भारत में कला की प्रवृत्तियां
किसी भी देश की कला वहां के लोगों के मनोविज्ञान की प्रतिच्छाया होती है. उस कला की गुणवत्ता का स्तर उसकी राजनीतिक शक्ति की समृद्धि और दारिद्रय, दोनों का प्रतिबिंब होती है और उस देश के लोगों की बौद्धिकता और सौंदर्यबोध के विकास का एक संकेत होता है.
अपने देश मेँ कला का स्तर, ख़ासतौर से सांस्कृतिक पुनरुत्थान को आगे बढ़ाए जाने के प्रति यहां के लोगों का दृष्टिकोण बहुत ही निराशाजनक है. इस बात की कोशिश की जानी चाहिए कि रुचि का परिष्कार हो और कला की सही रचना को बल मिले. जब तक कलाकारों का एक बहुत बड़ा हिस्सा अपनी जीविका के लिए अपनी जनता के निम्न स्तर का ध्यान रख कर चित्र बनाता रहेगा, तब तक कला के स्तर में कोई ख़ास सुधार हो सकने की उम्मीद नहीं की जा सकती. किसी कलाकार के मॉडल की सुंदरता की तुलना में किसी तस्वीर या मूर्ति के चित्रात्मक सौंदर्य के सहारे सौंदर्यानंद ढूंढ़ना बेहतर होता है. लेकिन यह सिर्फ़ कला का ककहरा होता है और कुछ नहीं. स्वाभाविक है कि इस प्रशंसात्मक मूल्यांकन को ऊंचे स्तर पर लिया जाना ज़रा मुश्किल काम है, लेकिन निश्चय ही यह एक मूल्यवान उपलब्धि की तरफ़ बढ़ने का एक प्रयास माना जा सकता है.
भारत में कला की समीक्षा के विरोध में मेरा इसीलिए यह कहना है कि हमारी परंपराएं जो किसी वक्त बहुत महत्वपूर्ण और आश्चर्यजनक थीं, अब वे सिर्फ़ एक ख़ाली फ़ार्मूला रह गई हैं. उन परंपराओं से चिपक रहना मुनासिब नहीं है… कुछ कलाकारों को छोड़ कर, जिनके व्यक्तित्व में यह क्षमता है कि वे पुराने पारंपरिक रूपों से भी कुछ नया पैदा कर सकते हैँ. असल में इस तरह परंपरा से चिपक रहना 1200 साल पुराने भारत की पुनर्रचना के उद्देश्य की ओर बढ़ना है (जो कि निश्चय ही अपने आप को धोखा देना है). और ऐसा दूसरे, तीसरे, चौथे नहीं, बल्कि पांचवे दर्जे की पश्चिमी कला की अनुकृति के विरोध में किया जा रहा है (क्योंकि हममें से अधिकांश दुर्भाग्यवश यह भी दृष्टि नहीं रखते कि जो सचमुच अच्छा है, उसमें और जो नितांत बेहूदा है, उन दोनों के बीच फ़र्क कर सकें). पर, भारत की कला को इन दोनों ही दृष्टियों से मैं अलग हट कर स्थापित देखना चाहती हूं और चाहती हूं कि वह कला ऐसी हो जो सचमुच अपनी ज़मीन से जुड़ी हुई और जीवंत हो, फिर भी पूरी तरह भारतीय हो. व्यक्तिगत रूप से मैं अपनी रेखाओं, रंगों और डिज़ाइन के माध्यम से यह कोशिश कर रही हूं कि मैं यहां के लोगों की ज़िंदगी को व्यक्त कर सकूं, ख़ासतौर से उन लोगों की ज़िंदगी जो दुखी और ग़रीब हैं. लेकिन मैं इस समस्या पर शुद्ध चित्रात्मक स्तर पर अमूर्त ढंग से सोचती हूं इसलिए नहीं कि मैं बुनियादी तौर पर एक चित्रकार हूं बल्कि इसलिए कि मुझे सस्ती भावुकता के लेपन से नफ़रत है. और इसलिए मैं कहानी कहने वाली तस्वीरों की ढिंढोरची नहीं हूं. हिंदुस्तान में ऐसी आश्चर्यजनक और शानदार चीज़ें हैं जिनकी चित्रात्मक संभावनाओं को अभी टटोला तक नहीं गया है. लेकिन कितने दुख की बात है कि हममें से बहुत ही कम लोगों ने उन्हें देखने की कोशिश की है, उनकी अभिव्यक्ति तो बहुत ही कम हो पाई है. असल में आंखें हैं, मगर हम देख नहीं रहे; कान हैं, मगर हम सुन नहीं रहे.
आज की भारतीय कला
बंगाल का पुनरुत्थान यह दावा करता है कि उसने भारतीय कला को एक तरह से नया जीवन दिया है, लेकिन मुझे शक है कि बजाय अपनी इतनी बड़ी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के, इस स्कूल ने आज की भारतीय कला में जो ठहराव आ गया है, उसकी ज़िम्मेदारी ज़्यादा निभाई है. यह दुख की बात है पश्चिम में जब आज चित्रकला और मूर्तिकला में इतने बड़े महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुके हैं, भारत उससे बिल्कुल अनभिज्ञ बना रहे और उससे भी बढ़ कर दुख की बात यह है कि उसका मज़ाक उड़ाता रहे. मेरा मतलब आधुनिक स्कूल से है. यह महत्वपूर्ण बात है कि आधुनिक चित्रकला और मूर्तिकला पूर्वी कला के विभिन्न कालों में तमाम संपर्क बिंदुओं से जुड़ी हुई है. हर जगह की महान कला की जड़ें इसी तरह पाई जाती हैं और एक-दूसरे को समझने में और उनके आकलन में मदद करती हैं. अगर भारतीय कलाकार पश्चिम की आधुनिक कला से कुछ प्रेरणा ग्रहण करें, वैसे ही जैसे पश्चिम के आधुनिक कलाकारों ने पौर्वात्य शिल्प और मूर्तिकला के अध्ययन के ज़रिए आत्माभिव्यक्ति का रास्ता खोजा है, तो न केवल वे भारतीय कला को एक नई ज़िंदगी दे सकेंगे, बल्कि उन्हें अपने देश की प्राचीन कला के अंतर्निहित सिद्धांतों को भी समझने में मदद मिलेगी. मैं तो उम्मीद करती हूं कि वह दिन दूर नहीं, जब आंतरिक आकांक्षा से मजबूर हो कर कलाकार इस दिशा में मुड़ेंगे और यह ठहराव एक ख़ात्मे तक पहुंचेगा और इस मिश्र, बनावटी नियोजित पुनरुत्थान की जगह एक नया और ज़्यादा शक्तिशाली आंदोलन जन्म लेगा.
कला का मूल्यांकन
सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहती हूं कि किसी चित्र को देख कर उससे अधिक-से-अधिक सौंदर्य का सुख प्राप्त करने के लिए चित्र को किस तरह देखा जाए. सबसे पहले तो किसी चित्र को सचमुच एक कला-चित्र होना चाहिए. मतलब कि एक जूते के जोड़े या कुर्सी की तस्वीर को सौंदर्यात्मक रूप में उतना ही संतोषप्रद और रुचिकर होना चाहिए जितना किसी सुंदर आदमी या सुंदर औरत का चित्र हो सकता है. कला का उद्देश्य अमूर्त सौंदर्य से सौंदर्यबोध की उपलब्धि होता है और उस अमूर्त सौंदर्य में रेखाओं की जीवंतता, रूप-रंग, आकार और डिज़ाइन सम्मिलित होते हैं. कला के सौंदर्य में किसी चित्रित विषय की या मॉडल की सुंदरता-असुंदरता कोई अर्थ नहीं रखती. यह बात कला की पहचान और उसके मूल्यांकन में बहुत अहमियत रखती है, बल्कि कलात्मक और सौंदर्यात्मक ज्ञान के लिए यह बात उसका ‘क ख ग’ होती है.
(संवाद प्रकाशन से छपी कन्हैयालाल नन्दन की किताब ‘अमृता शेरगिल का जीवन और रचना संसार’ से साभार)
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