राजनीति का समकाल, लोकप्रियतावाद और जनता

  • 8:30 am
  • 22 January 2020

‘मैं अपने अंत तक बोलता जाऊँगा क्योंकि मैं अमर हूँ. मैं ख़ुद ही जनता हूँ, जनता मेरे साथ है. तुम सब हत्यारे हो और तुम्हारा न्याय जनता ही करेगी.’

फ्रेंच फ़िल्मकार आंद्रेज वाजदा की 1983 में आई फ़िल्म ‘दैंतो’ का यह संवाद फिल्म के अंत में आता है. ‘आय एम द पीपुल’ की यह धारणा फ्रांसीसी क्रांति के उस दौर में सामने आई जब क्रांति से उपजे विरोधाभासों और महत्त्वाकांक्षाओं को वे लोग सँभाल नहीं पाए, जिन पर क्रांति की उपलब्धियों और आदर्शों को आगे ले जाने की जिम्मेदारी थी. वे ही क्रांति के वादे को नष्ट करने लगे. लोगों को गिलोटिन पर चढ़ाया जाने लगा. यह रोचक बात है कि दोनों पक्षों ने अपने आपको ‘जनता’ का प्रतिनिधि बताया और उसी के आधार पर अपने शासन को वैध ठहराने की कोशिश की.

ऊपर जो संवाद आपने पढ़ा है, वह पार्थ चटर्जी की नवीनतम किताब ‘आइ एम द पीपुल : रिफ्लेक्शन ऑन पॉप्युलर सावरेनटी टुडे’ का आधार सृजित करता है. भारत में 2020 में प्रकाशित यह किताब पार्थ चटर्जी के उन तीन व्याख्यानों का संग्रह है, जो उन्होंने 2018 में कोलंबिया युनिवर्सिटी में रुथ बेनेडिक्ट(1887-1948) की स्मृति में दिए थे. किताब के अंत में उन्होंने अपने श्रोताओं के सवालों का जवाब भी दिया है जो इसमें एक उत्तर-लेख के रूप में शामिल है. किताब परमानेंट ब्लैक से है.

कहानी यह है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के अशांत वर्षों में रुथ बेनेडिक्ट(1887-1948) जापान में थीं और वे यू.एस. ऑफिस ऑफ वार इन्फॉर्मेशन के तहत वहाँ काम करती थीं. उन्होंने खुली आँखों से जापानी समाज को देखा और सूचना, समझ और एथनोग्राफी के आधार पर एक गहन रिपोर्ट लिखी. अपनी रिपोर्ट में उन्होंने पश्चिमी देशों से जापानी चरित्र को उसकी विशिष्टता में देखने का आग्रह किया और यह अपील की कि जापान के बारे में कोई निर्णय लेते समय जापान के ऐतिहासिक-सामाजिक अनुभवों के आधार पर ही कोई निर्णय लिया जाए. विजयी देशों ने द्वितीय विश्वयुद्ध की हार के बाद को जापान के नेताओं को ‘दूसरे देशों के खिलाफ युद्ध छेड़ने’ और ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ करने का दोषी ठहराया. इसकी जाँच के लिए बाकायदा एक युद्ध ट्रिब्युनल गठित हुआ था.

सब जानते थे कि इस युद्ध ट्रिब्युनल में क्या होगा लेकिन भारत की तरफ से कलकत्ता के जस्टिस राधाविनोद पाल इसमें शामिल हुए. भारत इसमें एक पक्ष था क्योंकि जापान ने भारत पर बम गिराए थे और कुछ द्वीपों पर कब्ज़ा जमा लिया था. जस्टिस पाल ने अन्य 8 देशों के 10 न्यायाधीशों के खिलाफ़ जाते हुए अपना मत अलग मत व्यक्त किया. उन्होंने सभी को बरी कर दिया और कहा कि किसी न्यायिक ट्रिब्युनल को राजनीतिक लाभ लेने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. ऐसा करते हुए उन्होंने पुनर्जागरण की उपलब्धियों, पश्चिम के विधिक साहित्य का गहन अध्ययन किया और अमेरिका एवं ब्रिटेन को उन्हीं के मैदान में पटखनी दे दी. वास्तव में अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और सोवियत संघ के रहनुमाओं ने अपनी जनता को अपने व्यक्तित्व और पार्टी से गहन तरीके से जोड़ देने के लिए युद्ध की उपलब्धियों का बखान किया था. चूँकि, यह अल्पमत का निर्णय था इसलिए इससे मुकदमों का भविष्य प्रभावित नहीं हुआ लेकिन जस्टिस पाल ने अपना पक्ष कलकत्ता वापस आकर अपने सार्वजनिक व्याख्यानों में रखा.

रुथ बेनेडिक्ट के हवाले से चटर्जी बताते हैं कि जापान में ‘शर्म की संस्कृति’ गहरे तक पैबस्त थी और जब विश्व युद्ध में जापान हारा तो वहाँ के लोगों के सामने अपना नाम बचाने का दवाब काम करने लगा. दूसरी तरफ पश्चिम में ‘अपराधबोध’था जिसे उन्होंने कानून के शासन से दूर कर देना चाहा. उन्होंने विश्वयुद्ध के ज़िम्मेदार लोगों की खोज की और उन्हें बड़ी सजाएं दीं. उन्हें फाँसी पर लटका दिया. ‘जनता को संतुष्ट किया गया’. जस्टिस पाल ने इसी लोकप्रियतावाद के ख़िलाफ अपना निर्णय लिखा था. उन्होंने कहा कि मानवता का हर हिस्सा उतना ख़ुशनसीब नहीं होता है और वह राजनीतिक आधिपत्य में फँस जाता है. अपने निर्णय में जस्टिस पाल ने कहा कि जापान ने जो किया, वह उसके आत्मरक्षा के अधिकार में शामिल है.

चटर्जी का दूसरा व्याख्यान सत्ता के प्रति पागलपन की हदों की पड़ताल करता है. वे हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं कि दो बातें एक साथ हुई हैं : पहली बात तो यह है कि राज्य की नैतिक आभा कमजोर हुई है और दूसरी बात यह है कि राज्य ने लोगों की ज़िंदगियों में अपनी दख़लंदाज़ी बढ़ाई है, वह भी उनकी देखभाल करने के नाम पर. इसी के नाम पर नेता जनता का समर्थन माँगते हैं और ख़ुद को मज़बूत, बहुत मज़बूत बनाते चले जाते हैं. लोग सरकारों का विरोध करते हैं, उनसे याचना करते हैं. सरकार भी इन पर अपने तरीके से ध्यान देती है और लोगों की मांगों पर विचार करती है और अंत में लोग वही माँगने लगते हैं जो सरकारें चाहती हैं. इतिहासकार और मानवविज्ञानी इसे ‘सरकारवाद’ कहते हैं. इस तरह मज़बूत होना था जनता को और सरकारें मज़बूत होती जाती हैं. पूरी दुनिया में इसे अब देखा जा सकता है. फ्रांस में जैकोबिनों के समय से लेकर अब तक, पूरी दुनिया में सत्ता दावा करती है कि वह जानती है कि ‘जनता के हित में’ क्या है और क्या नहीं है – इस आधार पर वह नीतियाँ बनाती है.

व्याख्यान का तीसरा शीर्षक है : ‘मैं ही जनता हूँ’. इसी व्याख्यान से प्रस्तुत लेख की शुरुआत की गई है.‘मैं खुद ही जनता हूँ, जनता मेरे साथ है’ दैंतो के इस संवाद को पूरी दुनिया के लोकप्रिय शासक आज दोहराते देखे जा सकते हैं. जनता केवल ‘स्लीपिंग सोवरेन’ बनकर रह गई है. पार्थ चटर्जी कहते हैं कि दिक़्क़ततलब बात तो यह है कि जनता केवल चुने हुए जन प्रतिनिधियों द्वारा बनाए गए क़ानून का पालन कर सकती है, इसके आगे उसकी ताक़त ख़त्म हो जाती है. अगले चुनाव में जन प्रतिनिधियों के बदल देने से कुछ ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता है क्योंकि कोई बुरा क़ानून तब तक जनता का काफी नुक़सान कर चुका होता है. इसी के साथ एक बात और होती है, राजनेताओं के साथ विशेषज्ञ मिलकर एक छोटे से अभिजात्य वर्ग का निर्माण कर लेते हैं. धनी, संपत्तिशाली और एक छोटा सा तबका एजेंडा तय करने लगता है. यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि आख़िर जन प्रतिनिधि किस लिए चुने गए थे? तकनीक शासक वर्ग को यह छूट देती है कि वह ‘भिन्न-भिन्न समय पर भिन्न-भिन्न लोगों से भिन्न-भिन्न बात’ कह सके. उसमें कोई सातत्य नहीं बचता है, जिससे जनता में अविश्वास उपजता है. पार्थ चटर्जी इस पृष्ठभूमि में भारत के पिछले पचास साल के राजनीतिक मुद्दों, पार्टियों और गोलबंदियो को देखने का सुझाव जब देते हैं तब इस किताब का रहस्य खुलने लगता है कि यह जितना अमेरिका को समझने में मदद करती है, उतना ही भारतीय जनता और उसके चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को.

पूरी किताब तीन व्याख्यानों की श्रृंखला में है, यह इतनी प्रवाहपूर्ण है कि पाठक का मन नहीं ऊबता है. हाँ, कहीं-कहीं पर जो सवाल उठते हैं, उसका उत्तर अगले या पिछले व्याख्यान में मौजूद होता है. यह किताब उन सभी को पढ़नी चाहिए जो हमारी समकालीन दुनिया और भारत की राजनीति के मर्म को समझना चाहते हैं.

(रमाशंकर सिंह, फेलो, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला)


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