इतिहास | उत्तरायणी पर कुली बेगार आंदोलन की याद

  • 8:27 pm
  • 14 January 2022

यह सौ साल पहले के उत्तरायणी पर्व की बात है. बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में जुटे जनसमूह ने अंग्रज़ों की कुली बेगार प्रथा के ख़िलाफ़ एकजुट होकर कुली बेगार रजिस्टर फाड़ डाले और सरयू और गोमती के संगम बगड़ में फेंक दिए. ग़ुलामी के ख़िलाफ़ यह ग़ुस्से की अभिव्यक्ति थी.

14 जनवरी 1921 को बागेश्वर में उत्तरायणी पर अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ ग़ुस्से का ज्वार फूट पड़ा. कुली बेगार प्रथा के विरोध में विशाल जनसमूह सरयू और गोमती के संगम बगड़ की ओर उमड़ पड़ा. महात्मा गांधी की जय, भारत माता की जय, कुली उतार बंद करो जैसे नारों से बाबा बागनाथ की नगरी गूंज उठी. आंदोलनकारियों को सबक सिखाने आए अंग्रेज़ शासकों को मुंह की खानी पड़ी.

भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए कुली बेगार रजिस्टरों को फाड़कर संगम में डुबो दिया गया. शपथ ली गई कि चाहे जान भी चली जाए, कुली नहीं बनेंगे. हर गांव और कोने में कुली बेगार आंदोलन ज़ोर पकड़ गया. और जनता की एकजुटता से यह आंदोलन मुक़ाम तक पहुंचा. तब कुली बेगार विरोधी आंदोलन को धार देने के लिए विभिन्न राजनीतिक दल भी एक मंच पर आ गए थे.

सबने एक स्वर से कुली बेगार को कलंक बताते हुए जड़ से समाप्त करने का संकल्प लिया. उत्तरायणी पर्व के मौके पर सवर्दलीय सभा की यह परंपरा आज सौ साल बाद भी क़ायम है. उत्तरायणी मेला स्थल पर ही यह सभा होती है, जिसे राजनीतिक दलों के वरिष्ठ नेता संबोधित करते हैं. 14 जनवरी से प्रस्तावित उत्तरायणी मेला कोविड संक्रमण के चलते इस बार भी स्थगित हो गया.

उत्तरायणी पर्व ने आंदोलन को दी थी धार
बागेश्वर में उत्तरायणी पर्व का ख़ास महत्व है. कुमाऊं में कुली बेगार प्रथा के ख़िलाफ़ उठ रही आवाज़ को इस पर्व ने धार देने का काम किया. यूं तो अंग्रेज़ शासकों के उत्तराखंड आने के कुछ समय बाद ही उनकी जनविरोधी नीतियों का विरोध शुरू हो गया था, लेकिन कुली बेगार आंदोलन के बाद देवभूमि आंदोलनों का गढ़ बन गई. अंग्रेज़ी हुकूमत में यह पहला ऐसा आंदोलन था, जिसमें हर वर्ग की भागीदारी थी.

कुमाऊं परिषद के अधिवेशनों ने जगाई अलख
कुमाऊं परिषद का पहला अधिवेशन सितंबर 1917 में अल्मोड़ा में हुआ. अधिवेशन में तमाम प्रस्तावों के साथ ही कुली बेगार के विरोध का प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से मज़ूर हुआ. दूसरा अधिवेशन 24-25 दिसंबर 1918 को हल्द्वानी में बुलाया गया. अधिवेशन में हरगोविंद पंत ने हुकूमत को चेताया कि दो साल के भीतर कुली बेगार प्रथा को वापस नहीं लिया गया तो जनता सत्याग्रह करेगी. वर्ष 1919 में 22 से 24 दिसंबर तक कोटद्वार में परिषद के तीसरे अधिवेशन में कुली बेगार का विषय छाया रहा. सभी ने एक स्वर से इसके ख़िलाफ़ आगे आने का आह्वान किया. काशीपुर में वर्ष 1920 में 20 से 23 दिसंबर तक चौथे अधिवेशन में भी कुली बेगार के ख़िलाफ़ जन आक्रोश और मुखर हुआ.

गांधी के आशीर्वाद पर तेज़ हुआ आंदोलन
वर्ष 1920 में नागपुर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पं. गोविंद बल्लभ पंत, विक्टर मोहन जोशी, बद्रीदत्त पांडे और श्यामलाल साह आदि ने महात्मा गांधी को कुली बेगार प्रथा के संबंध में विस्तार से बताया और इसे ख़त्म करने की पुरज़ोर वकालत की. तब गांधी जी ने आंदोलनकारियों को अपना आशीर्वाद देते हुए कहा था – मेरे कुमाऊंनी भाइयों से कह दें कि कुली देना नहीं होता है. इसके बाद इस कुप्रथा के ख़िलाफ़ आंदोलन तेज़ कर दिया गया. आंदोलन की सफलता से प्रभावित होकर गांघी जी बागेश्वर आए और चनौंदा में गांधी आश्रम की स्थापना की.

बैरिस्टर मुकंदीलाल ने गढ़वाल के भर में भेजी थी टोलियां
डा.योगेश धस्माना की किताब ‘उत्तराखंड में जनजागरण और आंदोलनों का इतिहास’ के अनुसार गढ़वाल में बेगार आंदोलन को लेकर पौड़ी गढ़वाल के दुगड्डा में सभा के बाद कार्यकर्ताओं की टोलियां बैरिस्टर मुकुन्दीलाल के दिशा-निर्देशन में गढ़वाल के तमाम हिस्सों में भेजी गई. नौगांवखाल क्षेत्र में केशर सिंह रावत ने सरकारी नौकरी छोड़कर आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाई. कार्यकर्ताओं ने गांव-गांव जाकर बेगार प्रथा को सामाजिक कलंक बताते हुए जनता को इसके ख़िलाफ़ संगठित किया और बेगार न देने का संकल्प लिया गया.

आंदोलनकारियों पर गोली चलवाना चाहता था डिप्टी कमिश्नर
14 जनवरी 1921 को भगवान बागनाथ के मंदिर में पूजा के बाद आंदोलनकारियों का हुजूम कुली बेगार प्रथा बंद करो के नारे लगाता हुआ सरयू बगड़ की ओर कूच कर गया. सरयू मैदान में पहुंचने पर जुलूस सभा में बदल गया. इस जनसमूह को कुली बेगार और कुली उतार प्रथा के विरोध की शपथ दिलाते हुए बद्रीदत्त पांडे ने कहा कि कुली प्रथा कतई बर्दाश्त नहीं की जाएगी. उस दौरान अल्मोड़ा का अंग्रेज़ डिप्टी कमिश्नर डायबिल भी अपने लोगों के साथ भीड़ में मौजूद था. वह आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाना चाहता था, लेकिन उसका मंसूबा सफल नहीं हो पाया. मौक़े की नजाकत को भांपकर वह पुलिस फोर्स के साथ वहां से भागने को मजबूर हो गया.

क्या थी कुली बेगार प्रथा
आम लोगों से मजदूरी या पारिश्रमिक दिए बिना कुली का काम कराया जाता था. इसके लिए गांव-गांव में रजिस्टर बनाए गए थे. ये रजिस्टर ग्राम प्रधानों की सुपुर्दगी में रहते थे. इसमें गाँव भर के लोगों के नाम दर्ज होते थे. इस रजिस्टर के आधार पर प्रधान अंग्रेज़ अफ़सरों को उनकी दी गई तारीख़ पर उनकी मांग के मुताबिक सामान लाने-ले जाने के लिए कुली उपलब्ध कराते थे. कई बार प्रधान और उसका नामित प्रतिनिधि भी रजिस्टर की आड़ में लोगों का उत्पीड़न करते, उन्हें अपमानित करते. ग्रामीणों का आक्रोश इसी का नतीजा था, जिसने बाद में व्यापक आंदोलन की शक्ल अख़्तियार कर ली.

बद्री दत्त पांडे को कुमाऊं केसरी की उपाधि
आंदोलन की सफलता के बाद बद्री दत्त पांडे को कुमाऊं केसरी की उपाधि से नवाजा गया. दिसंबर 1920 में काशीपुर में कुमाऊं परिषद के चौथे अधिवेशन में पारित प्रस्ताव में बद्रीदत्त पांडे ने कहा था — कुमाऊं नौकरशाही का दुर्ग है, यहां नौकरशाही ने सभी को कुली बना रखा है, हमें सबसे पहले कुमाऊं के माथे से कुली कलंक हटाना है, तभी हमारा देश आगे बढ़ सकता है. पंडित गोविंद बल्लभ पंत, हरगोविंद पंत, मुकंदी लाल, विक्टर मोहन जोशी, लाला चिरंजीलाल, मोहन सिह मेहता, पुरुषोत्तम जोशी, मोहन सिंह मेहता, इंद्रलाल शाह, दुर्गा दत्त पंत, विश्वंभर दत्त चंदोला, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, भोलादत्त पांडे आदि के नेतृत्व ने आज़ादी के आंदोलन के साथ ही इन सामाजिक आंदोलनों को अंजाम तक पहुंचाया है.

संदर्भ | उत्तराखंड में जनजागरण और आंदोलनों का इतिहास (लेखक डा. योगेश धस्माना)
सरफ़रोशी की तमन्ना (स्वतंत्रता स्वर्ण जयंती समारोह समिति नैनीताल द्वारा प्रकाशित पुस्तक)


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