लगान | कहानी एक जुनून की
समांतर सिनेमा को छोड़ दें तो लोकप्रिय फ़िल्मों की दुनिया में ऐसी फ़िल्में गिनी-चुनी ही हैं, जो लंबे समय तक अपना असर बरक़रार रख पाई हैं. मौजूदा दौर की होड़ में तो यह थोड़ा और मुश्किल हो चला है. कई बार बहुत हो-हल्ले के साथ आने फ़िल्में भी सिनेमाघरों से उतरने के बाद ज़ेहन से उतर जाती हैं. इसकी वजहें तमाम हो सकती हैं. हालांकि पिछली सदी भी इसका अपवाद नहीं थी. फिर भी गुज़रे ज़माने की चुनींदा फ़िल्मों पर एक दर्शक के नज़रिये से ग़ौर करने के लिहाज़ से ‘संवाद’ की फ़ीचर डेस्क ने एक छोटी-सी फ़ेहरिस्त बनाई है. उसी कड़ी में ‘लगान’ पर यह पहला आलेख,
वैसे तो हिंदी में ऐसी तमाम फ़िल्में बनी हैं, जो देश की विविधता वाली संस्कृति और एकता के जज़्बे की जीत का जश्न मनाती हैं, देश की अस्मिता के लिए समर्पण की भावना रेखांकित करती हैं, इस सिलसिले में ‘हक़ीक़त’ से लेकर ‘बॉर्डर’ तक या फिर ‘अ वेन्स्डे’, ‘स्वदेश’, ‘रंग दे बसंती’ जैसे कितने ही नाम लिए जा सकते हैं. अपने ढंग की कहन और असर वाली ये फ़िल्में सिनेमा के हमारे इतिहास की धरोहर हैं, जो न केवल जज़्बाती तौर पर बल्कि वैचारिक रूप से भी देखने वालों को उम्मीद बंधाती हैं, प्रेरित करती हैं. ऐसी फ़िल्में दर्शकों को कहानी के अपने सफ़र में शामिल कर लेती हैं, सुख-दुख बाँटती हैं और दिलो दिमाग़ पर गहरी छाप छोड़ जाती हैं.
‘लगान’ भी ऐसी ही फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में शामिल है. यह उन चुनिंदा फ़िल्मों में से है, जो फ़िल्म बनाने की परम्परागत सीमायें लाँघकर नए आयाम गढ़ती है और बाद के दौर की फ़िल्मों के लिए मयार बन जाती है. यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि हिन्दी सिनेमा को अगर ‘लगान’ नहीं मिलती तो शायद ‘स्वदेश’, ‘मक़बूल’, ‘ब्लैक फ़्राइडे’ ‘मंगल पांडे’, ‘रंग दे बसंती’, ‘तारे ज़मीं पर’, ‘थ्री इडियट्स’ और ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी फ़िल्मों का तसव्वुर न होता, और ये फ़िल्में न बनी होतीं तो हमारे पास राजकुमार हिरानी, दिबाकर बैनर्जी, अनुराग कश्यप, इम्तियाज़ अली, विशाल भारद्वाज और कबीर ख़ान जैसे निर्देशकों से मुतासिर होने की कौन-सी वजहें होतीं भला!
हालाँकि भारी-भरकम बजट की ज़रूरतों और मुनाफ़े को लेकर प्रोड्यूसरों की उम्मीद पर खरा उतरने की जद्दोजहद नए दौर में हर फ़िल्मी कहानी की क़िस्मत बन गई है, तो ‘लगान’ सरीखी फ़िल्म बना पाना भी कुछ आसान नहीं था, बल्कि कुछ ज़्यादा ही चुनौती वाला ख़्याल था. आशुतोष गोवारिकर की इस कहानी को सबसे पहले नकारने वाले कलाकार आमिर ख़ान ही थे, अमिताभ बच्चन, शाहरुख़ ख़ान समेत दूसरे तमाम कलाकारों ने भी ‘लगान’ में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
आशुतोष इससे मायूस तो हुए मगर उन्होंने हार नहीं मानी. सारे कामधाम दर किनार करके पूरे छह महीनों तक उन्होंने स्क्रिप्ट को और तराशा. इस बार कोई कसर न छोड़ने की ज़िद थी और स्क्रिप्ट की बेहतरी के लिए किसी नौसीखिये की तरह उन्होंने दिमाग़ के दरवाज़े खुले रख छोड़े थे. एक बार फिर वे आमिर के पास गए, और इस बार मुक़म्मल स्क्रिप्ट के साथ गए. आमिर का मिज़ाज भी ‘सरफ़रोश’ के बाद से कुछ ऐसा हो गया था कि मुक़म्मल स्क्रिप्ट सुनने के बाद ही वह किसी फ़िल्म में काम के लिए हाँ कहते थे.
यही वो वक़्त भी था, जब हिन्दी सिनेमा बदलाव की तरफ़ आगे बढ़ रहा था. आशुतोष के आत्मविश्वास और ‘लगान’ की मुक़म्मल स्क्रिप्ट ने आमिर को प्रभावित किया. फिर भी परम्परागत हिन्दी फ़िल्में बनाने के चलन ने उन्हें पेशोपश में डाल रखा था. आमिर ने फिर से स्क्रिप्ट सुनने का मन बनाया और इस बार की बैठकी में अपने परिवार के साथ ही फ़िल्म वितरक (मरहूम) झामु सुगंध को भी शामिल किया. स्क्रिप्ट सुनने के बाद सबने एक स्वर में इसे अव्वल दर्जे का बताया. आमिर अपनी माँ की राय को बहुत मान देते हैं और जब उनसे भी मंज़ूरी मिल गई तो आमिर और आशुतोष दोनों का आत्मविश्वास और बढ़ गया. उन्हें स्क्रिप्ट में एक सुलझी हुई अच्छी फ़िल्म की अपार सम्भावनाएं नज़र आने लगी.
पर अभी एक और बड़ी चुनौती बाक़ी थी, और वो यह कि किसी तरह के आर्थिक समझौते के बग़ैर कहानी को पर्दे पर कैसे उतारा जाए. इसके लिए निर्माता भी ऐसा होना चाहिए, जिसे सबसे पहले तो स्क्रिप्ट की सफलता पर भरोसा हो. आमिर और आशुतोष यह तय कर चुके थे कि ‘लगान’ के साथ सिर्फ़ उसे ही जोड़ेंगे, जिसे कहानी पर एतबार हो. ‘लगान’ की कहानी मसाला फ़िल्मों से अलग तरह की कहानी थी, साथ ही इसके ऐसे तमाम पहलू थे, जो इसकी सफलता पर आँख मूँदकर यक़ीन करने से रोकते थे. मसलन इसका पीरियड ड्रामा होना (इसके पहले ‘1942:एक प्रेम कहानी’ फ़्लॉप हो चुकी थी), क्रिकेट मैच की मार्फ़त फ़िल्म के आख़िर तक पहुंचना (क्रिकेट पर आधारित देव आनंद की फ़िल्म ‘अव्वल नंबर’ फ़्लॉप हो चुकी थी, जिसके हीरो आमिर ख़ान थे), नई स्टारकास्ट (जिसमें तमाम नए विदेशी कलाकार भी शामिल थे), और ऐसा निर्देशक, जिसके नाम पहले से ही दो फ़्लॉप फ़िल्में दर्ज हों. देखा जाए तो किसी भी निर्माता के लिए ‘लगान’ पर पैसा लगाना फ़िल्मी दुनिया की व्यावहारिकता के तक़ाज़े के ख़िलाफ़ होता.
और उस वक़्त की क़ामयाब फ़िल्मों (1998 में ‘कुछ कुछ होता है’ और ‘सोल्जर’, और 1999 की सबसे बड़ी हिट ‘बीवी नंबर वन’) ने इस लिहाज़ से भी संशय पैदा किए कि इन सफल फ़िल्मों का मिज़ाज ‘लगान’ से एकदम उलट था. अलबत्ता ‘ग़ुलाम’ और ‘सत्या’ जैसी फ़िल्मों की क़ामयाबी ज़रूर हौसला बँधाती थी. वैसे भी आशुतोष अकेले नहीं थे, आमिर भी उनके साथ थे. आमिर ने झामु सुगंध को इत्मीनान दिलाया. 1995 की फ़िल्म ‘रंगीला’ की वजह से झामु को आमिर पर भरोसा था सो उन्होंने हामी भर दी. आमिर ने ख़ुद ही फ़िल्म बनाने ज़िम्मा उठाया और अपनी पत्नी रीना को भी इसमें शामिल कर लिया. वित्तीय रूप से ‘लगान’ अब महफूज़ हो चुकी थी लेकिन चुनौतियां का सिलसिला बना हुआ था.
फ़िल्म के लिए सहायक कलाकारों, लोकेशन, संगीतकार, तकनीशियन वगैरह का चुनाव अभी बाक़ी था. गीतकार के तौर पर दोनों ने बिना किसी पेशोपश के जावेद अख़्तर को चुना, कि उनका लम्बा तजुर्बा फ़िल्म को फ़ायदा पहुँचाएगा. जावेद अख़्तर ने जब कहानी सुनी तो एक हमदर्द की तरह उन्होंने आमिर को मशविरा दिया कि वे फ़िल्म का इरादा छोड़ दें क्योंकि ‘लगान’ जैसी फ़िल्म घाटे का सौदा होगी. उनका तर्क था कि इसकी कहानी दौर-ए-हालिया से मेल नहीं खाती है. खेल पर आधारित पटकथा, गांव की पृष्ठभूमि, पीरियड ड्रामा, फ़िल्म का साढ़े तीन घंटे का होना उनके एतराज़ की वजहें थीं. ख़ुद जावेद अख़्तर उन्हीं दिनों फ़िल्म के वितरक भी बन रहे थे और उनकी पहली फ़िल्म बनने जा रही थी – दिल चाहता है. यह फ़िल्म ‘लगान’ से एकदम मुख़्तलिफ़ थी. जावेद अख़्तर की सोच भी यही थी कि अब वक़्त ‘दिल चाहता है’ जैसी फ़िल्मों का होगा, न कि ‘लगान’ जैसी फ़िल्मों का. लेकिन आमिर फ़ैसला कर चुके थे सो उन्होंने जावेद साहब को भी राज़ी कर लिया. ‘लगान’ के गीतों में कुछ अंग्रेज़ी पंक्तियाँ भी थीं, जो फ़रहान अख़्तर ने लिखीं.
अपने चुटीलेपन के चलते ‘लगान’ के संवाद अगर लीक से हटकर गुदगुदाते या कचोटते लगते हैं तो उसका श्रेय मशहूर व्यंग्यकार (मरहूम) के.पी. सक्सेना की क़लम को जाता है. नामचीन संवाद लेखकों के बजाय इस काम के लिए के.पी. सक्सेना को चुनना भी ग़ैर परंगपरागत सोच का नतीजा था. यही वजह है कि ‘लगान’ के संवाद हिन्दी फ़िल्मों की प्रचलित संवाद शैली से अलग हो सके, उनका नयापन, व्यंग्य की चाशनी, हाज़िरजवाबी और संवेदनशीलता ‘लगान’ को ख़ास फ़िल्म का दर्जा देते हैं. कॉस्टयूम डिज़ाइनर भानु अथइया ने कहानी में विश्वास दिखाया और पोशाकें डिज़ाइन करने की ज़िम्मेदारी ले ली. तमाम लोकेशन देखने के बाद आख़िरकार कच्छ में फ़िल्म शूट करने का फ़ैसला हुआ.
सहायक कलाकारों के नाम तय करना अभी बाक़ी था. गौरी के किरदार के लिए माधुरी, जूही, काजोल, रानी व प्रीती ज़िंटा के नामों पर विचार किया गया. रानी मुखर्जी का नाम आशुतोष तक़रीबन पक्का कर चुके थे मगर आमिर दुविधा में थे. परम्परागत तरीक़ों को दरकिनार करके उन्होंने बिल्कुल नई अभिनेत्री को लेने का इरादा किया. नए सिरे स्क्रीन टेस्ट फिर शुरू हुए. 1998-99 में ज़ी टीवी पर ‘अमानत’ नाम का एक धारावाहिक बेहद मक़बूल हो रहा था. जिसमें मुख्य भूमिका ग्रेसी सिंह कर रही थीं. स्क्रीन टेस्ट में वह भी शामिल हुई, तभी आमिर ने एलान कर दिया था – हमें गौरी मिल गई है. बाक़ी कलाकारों की तलाश रंगमंडलों में शुरू हुई.
फ़िल्म में लाखा की भूमिका करने वाले यशपाल शर्मा ने एक इंटरव्यू में बताया कि ऑडीशन देने के लिए आमिर ख़ान प्रोडक्शन्स से जब रीना का फ़ोन आया तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ. अपने साथियों से मशवरा करने के बाद वह फ़िल्म के ऑडिशन के लिए तैयार हो गए. यशपाल की दुविधा ख़त्म नहीं हुई थी. वह सोचते रहे कि अगर चयन हो गया तो फ़ीस कितनी मांगूगा. सहायक कलाकारों के लिए दो लाख रुपये की फ़ीस रीना पहले ही तय कर चुकी थी. यशपाल ने ऑडीशन दिया, थोड़ी झिझक के साथ फ़ीस का ज़िक्र किया तो रीना ने तय मेहनताना बता दिया. यह रक़म यशपाल की उम्मीद से कहीं ज़्यादा थी. अखिलेन्द्र मिश्र, प्रदीप रावत, श्रीवल्लभ व्यास और कुछ और कलाकार ‘सरफ़रोश’ में आमिर ख़ान के साथ काम कर चुके थे तो इनके बारे में फ़ैसला लेने के लिए ज़्यादा जद्दोजहद नहीं करनी पड़ी. राजेंद्रनाथ ज़ुत्शी ‘क़यामत से क़यामत तक’ में और आदित्य लखिया ‘जो जीता वह सिकंदर’ में काम कर चुके थे, मँजे हुए कलाकार थे, सो वे भी ‘लगान’ की टीम में आ गए.
‘सरफ़रोश’ और ‘1947-अर्थ’ सरीखी फ़िल्मों के तजुर्बे के चलते ‘लगान’ का तकनीकी पक्ष भी मज़बूत हुआ. दोनों फ़िल्में तकनीकी रूप से सम्पन्न थी, ‘1947 अर्थ’ में तो सिंक साउंड तकनीक का इस्तेमाल हुआ था. इस तकनीक में संवाद शूटिंग के बाद डब नहीं किए जाते बल्कि शूटिंग के दौरान बोले गए संवादों को ही अंतिम रूप से फ़िल्म में रखा जाता है. सिंक साउंड सारे कलाकारों के लिए चुनौती भरा अनुभव था, क्योंकि आमिर ख़ान के सिवाय ज़्यादातर के लिए यह नया और मुश्किल अनुभव था. पर ‘लगान’ का नसीब कुछ ऐसा था कि हर नई मुश्किल फ़िल्म को और ज़्यादा मज़बूत बना रही थी. कैमरामैन के तौर पर संतोष सिवान को लिए जाने की उम्मीद थी, मगर बाद में अनिल मेहता को चुना गया.
फ़िल्म में विदेशी कलाकारों के चुनाव के बारे में आमिर ख़ान पर लिखी अपनी किताब ‘आई विल डू इट माय’ में क्रिस्टना डैनिएल्स ने लिखा है कि हिन्दी सिनेमा में ‘लगान’ से पहले बनी फ़िल्मों में विदेशी कलाकारों के नाम पर टॉम आल्टर और उनके जैसे कलाकारों को लिया जाता रहा था लेकिन यह सब कुछ ‘लगान’ के नसीब में नहीं था क्योंकि विदेशी कलाकार चुनने के लिए आमिर-आशुतोष ने एक बहुप्रतिष्ठित विदेशी कास्टिंग एजेंसी के साथ करार किया था. इसका नतीजा यह था कि ‘लगान’ को रचेल शैली, पॉल ब्लैकथॉर्न, हावर्ड ली जैसे गंभीर और आला दर्जे के कलाकार मिल गए. सहायक निर्देशक बने – अपूर्व लखिया, जिन्होंने आगे चलकर ‘मुंबई से आया मेरा दोस्त’ (2003), ‘शूटआउट एट लोखंडवाला’ (2007) और ‘मिशन इस्तम्बुल’ (2008) सरीखी फ़िल्में निर्देशित कीं.
सन् 1999 में जब ‘लगान’ के प्री-प्रोडक्शन का काम अपने चरम पर था, आमिर ख़ान की तीन फ़िल्में (सरफ़रोश, मन और 1947 अर्थ) उन्हीं दिनों रिलीज़ हुईं. ‘लगान’ की शूटिंग शुरू करने के लिए छह जनवरी 2000 की तारीख़ तय हुई. छह महीने तक कड़े अनुशासन और लगन के साथ शूटिंग लगातार चली और प्री-प्रोडक्शन के दौरान की गई मेहनत का फल भी मिला. आमिर के क़रीबी दोस्त और टीवी शो ‘सत्यमेव जयते’ के निर्देशक सत्यजीत भटकल ने फ़िल्म की शूटिंग डॉक्यूमेंट करने की ज़िम्मेदारी उठायी. इसी दौरान आमिर ‘दिल चाहता है’ के लिए हाँ कर चुके थे तो जुलाई से लेकर नवंबर तक उन्होंने इस फ़िल्म की शूटिंग की और 26 अक्टूबर को ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के पहले शो में ‘दिल चाहता है’ के किरदार आकाश के तौर पर मेहमान बने. उनकी नई छटा, और आने वाली फ़िल्म ‘लगान’ के ज़िक्र ने सिनेमा प्रेमियों के बीच ‘लगान’ के लिए उत्सुकता और बढ़ा दी. नवंबर 2000 के आख़िरी हफ़्ते से फिर ‘लगान’ के पैच वर्क मुक़म्मल करने के बाद टीम पोस्ट प्रोडक्शन में जुट गई.
26 जनवरी 2001 को आए ज़बरदस्त भूकंप में कच्छ तहस नहस हो गया. आमिर जब लौटकर वहाँ गए तो यक़ीन ही नहीं कर पाए कि यही वो जगह है, जहाँ कुछ अर्सा पहले उन्होंने ‘लगान’ की शूटिंग पूरी की थी. पोस्ट प्रोडक्शन का काम चलता रहा और 23 मार्च, 2001 को ‘लगान’ का छोटा-सा टीज़र जारी किया गया. इस बेहद फ़ास्ट पेस टीज़र ने देखने वालों की दिलचस्पी बढ़ा दी. 06 अप्रैल 2001 को फ़िल्म का संगीत जारी हुआ, जिसे लोगों ने काफ़ी पसंद किया. हालाँकि उन दिनों ‘प्यार तूने क्या किया’, ‘मुझे कुछ कहना है’ और ‘प्यार इश्क़ और मोहब्बत’ जैसी नए ज़माने की फिल्मों का संगीत फ़िज़ाँ में गूंज रहा था.
‘लगान’ की रिलीज़ की तारीख़ पहली जून तय की गई. ज़ी एंटरटेनमेंट ने ‘ग़दर’ रिलीज़ करने के लिए भी यही तारीख़ तय कर दी, हालांकि बाद में इसे बदलकर 15 जून करने का फ़ैसला किया. ‘ग़दर’ को पर्दे पर लाने की तारीख़ों में फेरबदल के इस खेल के बीच आमिर ख़ान भिड़ने का इरादा कर चुके थे सो उन्होंने भी ‘लगान’ 15 जून को ही रिलीज़ करने का फ़ैसला कर लिया. एक जून को ‘दिल चाहता है’ का ट्रेलर भी जारी कर दिया गया. ‘लगान’ और ‘ग़दर’ दोनों ही फ़िल्में धमाकेदार शुरुआत के साथ पर्दे पर आईं. फ़िल्मों के शौक़ीन बहुतेरे लोगों को जहाँ ‘ग़दर’ में हिंसा का तत्व ज़्यादा लगा, वहीं ‘लगान’ को लीक से हटकर बनाई गई अतुलनीय फ़िल्म के रूप में लोगों के दिलों में जगह मिली. दोनों फिल्मों का बिज़नेस शानदार चल रहा था हालाँकि पाइरेसी से नुक़सान भी बहुत हो रहा था. बतौर निर्माता आमिर ख़ान ने पाईरेसी के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ा और बड़ी तादाद में ‘लगान’ और ‘ग़दर’ की पाइरेटेड सी.डी. ज़ब्त कराईं. ‘लगान’ ने अच्छा बिज़नेस किया और 2001 की क़ामयाब फ़िल्मों में से एक साबित हुई.
‘लगान’ भारत की ओर से ऑस्कर में भेजे जाने वाली आधिकारिक फ़िल्म भी बनी. इसकी चर्चा बाद में..
सभी तस्वीरें | सोशल मीडिया से साभार.
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