंतर लिखा.

जसवंत सिंह कंवल को ‘साहित्य रत्न’ का ख़िताब भी मिला. 27 जून, 2019 को जब उन्होंने उम्र का 100वां पड़ाव पार किया तो उनके गांव में मेला लगाकर जश्न मनाया गया. बाद में पंजाब के लगभग हर जिले, कई क़स्बों और गांवों में अवाम ने अपने इस महबूब लेखक की जन्म शती जश्न की तरह मनाई. अपनी दिनचर्या वह खेतों में घूम कर, लिखने की मेज़ पर बैठकर शुरू करते और शाम को भी यही सिलसिला होता. 101 साल के करीब पहुंचते-पहुंचते कुछ अरसे के लिए सेहत ने उनका साथ छोड़ा. इस अपवाद को छोड़ दें तो कहा जा सकता है कि मृत्यु का सच उनकी जीवन संध्या में बहुत सम्मान के साथ उतरा. ठीक उतने सम्मान के साथ जिसके वह हक़दार थे. उन्हें बेवजह ही बाबा बोहड़ नहीं कहा जाता था. समूह पंजाबी अपने इस हरमनप्यारे, महबूब लेखक को स्नेह-सम्मान से ‘बाईजी’ कहा करते थे. जसवंत सिंह कंवल नाम के इस वटवृक्ष की छाया यक़ीनन लंबे समय तक रहेगी और उनके रचनात्मक लेखन की रोशनी भी, हमेशा ही जिसे वह ख़ुद मशाल बनाने के तमन्नाई रहे. पंजाबी लोक जीवन के इस महान कलमकार को आख़िरी सलाम…!


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