आमिर ख़ान के निराले किरदार

हिंदी सिनेमा में सफलता के नए आयाम स्थापित करने वाले आमिर ख़ान आज अपनी ज़िंदगी के 59 साल मुक़म्मल कर रहे हैं, सुनहरे पर्दे पर नायक के तौर पर वह 35 साल पुराने हो चुके हैं फिर भी हमेशा कुछ नया और दिलचस्प, लीक से हटकर करने की उत्सुकता और चाहत उनमें किसी गंभीर नौजवान सरीखी ही दिखाई देती है.

वालिद और चाचा के फ़िल्मी दुनिया से वाबस्ता होने की वजह से वह दुनिया उनके लिए कभी नई नहीं थी, न ही ख़ुद को साबित करने के लिए उनके पास संघर्षों की वैसी कोई दास्तान है, जैसी कि अमूमन बहुतेरे दूसरे अभिनेताओं के पास है. ‘क़यामत से क़यामत तक’ के नायक के तौर पर पहचान बनाने से बहुत पहले ही वह ‘यादों की बारात’ और ‘मदहोश’ फ़िल्मों में पर्दे पर आ चुके थे. उनकी पहली फ़िल्म से लेकर हाल तक की फ़िल्मों पर ग़ौर करें तो उनमें एक साम्य ज़रूर महसूस करेंगे कि अपने किरदारों को लेकर वह हमेशा ही बहुत ही सजग रहे हैं. नब्बे के दशक के बेहद मशहूर और क़ामयाब किरदारों की बराबरी करने की कोई ललक उनमें दिखाई नहीं देगी.

आमिर ने चलन से हटकर किरदार चुने, कहानी में उनकी प्रासंगिकता के साथ ही सामाजिक सरोकार की कसौटी पर उन्हें परखा है. मसलन, धूम-3 में वह एक चोर की भूमिका में थे मगर पूरी फ़िल्म में चोरी करते हुए कोई दृश्य नहीं मिलता. इसी के बरक्स धूम, धूम-2 और डॉन-2 सरीखी फ़िल्मों में चोरी वाले दृश्यों को ख़ूब तवज्जो मिली थी. उनकी शुरुआती फ़िल्में चाहे वह ‘राख़’ और ‘होली’ हों या फिर ‘क़यामत से क़यामत तक’ या ‘रंगीला’ – उनके सारे किरदार अपने भीतर ख़ास तरह का नयापन लिए होते हैं. 1999 में आई फ़िल्म ‘सरफ़रोश’ में ए.सी.पी. अजय सिंह राठौर के किरदार को लेकर उन्होंने जितना सोचा, उससे कहीं ज़्यादा शिद्द्त और अनुशासन से उसे पर्दे पर जिया. उस भूमिका में भी वह दर्शकों को यक़ीन दिलाने में कामयाब होते हैं कि यह किरदार उनसे बेहतर शायद ही कोई और कलाकार कर सकता था.

साल 1999 में ही रिलीज़ हुई दीपा मेहता की ‘1947 अर्थ’ में आइसकैंडी वाला उनका किरदार निगेटिव था, अनूठा और दिलफ़रेब भी. आमिर के किरदारों की यह ख़ूबी रही है कि कहानी भले ही उनको केंद्र में न रखती हो मगर कहानी में उनकी एक विशिष्ट जगह ज़रूर होती है. ‘रंग दे बसंती’, ‘तारे ज़मीन पर’ और ‘थ्री इडियट्स’ को याद कर सकते हैं, जिसमें केंद्रीय भूमिका में आमिर अकेले नहीं थे और साथी कलाकारों से बराबर स्पेस साझा किया. कोमल नाहटा के साथ एक साक्षात्कार में के.के. मेनन ने कहा था – आमिर ने हमेशा अच्छी स्क्रिप्ट को तवज्जो दी है, उनके अंदर स्टारडम वाला ईगो नहीं है. वो हर किरदार में घुल जाने को ही अपना अंतिम मक़सद मानकर फ़िल्म करते हैं.

अपनी हर नई फ़िल्म के साथ वह निराले प्रयोग करते रहे हैं, तो किरदारों के साथ भी. दंगल के लिए वो वज़न बढ़ा लेते हैं तो लाल सिंह चड्ढा के लिए वज़न घटा लेते हैं मगर जो भी करते हैं, शिद्दत से करते हैं. ‘रंग दे बसंती’ में डी.जे. का किरदार निभाने के लिए जब उन्होंने हामी भरी थी, तो हालत ये थी कि फ़िल्म की स्क्रिप्ट को तक़रीबन सभी प्रोडक्शन हाउस ठुकरा चुके थे. बक़ौल राकेश मेहरा, “अगर आमिर ‘रंग दे बसंती’ से नहीं जुड़ते तो ये फ़िल्म अभी नहीं बन पाती और शायद कभी नहीं…..”. ये आमिर ही थे, जिन्होंने डी.जे. के किरदार को क़ाग़ज़ पर ही समझ लिया, जान लिया कि दिलचस्प और दिल छू लेने वाली कहानी के साथ-साथ इस किरदार में असीमित संभावनायें हैं. रंग दे बसंती देशभक्ति की विषयवस्तु पर बनने वाली फ़िल्मों से एकदम मुख़्तलिफ़ ऐसी फ़िल्म थी, जो अतीत और वर्तमान के बीच एक तरह के पुल का काम करती है.

मुझे याद है कि यह 2005 में फ़रवरी की बात है, ‘रंग दे बसंती’ की आधिकारिक घोषणा के लिए ‘बादलों में से चाँद नज़र आ गया’ नाम से एक आयोजन हुआ. आयोजन को यह नाम दिए जाने के मूल में आमिर ख़ान का बदला हुआ लुक था. मंगल पांडे के किरदार की तैयारी के लिए बड़े बाल और मूंछों वाला वह चेहरा आमिर तक़रीबन 20 महीनों की मशक्कत के बाद गढ़ पाए थे, जुलाई 2003 से ही वह इस पर जुट गए थे. उस आयोजन के दौरान आमिर ने मीडिया से अपने नए हुलिए के बारे में उनकी प्रतिक्रिया जानी, प्रसून जोशी के बारे में मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, साथ ही कुणाल कोहली की फ़ना का ज़िक्र भी किया. ग़ज़नी फ़िल्म की शूटिंग अप्रैल 2007 में शुरू हुई और जून 2008 तक चली. मार्च 2008 में होली के मौक़े पर अब्बास मस्तान की ‘रेस’ के प्रीमियर पर पहुँचे तो मुंडे हुए सिर वाला उनका हुलिया ख़ूब चर्चा में रहा. यों उनका मुंडा हुआ सिर ‘ग़ज़नी’ के किरदार की ज़रूरत थी.

किरदार की ज़रूरत की वजह से ही आमिर ने अपने कॅरिअर में पहली बार आठ पैक एब्स बनाए, फ़िल्म को लगातार लोगों के ज़ेहन में बनाए रखा और उत्सुकता बढ़ाते रहे. अक्टूबर 2008 में जब फ़िल्म ‘हीरोज़’ रिलीज़ हुई थी, उसी दौरान ग़ज़नी का वह सनसनीख़ेज़ पोस्टर जारी हुआ, जिसमें आमिर की टॉपलेस छवि थी, ‘हीरोज़’ की प्रेस कॉफ़्रेंस में सनी द्ओल और सलमान ख़ान जैसी मज़बूत कद-काठी वाले कलाकारों ने भी जिसकी तारीफ़ की. दिसंबर में जब ग़ज़नी रिलीज़ हुई तो दर्शकों की उत्सुकता के चलते सौ करोड़ की कमाई करने वाली हिन्दी सिनेमा की पहली फ़िल्म बनी, 100 करोड़ क्लब की शुरुआत इसी फ़िल्म से हुई. 2009 की थ्री इडियट्स से 200 करोड़ तो साल 2014 की पी.के. से 300 करोड़ क्लब की शुरुआत हुई. तलाश (2012), धूम-3 (2013) और पी.के.(2014) में आमिर के किरदारों को हम उनके निरालेपन के लिए अब भी याद करते हैं.

2007 में आई ‘तारे ज़मीन पर’ और थ्री इडियट्स ने तालीम के इदारे में बच्चों पर उनके माँ-बाप की उम्मीदों के बोझ के मसले को केंद्र में रखा. इन फ़िल्मों ने समाजी फ़िक्र की सूरत और सोच पर कुछ असर तो डाला ही है. दंगल, सीक्रेट सुपरस्टार और हाल की फ़िल्म ‘लापता लेडीज़’ में वह महिलाओं के मूलभूत अधिकारों की प्रासंगिकता के सवाल पर नए सिरे से सोचने और सामाजिक बदलावों की ज़रूरत के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं. आमिर की शख़्सियत और उनके काम के तरीक़े से मुतासिर मनोज बाजपेई ने फ़रिदून शहरयार से बातचीत में एक बार कहा कि आमिर इतनी गंभीरता के साथ काम करते हैं कि उनके निर्देशक शूटिंग के पहले से ही आश्वस्त रहते हैं कि यह कलाकार किसी स्तर पर कोई लापरवाही नहीं करेगा. किसी कलाकार की ऐसी प्रतिबद्धता किसी निर्देशक के लिए बेहद ज़रूरी तो होती है.

टेलीविज़न के लिए उनके शो सत्यमेव जयते को भी याद कर सकते हैं, जिसके लिए उन्होंने ऐसी विषयवस्तु और ऐसे मुद्दों को चुना, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आए दिन जिनसे हम दो-चार होते हैं. अपनी फ़िल्मों की तरह ही सत्यमेव जयते का स्वरूप तय कर पाना, उनकी टीम की गहन रिसर्च और किसी अहम् मुद्दे को दिलचस्प बनाने के फेर में पड़ने के बजाय संजीदगी से उसे पेश करना यक़ीनन कम चुनौती भरा नहीं रहा होगा.

आमिर पारखी हैं और क़ाग़ज़ पर ही फ़िल्म की दौड़ का अंदाज़ा लगा लेते हैं. ये आमिर ही हैं, जो फ़िल्म में काम करने के लिए कोई एडवांस में नहीं लेते हैं ताकि उनके मेहनताने के फेर में फ़िल्म बनाते हुए कोई आर्थिक समझौता करने की नौबत न आए.

उनके मुरीदीन की दुआ यह कि यह जोश और जज़्बा बना रहे.


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