हम भाँड़ की हैं कौम फिर हमसे बड़ा है कौन!

  • 6:36 pm
  • 16 March 2023

लोकनाट्य और मनोरंजन की पुरानी परंपराओं में भाँड़ों का शुमार भी हुआ करता था. और वे हाव-भाव की नक़ल करने वाले नक़्क़ाल भर नहीं थे, उनके फ़िकरों और उनकी ज़बान की लज़्ज़त लोगों को लुभाती भी थी. लखनऊ के भाँड़ों पर श्री जुगुल किशोर का यह लेख सन् 1996 में इलाहाबाद के कैंपस थिएटर की पत्रिका में छपा था, जिसमें उन्होंने कई मशहूर नामों का ज़िक़्र करने के साथ ही उस वक़्त हयात जहाँगीर हुसैन सरीखे लोगों के फ़न पर रोशनी डाली है, साथ ही एक रवायत के लोप होते जाने पर अपनी फ़िक़्र का इज़हार भी किया है. हमें यह लेख प्रवीण शेखर के सौजन्य से मिल सका है. -सं.

हम नवाब आली-जाह, हम ही हैं महाराज
हम भाँड़ की हैं कौम फिर हमसे बड़ा है कौन!

मरहूम उस्ताद तवगंर हुसैन, लखनऊ में कश्मीरी टापे के मशहूर भाँड़, अपने इस जुमले से भरी महफ़िल को अपनी ओर खींच लेते थे. लोग बेताब ही जाते थे उनकी मज़ाहिया नक़लें देखने को, फ़िक़रे सुनने को.

अदब-तहज़ीब और बहुतेरी कलाओं से सराबोर लखनऊ शहर के अलावा जौनपुर, बनारस, इलाहाबाद, आगरा, झाँसी, ग्वालियर और जयपुर आदि शहरों में भाँड़ मौजूद थे. लेकिन लोग कहावत यही कहते थे कि लखनऊ के भाँड़ और बनारस के साँड़ एक जैसे होते हैं.

बहुतेरे महलों-दुमहलों, कोठियों-हवेलियों और बाग़-बगीचों के शहर लखनऊ में भाँड़ कश्मीर से आये थे. 92 महलों और 54 बाग़ों के शहर लखनऊ में आकर बसने वाले ये भाँड़ कश्मीर में हमेशा ही इत्र, शाल-दोशाले और कालीनों के बेचने का काम किया करते थे. अपनी रोज़ी रोटी के अलावा ये लोग नक़्क़ाली भी करते थे.

लखनऊ में इन कश्मीरी नक़्क़ालों के अलावा लाहौर से या और दूसरी जगहों से भी लोग लखनऊ आकर बसे और इत्र का, कालीन का काम-काज़ करने लगे. परन्तु बाद में ये लोग भी नक़ल करने लगे. काफ़ी अर्से बाद ये गैर-कश्मीरी नक़्क़ाल भी कश्मीरी नक़्क़ाल कहे जाने लगे.

नवाबी वक़्त का लखनऊ एक ऐसा शहर था, जहाँ बहुत सी लोक कलाओं को आसरा मिला. ठिकाना मिला. और कुछ को ज़िन्दगी भी मिली. ये लोक-कलाएं दरबार और अवाम दोनों का ही दिल बहलाने का एक कारगर ज़रिया थीं.

मुग़लों के वक्त, कश्मीर में पाथेर, पंजाब में नक़ल और दिल्ली में भगतबाज़, ईरान से आई कला दास्तानगोई या किस्सा-ख़्वानी ने अपनी जगह बना रखी थी. अवध में इसका इतिहास बहुत ज्यादा पुराना नहीं है. लखनऊ और उसके आस-पड़ोस में नस्सारी, नक़्क़ाल या भाँड़, बहुरुपिया, दास्तानगोई, भगतबाज़ी का मशहूर चलन था. परन्तु 1947 में मुल्क की आज़ादी के बाद मुज़रे, पारसी शैली के ऐतिहासिक नाटकों के साथ शहर-ए-लखनऊ के मशहूर भाँड़ों, नक़्क़ालों, नस्सारों, बहुरूपियों, दास्तानगो, भगतबाज़ों की कला धीरे-धीरे गायब-सी होने लगी. अब तो बस इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आते हैं.

लखनऊ के नूरा, क़ायम, खिलौना, बाबू, जंगली, जहाज़, चुरमुर, जीखूब भाँड़ उस ज़माने की शाही सल्तनत में ख़ूब मशहूर थे. शाही दरबार में नक़ल बैगन, नक़ल अरहर की दाल, नक़ल लौड़ी, नक़ल सखी मालिक और कंजूस नौकर, नक़ल नदीदे फक़ीर की, नक़ल अंग्रेज़ों के सड़क बनाने की और नक़ल नदीदे हलवाई की, इत्यादि से लोगों का दिल बहलाते थे. इन नक़लों के अभिनय में फार्स का तत्व और संवादों में तीख़ी चुटीली नोंक-झोंक मौजूद रहती थी. यहाँ दी जा रही बानगी पर एक नज़र डालें –

अस्लाम अलैकुम, वा अलैकुम असलाम
कब पैदा हुए, मैं तो तुम्हे पेट में छोड़कर आया था,
निकलते ही कद-कामता

अमां किस खेत में रहते हो
किस नाले में रहते हो
किस नाले की छछून्दर हो
किस डाली के बन्दर हो
किस कबड़िये के चुकन्दर हो
कहाँ के मुस्तंडर हो
किस मरघट के भूत हो
किस भूत के लड़के हो
किस रंडी के भड़ुवे हो
किस भड़वे के लड़के हो.

इस तरह जवाबी को सुनकर लोग हँसी से लोटपोट हो जाते थे. इसके साथ ही क़व्वाली, ग़ज़लें, दादरा, ठुमरी, भजन, लोकगीत, कॉमिक गाने ये लोग गाते थे. कथक नृत्य और शास्त्रीय संगीत की भी अच्छी-ख़ासी जानकारी लखनऊ के इन भाँड़ों को रहती थी.

असली पुरानी परम्परा के साथ लखनऊ में भाँड़ों की आख़िरी टोली अभी बची है. सत्तर-पचहत्तर वर्ष के जनाब जहाँगीर हुसैन पुत्र अलताफ़ पुत्र क़ासिम अली उर्फ़ चुरमुर पुत्र जंगली नख़ास चौराहे के रहने वाले हैं. शाही दरबार के मशहूर भाँड़ जहाज़ इनके ससुर थे जो बाग-ओ-बहार के नाम से प्रसिद्ध रहे. इनको गाने-बजाने की गहरी सूझ बूझ का, कथक नृत्य का अच्छा ख़ासा ज्ञान रहा है. सीना ठोंक कर कहते हैं कि जवाब मैंने बिरजू महाराज को अपनी गोद मे खिलाया है.

जनाब जहाँगीर हुसैन के साथ गायक व नक़्क़ाल रजब अली, सूरजजान, रशीद ग़ैर-कश्मीरी भाँड़ हैं. जिन्हें अपने पुरखों से विरासत में ये फ़न हासिल हुआ है. अब यही इनकी रोज़ी रोटी है. जब कुछ भी करने को नहीं होता तो जलसों में क़व्वाली गा-बजाकर अपना ज़रिया-ए-माश कमाते हैं.

ख़त्म होती भाँड़ों की परम्परा पश्चिम की ‘कॉमेदिया दे लार्ते’ से काफ़ी मिलती-जुलती है, भाँड़ों की इस फ़ार्सिकल परम्परा में कॉमेडी की लगभग हर तकनीक देखने को मिलती है. भाँड़ परम्परा को बचाकर रखने के सरकारी प्रयास तो हुए नहीं, न ही सरकार से आशा करनी चाहिए, परन्तु लोकनाट्यों के प्रयोग और अन्वेषण को लेकर जो सुधी रंगकर्मी सृजनात्मक कार्य कर रहे हैं, उनसे इस मरती परम्परा को बचाकर रखने की आशा अवश्य की जा सकती है. तभी ये क्या, अन्य परम्परायें भी बचाई जा सकती हैं.

कवर | बरेली के ग़ुलाम हुसैन/ prabhatphotos.com

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