लोग-बाग | लगन से ख़ाली छत्तर बाबा को अब नवरात्र का इंतज़ार

हमारी पांच साल पहले की मुलाक़ात छत्तर बाबा को ख़ूब याद थी, अख़बार में छपी अपनी तस्वीर भी. फ़ोन पर बातचीत में यह सब याद करते हुए बोले – मगर भइया, कोई मदद नहीं हो पाई हमारी. कोरोना में लंबी बैठकी हो गई. तब कोई काम ही नहीं था. इधर लगन के दिनों में ख़ूब भीड़ लगी. एक दिन में डेढ़ हज़ार-दो हज़ार तक बेचा. अब फिर से ख़ाली है. देखो, नवरात्र आए तो कमाई-धमाई हो और कुछ भला हो जाए.
गोरखपुर में काम करते हुए भाड़ और भड़भूजे की तलाश में एक रोज़ शिवहर्ष के साथ चौरीचौरा गया था. नई बाज़ार से गुज़रते हुए एक खोखे में जमे छत्तर बाबा और उनके पास रखे नगाड़ों पर निगाह गई तो रुककर उनसे मिलने चला गया. मेरा अंदाज़ था कि वह शायद नगाड़ों की मरम्मत ही करते होंगे. मगर वह तो नगाड़ा बनाते भी हैं. और नगाड़ा ही नहीं, वह मृदंग और ढोल भी बनाते हैं. नगाड़े और निहाई का यह मेल मेरे लिए एकदम नया और अनूठा है.
चौरीचौरा में भोपा बाज़ार कभी चमड़े की बड़ी मंडी हुआ करता था. बक़ौल छत्तर, उनके गाँव नटवा के कई लोग कच्चा चमड़ा ख़रीद लाते और उससे जूते-चप्पल बनाया करते. वह भी चप्पल बनाते थे. जब मंडी और कारख़ाने नहीं रहे तो रोजी के लिए बाज़ार में आकर बैठ गए.
बीस साल पहले नई बाज़ार में बैठने वाले छत्तर बाबा के खोखे में निहाई अब भी है, हालांकि रेडीमेड जूते-चप्पल के चलन ने हाथ की बनी उनकी चप्पलों को बेदख़ल कर दिया. अब तो लोग बस मरम्मत कराने ही उनके पास आते हैं. उन्होंने नगाड़ा बनाना शुरू कर दिया.
- फ़ोटो | जे.पी.यादव
इस दौर में जब नक्क़ारख़ाने में तूती का आवाज़ ही सुनी जा रही हो, ढोल और ड्रम जैसे वाद्यों से चमड़ा ग़ायब हो चुका हो, छत्तर बाबा को चमड़ा मढ़ते देखना भी अद्भुत अनुभव है. ग़नीमत है कि पूरब में नगाड़े की अहमियत बची रह गई है और ब्याह-बारात के साथ ही खेल-तमाशों और देवी पूजन के आयोजनों में इसकी आवाज़ अब भी गूंजती है.
छत्तर ख़ुद संगीत नहीं समझते और न ही अपने गढ़े हुए को संगीत के पैमाने पर परख सकते हैं मगर जो आवाज़े सुनते हुए वह बड़े हुए, कान उसके अभ्यस्त हैं. और उसी के भरोसे वह वाद्य बना डालते हैं.
उनके कुनबे में पाँच बेटियां और दो बेटे हैं. बेटियाँ अपने-अपने घर गईं और एक बेटे का भी ब्याह कर चुके हैं. आज फ़ोन पर उन्होंने बताया कि बड़ा बेटा सऊदी में है, टायर का मिस्त्री. औऱ छोटा पूना में शटरिंग का काम करता है. खाने और रहने की जगह का ज़िम्मा ठेकेदार का और चार सौ रुपये रोज़ दिहाड़ी.
अपने हुनर पर उन्हें भरोसा है और जो जुटा पाते हैं, उससे संतुष्ट. उन्हीं के गाँव के दो और लोग सोमई और भुंअर उनके खोखे के पास ही बैठते हैं और वे भी चमड़ा बरतने के हुनरमंद हैं. उनके बारे में पूछने पर छत्तर बाबा ने हुलसकर बताया – ओनहु लोग ठीकै हैं. किसी तरह चल ही रहा है सबका काम.
कवर | prabhatphotos.com
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