राही | जिसे ज़िंदगी भर हिंदुस्तानियत की तलाश रही

साम्प्रदायिकता आज देश के लिए भयानक चुनौती बनकर सामने है. साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए विष बेल की तरह है. इसका ज़हर धीरे-धीरे हमारे बुद्धिजीवियों में प्रवेश कर रहा है. रोमानी अतीत प्रेम के नाम पर हम पुनरुत्थानवाद की ओर पलायन कर रहे हैँ.

राही मासूम रज़ा का ‘आधा गांव’ हिन्दी के महत्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है. महाकाव्य की तरह यह उपन्यास आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न विषयों को समेटे हुए है. परतंत्र और स्वतंत्र भारत की महत्वपूर्ण सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों की कलात्मक अभिव्यक्ति है. यह उपन्यास अभिजात्य मुस्लिम समाज का अंतरंग चित्रण करता है, वहीं आज़ादी के बाद तेज़ी से हो रहे भारतीय समाज के परिवर्तनों को भी रेखांकित करता है.

यह उपन्यास भारतीय उपमहाद्वीप के दो देशों की विभाजन की एक दुखद त्रासदी है. स्वतंत्रता के बाद भारतीय समाज तथा राजनीति में तेज़ी से परिवर्तन लक्षित होते हैं, और दलित कहे जाने वाले वर्ग की सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित होती है. दो महत्वपूर्ण घटनाओं ने देश और समाज का चेहरा बदलने में  महत्वपूर्ण योगदान दिया है. एक है जमींदारी व्यवस्था का उम्मूलन,  नए भूमि सम्बंध, पंचवर्षीय योजना का लागू होना, दूसरा एक व्यक्ति ओंर एक वोट का अधिकार. हर व्यक्ति को पंचायत से लेकर लोकसभा तक मतदान करने का अधिकार है. राही ने अपने साहित्य में इन परिवर्तनों के प्रभाव को चित्रित किया है.

राही भारत की परंपरागत साझा संस्कृति और विरासत के प्रबल समर्थक थे. वे धर्म की राजनीति करने के सदैव विरोधी रहे. वे पाकिस्तान की परिकल्पना का अपने लेखन में सदैव विरोध करते रहे. उन्होंने 1964  में ‘आधा गांव’  में यह स्पष्ट कर दिया कि धर्म किसी राष्ट्र की स्थापना का आधार नहीं हो सकता. यह अस्वाभाविक प्रक्रिया है. धर्म और राजनीति का रिश्ता तेल और पानी जैसा है. धर्म विभिन्न राष्ट्रीयताओं को जोड़कर बहुत दिनों तक नहीं रख सकता.

राही ने बलपूर्वक कहा कि पूर्वी बंगाल अलग भाषा और संस्कृति के कारण पाकिस्तान के साथ नहीं रह सकता. कैसी विडम्बना है कि जिन मुहाजिरों (शरणार्थियों) ने एक इस्लामी राष्ट्र बनाने में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की वही आज यह मांग कर रहे हैं कि पंजाबी, पख़्तून, बिल्लोच और सिंधी राष्ट्रीयताओं के साथ उर्दू भाषी भी पाकिस्तान की राष्ट्रीयता स्वीकार करें. राष्ट्रीयता का आधार भाषा और संस्कृति होती है, धर्म नहीं. यदि भारत में धर्म को राजनीति से जोड़कर सत्ता प्राप्त करने की कोशिश हुई तो इसके भयानक परिणाम होंगे. राही ने अपने उपन्यासों और लेखन में सत्ता के लिए धर्म और जाति की राजनीति करने वालों की खुली आलोचना की है. राही हर तरह की संकीर्णता और कट्टरता के विरोधी रहे है. चाहे यह धर्म की हो, भाषा अथवा प्रांतीयता की. वह जीवन भर एक सही हिन्दुस्तानियत की खोज करते रहे.

राही के सरोकार बहुत बड़े थे. इतना बेबाक और बहादुर और सच्ची बात कहने वाला लेखक हिन्दी-उर्दू में शायद ही हो. जो कहना है सफाई से कहा. साम्प्रदायिकता को राही कोढ़ मानते थे. उनके लिए हिन्दू, मुस्लिम और सिख साम्प्रदायिकता में कोई भेद नहीं था. कम्युनिस्टों ने केरल में जब मुस्लिम लीग से चुनावी गठबंधन किया तब कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के बाद भी राही ने इसका खुलकर विरोध किया. उनका कहना था कि मुस्लिम लीग एक साम्प्रदायिक पार्टी है, उसे सम्मान प्रदान करना बहुत घातक होगा. कांग्रेस ने भी गैर-सैद्धांतिक समझौते किए और सत्ता कायम रखने के लिए साम्प्रदायिक दलों को बढावा दिया. कांग्रेस ने जातिवाद को भी एक नया रूप दिया.

राही ने अनेक स्थानों पर खेद व्यक्त किया है कि राष्ट्रीय आन्दोलन की धरोहर को कांग्रेस तथा उसके सहयोगी दलों के लोग जाति के आधार पर संगठित कर रहे हैं. ये प्रवृत्तियां राष्ट्रीय एकता और जनहित के विरोध में हैं. राही हमेशा हिन्दुस्तानी क़ौम की बात करते रहे. जीवन भर उन्होंने हिन्दुस्तानियत को ध्यान में रखकर कार्य किया. साम्प्रदायिकता और जातिवाद की राजनीति कराने वाले हर व्यक्ति और दल की उन्होंने खुली आलोचना की. चाहे वह राजीव गांधी हों, अटल बिहारी अथवा आडवाणी हों, शिव सेना के बाल ठाकरे हों, मुस्लिम लीग के बनातवाला हों, सैयद शहाबुद्दीन हों, शाही इमाम हों अथवा कांग्रेस के मंत्री जिआ-उर्रहमान अंसारी हों या अकाली दल के नेता.

उन्होंने अपने लेखों और पत्रों के माध्यम से इन नेताओं के असली मकसद को सबके सामने स्पष्ट किया. राही की स्पष्ट राय थी कि धर्म, भाषा और संकीर्ण प्रांतीयता की आड़ में ये राजनेता सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं. न उन्हें धर्म से दिलचस्पी है, न भाषा से, न प्रांत के विकास से. अलीगढ़ में रहते हुए उन्होंने मुस्लिम साम्प्रदायिकता के विरोध में लिखा. उनका मानना था कि मुस्लिम साम्प्रदायिकता स्वयं मुसलमानों के लिए हानिकारक है. बम्बई में रहकर उन्होंने शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी के संकीर्ण रवैये तथा साम्प्रदायिकता की बराबर आलोचना की.

राही ने अपने उपन्यासों, ‘आधा गांव’, ‘टोपी शुक्ला’, ‘ओस की बूंद’, ‘हिम्मत जौनपुरी‘, ‘ दिल एक सादा काग़ज़’, ‘कटरा बी आरज़ू’  तथा ‘असंतोष के दिन’ में तमाम जटिल समस्याओं का चित्रण किया है. उन्होंने आने वाले नये समाज की प्रवृत्तियों को पहचाना और उन्हें अपने लेखन का विषय बनाया. राही का विश्वास था कि दलित और श्रमिक वर्ग आगे आने वाले समाज का नियंत्रक होगा. पुरानी सभ्यता और संस्कृति के नाम पर बहुत दिनों तक राजनीति नहीं की जा सकती. देश विभाजन की प्रतिध्वनि बराबर उनके उपन्यासौं में सुनाईं देती है.

राही हिन्दी उर्दू को सबसे निकट की दो भाषाएं मानते थे, लेकिन भाषा की राजनीति के कारण ये दोनों भाषाएं दूर हो रही हैं. राही जीवन भर इसके लिए प्रयत्नशील रहे कि दोनों भाषाओं की दूरी कम हो. इसके लिए उनका सुझाव रहा है कि उर्दू देवनागरी लिपि में लिखी जाय क्योंकि लिपियां भाषा और साहित्य नहीं होतीं. उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि पंजाबी, गुरुमुखी और फारसी लिपि में  लिखी जाती हैँ. इसी तरह सिंधी दो लिपियों में लिखी जाती है. मराठी, नेपाली, संस्कृत और हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं,  तब भी ये भाषाएं अलग हैं. एकता के लिए यह परिवर्तन आवश्यक है. राही की बात किसी ने नहीं सुनी.

साम्प्रदायिकता आज देश के लिए भयानक चुनौती बनकर सामने है. साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए विष बेल की तरह है. इसका ज़हर धीरे-धीरे हमारे बुद्धिजीवियों में प्रवेश कर रहा है. रोमानी अतीत प्रेम के नाम पर हम पुनरुत्थानवाद की ओर पलायन कर रहे हैँ. भारत में सब कुछ था. विदेशी आक्रांताओं के कारण सब नष्ट हो गया. यह भारतीय समाज और इतिहास को उसके पूरे अन्तर्विरोधों के साथ देखने-परखने की हमारी दृष्टि की कमी है. इसके शिकार यांत्रिक समझवाले अनेक तथाकथित वामपंथी विचारक और लेखक भी हैं.

बाज़ार का दबाव संगठन विरोधी है. यह सामूहिकता से व्यक्तिवाद की ओर ले जाता है. सामूहिक सोच के स्थान पर व्यक्तिगत सोच और दंभ जन्म लेता है. यह प्रवृत्ति लेखक और बुद्धिजीवी को व्यापक यथार्थ से काटकर उसे खंडों में विभाजित कर देती है. धार्मिक पुनरुत्थानवाद और कठमुल्लावाद हमारे आधुनिकतावादी एवं अतिक्रांतिकारी लेखकों और बुद्धिजीवियों के लेखन में देखने को मिल रहा है. तर्क और विवेक का स्थान अब कुतर्क और आक्रामक भावुकता ने ले लिया है. इन प्रवृत्तियों से समय रहते संघर्ष नहीं किया गया तो भारतीय समाज की गरिमा तथा अनेकता में एकता की स्वस्थ परंपरा को नहीं बचाया जा सकता.

राही मासूम रज़ा जैसे लेखक इस संघर्ष में हमारी सबसे अधिक मदद कर सकते हैं. ये खेद और आश्चर्य की बात है कि हिन्दी की किसी पत्रिका ने राही पर कभी विशेषांक नहीं छापा. उनकी पुण्यतिथि और जन्मतिथि पर अलीगढ़ के अतिरिक्त कहीं कोई गोष्ठी नहीं होती, समारोह करने की बात तो अलग है. यह निर्विवाद है कि राही हमारे समय के बड़े लेखक हैं. उन्होंने चालीस साल अपने लेखन के माध्यम से साम्प्रदायिकता के संक्रामक रोग के विरुद्ध निरंतर संघर्ष किया. वे आरएसएस, मुस्लिम लीग, जमात-ए-इस्लामी, शिवसेना और अकाली दल को एक ही थैली के चट्टे-बट्टे समझते थे.

उन्होंने उस राजनीतिक अवसरवादिता पर निरंतर प्रहार किये जो अपने तात्कालिक स्वार्थ के लिए इन दलों से चुनावी गठबंधन करते हैं. राही ने अपने एक पत्र मेँ लिखा था कि बम्बई में शिवसेना और मुस्लिम लीग का समझौता हो गया है. उनका विश्वास था कि साम्प्रदायिक और जातिवादी शक्तियां धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध अपने छोटे मोटे मतभेद भुलाकर एक हो जाएंगी. इनकी दुश्मनी दिखावा मात्र है. इनका मूल उद्देश्य यथास्थितिवाद और पुराणपंथी समाज और विचारों को जीवित रखना है ताकि देश पर वे निर्द्वंद्व शासन कर सकें.

राही ने यह बात 1973 में लिखी थी लेकिन 25 साल बाद अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी मिलकर चुनाव लड़ते है, तथा सत्ता में भागीदारी करते हैं. उसी तरह दलितों की तथाकथित मसीहा मायावती और कांशीराम उस ‘मनुवादी साम्प्रदायिक पार्टी’ की गोद में बैठ गए, जिसे वे दस साल तक कोसते और गरियाते रहे. जातिवाद भी एक पिछड़ता हुआ सामाजिक दर्शन है. यह भी किसी नये क्षितिज का उद्घाटन नहीं करता. उसी पुराणपंथ के रास्ते पर यह भी ले जाता है जैसे धार्मिक पुनरुत्थान और संकीर्णता. साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में  जितनी सटीक और सही राय राही की थी आज उसे रेखांकित किया जाना आवश्यक है.

अलीगढ़ से बम्बई पहुंचने के बाद (1966-67) राही को कठिन संघर्ष करना पड़ा. यह संघर्ष मानसिक, आर्थिक और सामाजिक तीनों ही तरह का था. राही उर्दू विभाग में अस्थायी प्राध्यापक थे. वे अध्यापक ही रहना चाहते थे लेकिन उन्हें मजबूर किया गया अलीगढ़ छोड़ने के लिए. इस संवेदनशील लेखक को क्या नहीं झेलना पड़ा. कौन से लांछन नहीं सहे और निंदा अभियान की तो कोई सीमा ही नहीं थी. ये लंबी कहानी है.

राही का अलीगढ़ छोड़ने का दर्द कम नहीं हुआ. उस घाव को राही हमेशा सहलाते रहे जो उन्हें अलीगढ़ के 1966 और 67 के समय ने दिया था. उनके पत्रों मेँ उसकी झलक भी है और प्रतिध्वनि भी. ये पत्र व्यक्तिगत भी हैं, अंतरंग भी हैं और व्यापक भी. एक मित्र और अपने साथी के नाम अपने दिल को व्यथा कथा थी है. फ़िल्मी चकाचौंध, ख्याति, सम्मान और धन-दौलत ने कभी राही को अलीगढ़ से जुदा नहीं किया. इन पत्रों में लेखक की क्या भूमिका है, समाज उसे क्या देता है, ये सवाल भी है कि क्यों नहीं हिन्दी में लेखन से कोई व्यक्ति जीवित रह सकता है. क्योंकि लेखकों को उनकी पुस्तकों और रचनाओं का उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता. प्रकाशक रोना रोते हैं कि पुस्तकें नहीं बिकती, लेकिन उनका वैभव निरतंर बढ़ता है. लेखक को रॉयल्टी देने में प्रकाशक सौ बहाने बनाते हैं.

राही का विचार था कि यदि कोई रचनाकार प्रकाशक हो जाए तो कोढ़ में खाज है. लेखक को उसकी रचना का पारिश्रमिक मिलना चाहिए, राही इस सवाल के लिए बराबर जूझते रहे. इन पत्रों में उन्हें सबसे अधिक शिकायत काशी नागरी प्रचारिणी सभा के मंत्री सुधाकर पाण्डेय तथा इतिहास खंड के संपादक डॉ. हरवंश लाल शर्मा से थी. राही ने इतिहास खंड में पचास पृष्ठ लिखे और रॉयल्टी मिली 159 रुपये. यह तो काग़ज़, डाक और टाइप का खर्चा ही हुआ, लेखक के लिए कुछ नहीं. इसी तरह ‘आधा गांव’ के प्रथम प्रकाशक राजेन्द्र यादव से भी उन्हें शिकायत रही. ‘आधा गांव’ की दो हजार रॉयल्टी बार-बार तकाजा करने पर भी नहीं दी. लेखकों और प्रकाशकों के सम्बन्थ में राही ने जो सवाल उठाए, वह आज़ भी सार्थक और महत्वपूर्ण हैं.

नामवर सिंह जोधपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष थे, तब उन्होंने 1971  में  ‘आधा गांव’ को एम.ए. के पाठ्यक्रम में लगाया था. ‘आधा गांव’ पर अश्लीलता का आरोप लगा. उसे गालियों का भंडार कहा गया. संदर्भ से काटकर गालियों को निकालकर उसे छपवाया और पूरे हिन्दी जगत में वितरित किया गया और यह भी आरोप लगा कि ‘आधा गांव’ और उसके लेखक साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाते हैं. पिछड़ी संस्कृति के प्रतिनिधियों ने सूरज पर थूकने का प्रयास किया था. समय और इतिहास ने आज दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है. राही इस घटना से बहुत व्यथित हुए.

उन्होंने इसके विरुद्ध पत्र-पत्रिकाओं में लिखा. जोधपुर के कुलपति से भी पत्र व्यवहार किया. लेकिन पुराणपंथियों के सामने विश्वविद्यालय झुक गया और ‘आधा गांव’  पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया. इस घटना के कुछ दिनों बाद नामवर सिंह भी दिल्ली चले आए. राही को इस बात का दुख था, कि हिन्दी के बुद्धिजीवियों और लेखकों ने इस गलत बात का जमकर विरोध नहीं किया. उन्होंने इसे लेखन की अस्मिता से न जोड़कर डॉक्टर नामवर सिंह का व्यक्तिगत और विभागीय झगड़ा मान लिया.

कई पत्रों में राही को अलीगढ़ बार-बार याद आता है. वे जीवन भर दोस्त और दुश्मन को नहीं भूले. उन्हें विश्वविद्यालय के कर्ताधर्ताओँ से जीवन पर्यन्त शिकायत रही कि इन्होंने उनके साथ अन्याय किया. बिना किसी कारण के उन्हें विश्वविद्यालय की पांच साल पुरानी नौकरी से हटा दिया. राही को अपने वामपंथी दोस्तों से भी शिकायत थी जिन्होंने न्याय के संघर्ष में उनकी कोई मदद नहीं की बल्कि उल्टे विश्वविद्यालय प्रशासन की मदद की. ‘उनसे मुझे बड़ी आशा थी कि वे इस अन्याय के विरुद्ध मेरा साथ देंगे लेकिन उन्होंने मेरा प्रतिवेदन लिखने से भी मना कर दिया.’ राही न तो कठिनाइयों के सामने झुके और न ही उन्होंने संघर्ष से कभी मुंह मोड़ा. उन्होंने फ़िल्म नगरी में रहकर भी अपने सम्मान और अस्मिता की रक्षा की. वेद व्यास के महाभारत की उन्होंने पुनर्रचना करके देश के घर-परिवार तक पहुंचा दिया. यह काम राही के अतिरिक्त कोई दूसरा इस रूप में नहीं कर पाया था.

(‘राही मासूम रज़ा से दोस्तीः हिन्दुस्तानियत का पैग़ाम’ में लिखी कुंवरपाल सिंह की भूमिका)

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