लोग-बाग | शीरोज़ की दुःख वाटिका और सुख का गुलाब
आगरा | किसी के लिए भी ‘शीरोज़ हैंगआउट’ में दाख़िल होना गहरे दुःख और संत्रास का सबब होता है. महिलाओं के विरुद्ध होने वाली एसिड हिंसा के ख़िलाफ़, एक ख़ास उद्देश्य और विचार के प्रचार-प्रसार के लिए बना रेस्त्रां! आगरा में बसा यह यह ऐसा पड़ाव है जिसे ‘एसिड अटैक’ में ज़ख़्मी होने के बाद बच निकली बहादुर लड़कियां ख़ुद चलाती हैं. उनके भीतर अतीत के प्रति ग़ुस्सा भरा है तो भविष्य के प्रति उम्मीद और प्रेम. यहाँ आने वाले सभी ग्राहकों को (जो उनकी बीती त्रासद ज़िंदगी से वाक़िफ़ होते हैं) वे दिल खोलकर स्वागत करती हैं. बतौर ‘होस्टेस’ वे उनकी तश्तरियों में खाने-पीने की दूसरी चीज़ों के साथ-साथ अपने संघर्षों के जज़्बे का कड़क छौंका और सौहार्द की प्रेममयी चाशनी परोसती हैं. वे मेहमानों के साथ वय के अनुरूप बहन, बेटी और मित्र के रूप में पेश आती हैं.
देश और विदेश से आने वाले सृजनात्मक प्रवृत्ति के लोगों ने इन लड़कियों और औरतों पर उनके गुज़र चुके त्रासद जीवन और आशा भरे वर्तमान को लेकर कई चर्चित डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बनाई हैं. इन रचनाकारों में कुछ अनजाने नाम शामिल हैं तो कुछ नामचीन भी. देश-विदेश के बहुत से पत्रकारों ने अख़बारों और पत्रिकाओं में इन पर विस्तार से न्यूज़ रिपोर्ट भी लिखी हैं.
दीपिका पादुकोण अभिनीत फ़िल्म ‘छपाक’ भी ‘शीरोज़’ और इसके संगठन ‘छाँव फाउंडेशन’ से जुड़ी लड़कियों के जीवन और संघर्ष से जूझने की दास्तान पर बनी अनोखी और मार्मिक फ़िल्म थी. फ़िल्म की निर्माता-निर्देशक मेघना गुलज़ार एक बार आगरा आईं तो घूमते-टहलते ‘शीरोज़ हैंगआउट’ में चली गई थीं. कुछ घंटे यहाँ बैठने और इन जांबाज़ और बहादुर लड़कियों की दास्तान सुनने के बाद जब वह बाहर निकलीं तो उनके ज़ेहन में नई फ़ीचर फ़िल्म का ताना-बाना घुमड़ रहा था, पर्याप्त रिसर्च के बाद बाद में जिसे उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘छपाक’ में ढाला.
ताजमहल के ऐन पिछवाड़े कई बरस पहले जब ग़मज़दा लेकिन ज़िंदादिल लड़कियों का यह ठिकाना आबाद हुआ था, तब से मेरी यहाँ आने की बड़ी इच्छा थी लेकिन एक या दूसरी वजह के चलते आज पहली अप्रैल को ही मैं और मनीषा यहाँ पहुँच सके. हमारी मुलाक़ात गीता और नीतू नामकी मां-बेटी से हुई. दिन की अपनी ‘शिफ़्ट’ निबटा कर वे घर जाने की तैयारी में थीं.
गीता के पति ने आक्रोश में जब अपनी पत्नी पर एसिड फेंका, तब एसिड की चपेट में उनकी दो साल की नवजात नीतू भी आ गई. मां के साथ बच्ची भी झुलस गई और उसकी दोनों आँखें चली गईं. कई दफ़ा की ‘ऑपथेलेमिक सर्जरी’ और 30 साल से ज़्यादा का समय बीत जाने के बावजूद वह आज भी साफ़-साफ़ नहीं देख सकतीं. इसी तरह रूपा, बाला, डॉली, रुकैया और मधु मिलीं. सबके पास दुखों की अपनी-अपनी विराट गाथाएं हैं. इन्हें सुनकर किसी का भी दिल दहल जायेगा. हो सकता है इनमें से कुछ को आपने अख़बारों और डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों में देख रखा हो. जानकर आप दुखी हुए होंगे. सुनकर हम पति-पत्नी का भी मन विचलित हो गया.
दुःख भरे पौधों की इस बगिया में लेकिन सुख से दमकता एक गुलाब भी है. गुलाब का नाम है सिम्मी. सिम्मी ‘एसिड सर्वाइवर’ मधु की 18 बरस की बेटी है. मधु युवा अवस्था में ही कॉलेज जाते समय एसिड अटैक का शिकार हुई थीं. बहुत सालों के बाद उन्होंने चाय का खोखा चलाने वाले एक युवक से विवाह किया. तीन बच्चों में सिम्मी उनकी सबसे बड़ी संतान है. मधु कोई चार साल पहले ‘शीरोज़’ और ‘छाँव फाउंडेशन’ से जुड़ीं. सिम्मी उस समय 14 साल की स्कूल ड्रॉपआउट थी. स्कूल छोड़े उसे मुद्दत हो गई थी.
‘छाँव फाउंडेशन’ न सिर्फ़ एसिड हमलों की शिकार लड़कियों और महिलाओं का लालन-पालन करता है बल्कि उनके आश्रितों की भी पूरी देखभाल करता है. सिम्मी जब मां के साथ ‘शिरोज़ हैंगऑउट’ आने-जाने लगी तो ‘छाँव फाउंडेशन’ के वॉलेंटियर्स ने उसे भी हाथों-हाथ लिया. उन्होंने उसे स्कूल जाकर पढ़ाई की अपनी टूटी श्रृंखला फिर से जोड़ने को प्रेरित किया. वह तैयार हो गई. दो साल बाद उसने हाई स्कूल का प्राइवेट इम्तहान दिया और वह ठीक-ठाक नंबरों से पास भी हो गयी. वॉलेंटियर्स ने उसके सांस्कृतिक उत्थान की भी पहल की.उसके ग़ुम हो चुके पुराने शौक़-गायन, अभिनय और नृत्य के लिए अलग-अलग प्रशिक्षण शालाओं में भेजना शुरू किया. फ़िलहाल वह आने वाले दिनों में इंटरमीडिएट की परीक्षा की तैयारी में जुटी है. इसके अलावा उसने आगरा के सदर बाज़ार की एक प्रसिद्ध ‘डांस अकेडमी’ में ‘बेसिक’ डांस सीखा. डांस का उसका आगे का प्रशिक्षण चल रहा है. इस बीच वह ‘एकेडमी’ की इस शाखा का प्रबंधन भी संभाल रही है.
चौड़ा माथा, कजरारे मृगनयन, गोल-मटोल चेहरा, घने बाल, श्याम वर्ण और गहरी मुस्कराहट से भरे चेहरे वाली सिम्मी पहली नज़र में ही किसी को भी आकर्षित कर लेती है. हम लोग जब वहां पहुंचे तो वह अपनी ‘एकेडमी’ से थकी-हारी लौटी थी. मेरे अनुरोध पर वह हँसते हुए तत्काल डांस करने को तैयार हो जाती है. ‘हैंगआउट’ की दो मेज़ें खिसका कर उसके लिए ‘डांसिंग फ़्लोर’ तैयार किया जाता है. म्यूज़िक सिस्टम ऑन होता है और सिम्मी एक पंजाबी लोक गीत पर थिरकना शुरू कर देती है. धीरे-धीरे उसका पूरा शरीर नृत्य के साथ वाबस्ता होता जाता है. संगीत की बढ़ती गति के साथ वह भी अपने शरीर के एक-एक अंग को ताल बद्ध करती जाती है.
मैं गीत के शब्दों को नहीं भांप पाता लेकिन उनकी अभिव्यक्ति मुझे सिम्मी के डांस में दिखती है. पसीने में भीगता जाता उसका शरीर, चेहरा और दमकती आँखें, सब मस्त होकर नृत्य मुद्रा में लिप्त हैं. कोई छह मिनट तक वह निर्बाध नृत्य करती रही. उसने अपने नृत्य से जैसे वहां मौजूद हम सभी को ‘हिप्नोटाइज़’ कर लिया था.. एक युवा दंपत्ति, जो अभी तक ‘हैंगआउट’ में सिर्फ़ खाने-पीने में मशगूल थे, सब कुछ छोड़ कर सिम्मी की नृत्य भंगिमाओं में खो जाते हैं. नृत्य ख़त्म होते ही जोड़े की लड़की उठकर सिम्मी से लिपट जाती है. सिम्मी उसके तमाम सवालों का जवाब देती जाती है. वह उस लड़की को अपने ‘इंस्टाग्राम’ एकाउंट की बाबत बताती है. लड़की उसका आईडी नोट करती है. सिम्मी सभी एसिड अटैक सर्वाइवर महिलाओं की चाहना है. सभी उसे बेइंतिहां प्यार करते हैं. पहली नज़र में मैं और मनीषा भी उसे प्यार करने लग जाते हैं.
‘शीरोज़’ से लौटते समय मन में यह सवाल बार-बार उमड़ता-घुमड़ता रहा- क्या और बड़ी होकर भी सिम्मी ‘एसिड अटैकर्स’ के विरुद्ध चलने वाले ‘छाँव’ के बड़े लोक अभियान का हिस्सा बनना जारी रखेगी?
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