फ़र्श पर नाक रगड़ी, फिर कहा ‘उफ! इतनी धूल है यहां. आप संसद को इतना गंदा रखते हैं!’

  • 5:00 am
  • 1 February 2020

रुस्तमजी खुर्शेदजी करंजिया उर्फ रूसी करंजिया को आमतौर पर आरके करंजिया कहा जाता था. अपने लेखन और तेवर के चलते किवदंती बन गए

और पत्रकारिता का स्कूल रहे इस हरफ़नमौला संपादक-पत्रकार के ज़िक्र के बग़ैर भारतीय पत्रकारिता, ख़ासतौर से खोजी पत्रकारिता का इतिहास पूरा नहीं होता. पत्रकारिता की जो मौलिक परंपरा उन्होंने ईजाद की, आज के दौर में वह  बहुतों को अप्रासंगिक लग सकती है लेकिन उसके सबक और महत्व के शिखर बहुत ऊंचे हैं. अपने समकालीनों से वह एकदम अलहदा और अजब थे. ग़ज़ब तो ख़ैर थे ही. समय के साथ पत्रकारिता में नए प्रतिमान बने और बीत गए. करंजिया जो थे ताउम्र वही बने रहे. आख़िरी दिनों में, जब दिलो-दिमाग और देह शिथिल हो गए तब ज़रूर उनमें बदलाव दिखा. अन्यथा वह न कभी ख़ुद बदले और न उनका अख़बार ‘ब्लिट्ज़’. हिन्दुस्तान में अब भी कम से कम तीन ऐसी पीढ़ियां ज़रूर मिल जाएंगीं, जिन्होंने कभी न कभी अंग्रेंज़ी, हिन्दी, उर्दू या मराठी में ‘ब्लिट्ज़’ ज़रूर पढ़ा होगा. पुरानी पीढ़ी के जो पढ़े-लिखे लोग अभी ज़िंदगी की धूप का आनंद ले रहे हैं, उनकी स्मृतियों में भी ‘ब्लिट्ज़’ और उसके बेबाक संपादक आरके करंजिया का नाम कहीं न कहीं ज़रूर होगा. सचमुच करंजिया भारतीय पत्रकारिता के सदा विवादों से घिरे रहने वाले निर्विवाद युगपुरुष तो थे ही!

रूसी करंजिया का जन्म 15 फरवरी, 1912 को क्वेटा में हुआ था. बंबई के सेंट ज़ेवियर्स स्कूल और विल्सन कॉलेज में पढ़ने के बाद करंजिया आगे पढ़ने के लिए कैंब्रिज यूनिवर्सिटी जाना चाहते थे ताकि बाद में आईसीएस कर सकें. उन दिनों वह नाम बदलकर टाइम्स ऑफ इंडिया में संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे. जब यह स्तंभ संपादित करने वाले उप-संपादक आइवर जेहू को उनकी असली पहचान मालूम हुई तो उन्होंने करंजिया को नौकरी की पेशकश की. टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन्हें इवनिंग स्टैंडर्ड अख़बार के साथ प्रशिक्षण के लिए लंदन भेज दिया. इवनिंग स्टैंडर्ड उन्हें रास नहीं आया और उन्होंने टैबलॉयड डेली मिरर के साथ काम करना शुरू कर दिया. भारत आए तो वर्धा से उन्होंने महात्मा गांधी पर एक आलोचनात्मक रिपोर्ट लिखी. वह रिपोर्ट छपने पर हंगामा हो गया. जवाहरलाल नेहरू से उनका परिचय इसी रिपोर्ट के संदर्भ में हुआ. नेहरू ने उन्हें तार्किक ढंग से मगर जमकर लताड़ा. करंजिया पर उस लताड़ का ऐसा असर हुआ कि उन्होंने तत्काल गांधी को चिट्ठी लिखकर माफी मांगी और रिपोर्ट के पारिश्रमिक के तौर पर मिले 250 रुपए महात्मा गांधी के हरिजन फंड में दान कर दिए. यहीं से नेहरू और करंजिया में जो रिश्ता बना, वह वक्त के साथ-साथ पुख्ता होता गया. वह हर महीने नेहरू का इंटरव्यू करते और छापते थे. यह सिलसिला नेहरू की मृत्यु तक अनवरत चला. करंजिया के नाम यह रिकॉर्ड भी दर्ज़ है कि जवाहरलाल नेहरू ने सबसे ज्यादा इंटरव्यू आरके करंजिया और ‘ब्लिट्ज़’ को दिए. दोनों के बीच कई बार तकरार भी हुई लेकिन यह सिलसिला कभी नहीं टूटा. नेहरू का आख़िरी इंटरव्यू भी उन्होंने ही लिया था.

ब्लिट्ज़ः 2 दिसम्बर 1961 का अंक.                   

भारत में पत्रकारिता के इतिहास का शानदार अध्याय बने ‘ब्लिट्ज़’ की बुनियाद आरके करंजिया ने 1941 में 3000 रुपये से अपना प्रेस लगाकर की थी. इससे पहले उन्होंने संडे स्टैंडर्ड और फिर मॉर्निंग स्टैंडर्ड का संपादन किया लेकिन ‘ब्लिट्ज़’ उनका ऐसा ख़्वाब था, जिसे पूरा करने के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. नई सज-धज के साथ आया ‘ब्लिट्ज़’ नए तेवर वाला  टैबलॉयड था. अंग्रेंज़ी के साथ-साथ इसके उर्दू और हिन्दी संस्करण भी शुरू हुए. बाद में मराठी भी. तब भारतीय पत्रकारिता बहुधा प्रेस-विज्ञप्तियों और चिंतनपरक (जिन्हें अक्सर नीरस मान लिया जाता) विश्लेषणात्मक लेखों पर आधारित थी. आरके करंजिया ने इस जड़ता को तोड़ा और तथ्यात्मक खोजपरक पत्रकारिता की नींव रखी. वह ‘कांग्रेसी वामपंथी’ थे और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ‘ब्लिट्ज़’ का दफ़्तर भूमिगत हुए कांग्रेसियों-वामपंथियों की पनाहगाह बन गया था. नेहरू जेल में थे और उन्हें ‘ब्लिट्ज़’ की लत थी लेकिन अख़बार पढ़ने नहीं दिया जाता था. तब करंजिया ने यह मामला लॉर्ड सोरेंसन के जरिए हाउस ऑफ कॉमन्स में उठवाया.

ख़बर की ख़ातिर करंजिया ने कभी समझौता नहीं किया, ‘सौदा’ तो बहुत दूर की बात है. जनपक्षधर पत्रकारिता को उन्होंने नए आयाम दिए. विचारधारा की बात अलहदा है वर्ना उनकी तथा उनके सहकर्मियों की कलम कभी किसी के आगे नहीं झुकी. 25000 की प्रसार संख्या से शुरू हुए ‘ब्लिट्ज़’ को आगे जाकर 10 लाख ऐसे पाठक मिले, जिन्होंने इसे बाक़ायदा आदत बना लिया. ब्लिट्ज़ के स्कूप और एक्सक्लूसिव इन्वेस्टिगेशन रिपोर्ट्स सड़क से लेकर संसद तक और सत्ता के तमाम गलियारों तक चर्चा में रहते. मोरारजी देसाई के ख़िलाफ़ लगातार रिपोर्टिंग की वजह से उन्हें संसद की प्रताड़ना भी झेलनी पड़ी. वह भी तब जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से उनकी गहरी दोस्ती थी. उस बाबत एक किस्सा मशहूर है. नेहरू ने ख़ुद फोन करके उनसे कहा कि वह अपनी पत्रकारिता शैली, प्रताड़ना के दौरान कतई प्रदर्शित न करें. आरके करंजिया ने नेहरू से वादा किया कि वह उनकी बात मानेंगे. प्रताड़ना के दौरान वह सब कुछ ख़ामोशी से सुनते और बर्दाश्त करते रहे. आख़िर में उनसे कहा गया कि वह फ़र्श पर एक बार अपनी नाक रगड़ें. उन्होंने तत्काल यह किया लेकिन साथ ही हाथ से नाक साफ करते हुए कहा, ‘उफ! इतनी धूल है यहां. आप संसद को इतना गंदा रखते हैं!’ इस प्रताड़ना के बाद उनकी मोरारजी देसाई से अदावत शुरू हो गई. इंदिरा युग में जब मोरारजी देसाई सिंडिकेट के सबसे बड़े नेता के तौर पर उभरे तो ‘ब्लिट्ज़’ ने उनके ख़िलाफ़ अभियान चला दिया. करंजिया अपने लेखों में  देसाई के लिए ‘मोरार जिन्न’ व ‘मोरार ज़हर’ सरीखी संज्ञा वाले शब्द इस्तेमाल करते.

नेहरू और बाद में इंदिरा गांधी से बहुत अच्छे संबंधों के बावजूद ‘ब्लिट्ज़’ में केंद्र और राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार तथा घोटालों की खोजपरक रपटें विस्तार से छपती थीं. इस मामले में उन्होंने नेहरू परिवार की तीसरी पीढ़ी के राजीव गांधी, जिन्हें वह काफी स्नेह करते थे, को भी नहीं बख्शा. बावजूद इसके नेहरू, इंदिरा और राजीव ने सबसे ज्यादा इंटरव्यू करंजिया को दिए. उनके पुराने सहकर्मियों-सहयोगियों के अनुसार आरके करंजिया में इसका रत्ती भर भी दंभ नहीं था कि प्रधानमंत्री उनसे दोस्ताना ताल्लुक रखते हैं और उनसे बात करने के लिए ख़ुद फ़ोन लाइन पर आ जाते हैं. करंजिया का प्रधानमंत्रियों के ‘दरबार’ में बेरोकटोक आना-जाना था लेकिन वह ‘दरबारी’ नहीं थे. नेहरू के बाद इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से उनके रिश्ते ‘लव एंड हेट’ के भी रहे.

प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और बड़े नौकरशाहों से बेतकल्लुफ़ होकर मिलने वाले आरके करंजिया मुंबई के अपने दफ़्तर में अदने से अदना व्यक्ति को भी पूरा मान-सत्कार देते हुए मिलते. हर आने वाले को वह उठकर अपने केबिन से विदा करते थे. मानहानि का अदालती नोटिस या सम्मन लेकर आए सिपाही तक को वह चाय पिलाकर भेजते. फ्रीलांस पत्रकारों को ‘ब्लिट्ज़’ प्रति कॉलम (जैसा उन दिनों सब अख़बारों में रिवाज़ था) के हिसाब से पारिश्रमिक नहीं देता था बल्कि हर महीने के अंत में वेतन की तरह उन्हें भुगतान किया जाता था. ‘ब्लिट्ज़’ के स्थायी स्तंभकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि रूसी (करंजिया) उन्हें हर महीने पांच रुपए के क़रारे नोटों की 500 रुपए की गड्डी देते थे. ऐसे ही अनुभव तब उनके लिए लिखने वाले अन्य लेखकों/पत्रकारों के थे. हालांकि अख़बार को विज्ञापन कम मिलते थे और मुख्य आर्थिक स्रोत उसकी व्यापक प्रसार संख्या थी. यों लोगों ने कई बार उन पर यह आरोप भी गाए कि उन्हें रूस से तगड़ा पैसा मिलता है. दक्षिणपंथियों का अफवाह तंत्र तब भी ख़ासा सक्रिय था और करंजिया को कई बार केजीबी का एजेंट बताया गया. बेशक इसका प्रमाण किसी ने नहीं दिया और हरफ़नमौला करंजिया ने इस सबकी कभी परवाह भी नहीं की. हालांकि आख़िरी दिनों में उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता दक्षिणपंथियों के करीब दिखाई दी और ‘ब्लिट्ज़’ की प्रसार संख्या भी घट गई. इसलिए भी कि संस्था का रूप ले चुके आरके करंजिया बाज़ार को काबू करते ‘मीडिया के ख़ेमे’ में नहीं गए, ‘पत्रकारिता के खेमे’ में अपनी शर्तों और जिद के साथ टिके रहे. उनके जीवन काल में ‘मीडिया’ और ‘पत्रकारिता’ में विभाजन रेखा खींची जा चुकी थी. ऐसे में उन जैसा बेबाक, निर्भीक-निडर संपादक-पत्रकार अपने और अपने अख़बार के वजूद को कितनी देर क़ायम रख पाता? जब तक हिम्मत रही, उन्होंने रखा. उनके बाद ‘ब्लिट्ज़’ की मिल्क़ियत ‘आवारा पूंजी’ के एक प्रतीक विजय माल्या के हवाले हो गई.

पेशेवर के तौर पर आरके करंजिया के तत्कालीन राष्ट्र अध्यक्षों से गहरे संबंध रहे. उनके चीन के राष्ट्राध्यक्ष चाऊ-एन-लाई, क्यूबा के फिदेल कास्त्रो, जमाल अब्दुल नासिर व मार्शल टीटो के इंटरव्यू दुनिया भर में चर्चित हुए. रफ़ीक़ जक़ारिया, आनंद सहाय, महेंद्र वेद, पी साईनाथ, सुधींद्र कुलकर्णी सरीखे पत्रकारों ने उनके साथ काम करते हुए उनसे सीखा. विनोद मेहता भी उनके क़ायल थे. आरके लक्ष्मण ने कई साल तक ‘ब्लिट्ज़’ के लिए कार्टून बनाए. लक्ष्मण ने एक इंटरव्यू में कहा था कि करंजिया से उन्हें धार पैनी करने के कई ‘गुर’ मिले. अपने दौर के मशहूर प्रगतिशील लेखक और फ़िल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने निरंतर 40 साल ‘ब्लिट्ज़’ में अपना बेबाक कॉलम लिखा. उनका वह स्तंभ लेखन आज बड़े दस्तावेज की हैसियत रखता है.

करंजिया स्कूल के कतिपय पत्रकार अपने तौर अब भी सक्रिय हैं और हस्तक्षेपकारी पत्रकारिता कर रहे हैं. पी साईनाथ और रफ़ीक़ जकारिया इनमें शामिल हैं. हालांकि उनकी पत्रकारिता सनसनी से दूर, अन्वेषण के क़रीब है. सनसनी पर वैसे भी अब ‘मीडिया’ का कब्ज़ा है और ‘पत्रकारिता’ रफीक-साईनाथ सरीखे लोग कर रहे हैं. पी साईनाथ ने पिछले दिनों यह बात ख़ुद कही है.

आरके करंजिया के नाम एक और रिकॉर्ड दर्ज है. बतौर संपादक-पत्रकार उन पर मानहानि के जितने मुकदमे चले, भारत में किसी अन्य अख़बारनवीस पर नहीं चले. ज्यादातर में वह इसलिए बरी हुए कि वह साक्ष्यों के साथ लिखते-छापते थे. मानहानि के एक मुकदमे में उन्होंने  अदालत के तीन लाख रुपए देने के आदेश को बखुशी माना था.  एक फरवरी 2008 को उनका निधन हुआ. इसके ठीक 67 साल पहले, एक फरवरी को ही ‘ब्लिट्ज़’ का पहला अंक छपा था.


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