प्रलेस | अदब के उस तारीख़ी जलसे की याद

  • 11:43 am
  • 9 April 2021

नौ अप्रैल प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना दिवस है. सन् 1936 में आज ही के दिन लखनऊ के ‘रफ़ा-ए-आम’ क्लब में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ, जिसमें बाक़ायदा संगठन की स्थापना हुई.

नौ और 10 अप्रैल को हुए इस अधिवेशन के अध्यक्ष प्रेमचंद ने कहा था, ‘‘हमारी कसौटी पर वह साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो, जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है.’’ प्रेमचंद के दिए इस बीज वक्तव्य को एक अरसा बीत गया, लेकिन आज भी यह श्रेष्ठ साहित्य की परख का बना हुआ है.

प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के तमाम ऐतिहासिक कारण भी थे. साल 1930 से 1935 तक का दौर परिवर्तन का दौर था. पहले विश्व युद्ध के बाद सारी दुनिया आर्थिक मंदी की चपेट में थी. जर्मनी और इटली में हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही और फ़्रांस की पूंजीपति सरकार के जनविरोधी कामों से पूरी दुनिया पर साम्राज्यवाद और फ़ासिज़्म का ख़तरा मंडरा रहा था. ऐसे तमाम संकटों के बावजूद उम्मीदें ख़त्म नहीं हुई थीं. हर ढलता अंधेरा, पहले से भी उजला सबेरा लेकर आता है. जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर दिमित्रोव के मुक़दमे, फ़्रांस के मजदूरों की बेदारी और ऑस्ट्रिया की नाकामयाब मजदूर क्रांति से सारी दुनिया में क्रांति के एक नए युग का आगाज़ हुआ.

चुनांचे सन् 1933 में फ्रांसीसी साहित्यकार हेनरी बारबूस की कोशिशों से फ़्रांस में लेखक और कलाकारों का फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ एक संयुक्त मोर्चा ‘वर्ल्ड कॉन्रेंारीस ऑफ़ राइटर्स फ़ॉर द डिफ़ेन्स ऑफ़ कल्चर’ बना. बाद में यह पॉपुलर फ़्रंट (जन मोर्चा) के रूप में तब्दील हो गया. इस संयुक्त मोर्चे में मैक्सिम गोर्की, रोम्या रोलां, आंद्रे मालरो, टॉमस मान, वाल्डो फ्रेंक, मारसल, आंद्रे जीद, आरांगो जैसे विख्यात साहित्यकार शामिल थे. लेखक-कलाकारों के इस मोर्चे को अवाम की हिमायत भी हासिल थी.

दुनिया भर में चल रही इन घटनाओं ने भारतीयों को भी प्रभावित किया. इन भारतीयों में लंदन में पढ़ाई कर रहे सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद, प्रमोद सेनगुप्त, मुहम्मद दीन ‘तासीर’, हीरेन मुखर्जी और ज्योति घोष भी थे. इन लोगों ने मिलकर लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ बनाया. लेखक संघ के घोषणा-पत्र का शुरुआती मसौदा वहीं तैयार हुआ.

सज्जाद ज़हीर और उनके दोस्तो ने मिलकर तरक़्क़ीपसंद तहरीक को आलमी तहरीक का हिस्सा बनाया. स्पेन के फ़ासिस्ट विरोधी संघर्ष मे सहभागिता के साथ-साथ सज्जाद ज़हीर ने साल 1935 में गीडे व मेलरौक्स द्वारा आयोजित विश्व बुद्धिजीवी सम्मेलन में भी भाग लिया. जिसके अध्यक्ष गोर्की थे. साल 1936 में सज्जाद ज़हीर भारत लौट आए. यहाँ आते ही उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की तैयारियां शुरू कर दीं.

‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर उन्होंने भारतीय भाषाओं के तमाम लेखकों से विचार-विमर्श किया. इस दौरान सज्जाद जहीर गुजराती भाषा के बड़े लेखक कन्हैयालाल मुंशी, फ़िराक़ गोरखपुरी, डॉ. सैयद ऐजाज हुसैन, शिवदान सिंह चौहान, अमरनाथ झा, डॉ.ताराचंद, अहमद अली, मुंशी दयानरायन निगम, महमूदुज्ज़फ़र, सिब्ते हसन आदि से मिले और घोषणा-पत्र पर उनसे राय-मशिवरा किया.

प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद रखने और उसको परवान चढ़ाने में उर्दू अदब की एक और बड़ी अफ़सानानिगार, ड्रामा निगार रशीद जहां का भी बड़ा योगदान रहा. हिंदी और उर्दू ज़बान के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को उन्होंने इस संगठन से जोड़ा. मौलवी अब्दुल हक, फ़ैज अहमद फ़ैज, सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा जैसे कई नामी गिरामी लेखक अगर प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े, तो इसमें रशीद जहां का बड़ा योगदान है. यही नहीं संगठन बनाने के सिलसिले में सज्जाद ज़हीर ने जो शुरुआती यात्राएं कीं, रशीद जहां भी उनके साथ गईं.

उन दिनों लखनऊ, इलाहाबाद, पंजाब, लाहौर अदब के बड़े केन्द्र थे. इन केन्द्रों से उन्होंने सभी प्रमुख लेखकों को संगठन से जोड़ा. संगठन की विचारधारा से उनका परिचय कराया. संगठन के हर काम में वे आगे-आगे रहती थीं. लखनऊ अधिवेशन के वास्ते चंदा जुटाने के लिए उन्होंने न सिर्फ यूनिवर्सिटी और घर-घर जाकर टिकट बेचे, बल्कि प्रेमचंद को सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए भी राजी किया. चौधरी मुहम्मद अली साहब रूदौलवी, जो कि उस वक्त अवध के एक बड़े ताल्लुक़दार और रईस थे, उनको अधिवेशन का स्वागत अध्यक्ष बनने के लिए तैयार किया. ताकि सम्मेलन में उनकी ओर से ज्यादा से ज्यादा आर्थिक मदद मिल सके.

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन में अहमद अली, फ़िराक़ गोरखपुरी, मौलाना हसरत मोहानी, जैनेन्द्र कुमार, शिवदान सिंह चौहान समेत हिंदी-उर्दू में लिखने वाले तमाम नामचीन लोगों ने शिरकत की. लेखकों के अलावा समाजवादी लीडर जयप्रकाश नारायण, युसूफ़ मेहर अली, इंदुलाल याज्ञनिक और कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी हिस्सा लिया. सज्जाद ज़हीर इस संगठन के पहले महासचिव चुने गए. सन् 1949 तक वह इस पद पर रहे.

सज्जाद ज़हीर की दृष्टिसम्पन्न परिकल्पना के ही कारण प्रगतिशील आंदोलन, आगे चलकर भारत की आज़ादी का आंदोलन बन गया. देश के सारे प्रगतिशील-जनवादी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन के इर्द-गिर्द जमा हो गए. सन् 1942 से 1947 तक का दौर प्रगतिशील आंदोलन का सुनहरा दौर था. यह आंदोलन आहिस्ता-आहिस्ता देश की सारी भाषाओं में फैलता गया. हर भाषा में एक नए सांस्कृतिक आंदोलन ने जन्म लिया. इन आंदोलनों का आखिरी उद्देश्य देश की आज़ादी था.

प्रगतिशील लेखक संघ की लोकप्रियता देश के सभी राज्यों के लेखकों के बीच थी. तब प्रगतिशील आंदोलन में लेखकों का शामिल होना, प्रगतिशीलता की पहचान मानी जाती थी. आन्दोलन ने धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद और हर तरह की धर्मांधता का विरोध किया, साथ साम्राज्यवादी, सामंतशाही से भी टक्कर ली.

एक समय ऐसा भी आया, जब उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ के झण्डे तले थे. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार जाफ़री, मज़ाज, कृश्न चंदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, इस्मत चुगताई, महेन्द्रनाथ, साहिर लुधियानवी, हसरत मोहानी, उपेन्द्र नाथ अश्क, सिब्ते हसन, जोश मलीहाबादी, मुईन अहसन जज्बी जैसे कई नाम तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमनवां- हमसफ़र थे. उनक लेखन ने मुल्क़ में आज़ादी के हक़ में समां बना दिया.

यह वह दौर था जब प्रगतिशील लेखकों को नए दौर का रहनुमा समझा जाता था. तरक़्क़ीपसंद तहरीक को जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, रविन्द्रनाथ टैगोर, अल्लामा इक़बाल, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, प्रेमचंद, वल्लथोल जैसी हस्तियों की सरपरस्ती हासिल थी. वे भी इन लेखकों के काम से बेहद मुतासिर और मुतमईन थे.

सज्जाद ज़हीर की किताब ‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’ में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन उद्देश्य और काम के बारे में दस्तावेज़ी जानकारी मिलती हैं. साथ ही यह किताब मुल्क़ की आज़ादी की जद्दोजहद और उस वक़्त के सियासी, समाजी हालात का मुक़म्मल ख़ाका भी पेश करती है.

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