गिरिराज किशोर: जिन्हें गांधी बाबा की लाठी छू गई

  • 10:59 am
  • 10 February 2020

अपने वृहद उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ के ज़रिये गांधी के ‘महात्मा’ होने से पहले के जीवन के अनगिनत और अनछुए पहलू विस्तार से रेखांकित करने वाले गिरिराज किशोर उस वक़्त विदा हुए हैं, जब एक जमात गांधी की स्मृतियों तक से पीछा छुड़ाने की दिन-रात कोशिश में लगी हुई है.
जीवनकाल की संध्या में गिरिराज किशोर इस सबसे गहरे तक विचलित थे और अपने गहन शोध के आधार पर गांधी पर वैचारिक लेखन की श्रृंखला को नए संदर्भों के साथ नए आकार दे रहे थे. यों उनके 15 उपन्यास छपे हैं और इन सबको मिली कम-ज़्यादा मान्यता के आधार पर उनका विशिष्ट पाठक वर्ग बना. लेकिन गांधी के दक्षिण अफ़्रीकी जीवन पर केंद्रित उपन्यास ‘पहला गिरमिटिया’ सबसे ज़्यादा मक़बूल हुआ. हिन्दी साहित्य में स्थापित परंपरा है कि एक या एकाधिक रचनाओं के आधार पर बड़े लेखकों को ‘सर्वमान्यता’ और ‘अमरत्व’ (!) हासिल होता है. गिरिराज जी को यह ‘पहला गिरमिटिया’ से हासिल हुआ. अपने 900 पन्नों के इस महत्वपूर्ण उपन्यास के लिए वह हमेशा याद किए जाएंगे. और कस्तूरबा गांधी के जीवन पर गहन शोध के बाद लिखे गए उपन्यास ‘बा’ के लिए भी. हालांकि गांधी और बा पर नायाब उपन्यास लिखने के बावजूद गिरिराज किशोर गांधीवादी नहीं थे और ‘गांधीवाद’ को लेकर उनके कुछ प्रकट संशय भी थे.

गिरिराज किशोर के निर्मम आलोचकों ने भी माना है कि ‘पहला गिरमिटिया’ मोहनदास करमचंद गांधी की महात्मा गांधी बनने तक के जीवन और परिस्थितियों को समझने के लिए एक ज़रूरी कृति है. गांधी पर अब तक लिखे गए रचनात्मक लेखन में सर्वश्रेष्ठ. इसे लिखने में गिरिराज जी को आठ-नौ वर्ष लगे. इसके लिए उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका की कई यात्राएं कीं, बेशुमार किताबों से गुजर कर लंबा शोध किया और उन तमाम जगहों को अपनी गहरी रचनात्मक दृष्टि से स्पर्श किया, गांधी दक्षिण अफ़्रीका में जहां-जहां विचरे. उस ज़मीन पर जाकर तमाम घटनाओं को इतिहास से निकालकर वर्तमान में लाने का काम उन्होंने बख़ूबी किया. अपने कथा-कौशल की विलक्षणता फिर साबित की. ‘पहला गिरमिटिया’ के हाथों-हाथ लिए जाने तथा एक के बाद एक कई संस्करण इसकी नज़ीर हैं.

पत्रकार-संपादक प्रभाष जोशी की गांधी में गहरी आस्था थी और वह गजब अध्येता भी थे. ‘पहला गिरमिटिया’ पढ़ने के बाद प्रभाष जोशी ने टिप्पणी लिखी, ‘संक्रमण में पढ़ने योग्य महाभारत से श्रेष्ठ कोई महाकाव्य नहीं है. और कहूं कि भीतरी और बाहरी संक्रमण को समझने में ‘पहला गिरमिटिया’ से ज़्यादा प्रेरक कोई उपन्यास नहीं है. मोहनदास करमचंद गांधी के कुली बैरिस्टर से महात्मा गांधी बनने की प्रक्रिया और विलक्षण कहानी जैसी ‘पहला गिरमिटिया’ में से बनकर निकली है वैसी मैंने पहले कहीं और नहीं पढ़ी.’

गिरिराज किशोर के समकालीन श्रीलाल शुक्ल ने ‘पहला गिरमिटिया’ पर पहले-पहल प्रतिक्रिया दी थी कि यह उपन्यास अंग्रेज़ी में लिखा जाता तो गिरिराज को अक़ूत रॉयल्टी मिलती. तब इसे श्रीलाल शुक्ल का कटाक्ष कहा गया था. लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ कि इसके मायने नकारात्मक नहीं, सकारात्मक थे. कटाक्ष था भी तो ईर्ष्याजन्य या रचना को रद्द करने वाला कतई नहीं था. बाद में श्रीलाल शुक्ल ने कहा, ‘मेरी दृष्टि में, यह उपन्यास समकालीन हिन्दी साहित्य की एक असाधारण घटना है. यही नहीं, यह गिरिराज किशोर के दीर्घकालीन लेखन की चरम सार्थकता भी है. … यह कृति निश्चय ही हमारे-विशेषत: नई पीढ़ी के लिए आश्चर्यपुरुष (महात्मा गांधी) के जटिल जीवन और दर्शन को संवेदना और समझ के साथ पहचानने में मदद करेगी.’

अपनी निर्मम प्रतिक्रिया और गिरिराज किशोर के अधिकांश साहित्य से (निजी दोस्ती और आत्मीयता के बावजूद) असहमति जताते रहने वाले राजेंद्र यादव ने पहली बार उनकी इतनी खुलकर प्रशंसा की और ‘पहला गिरमिटिया’ को उनका महत्वाकांक्षी तथा बड़ा उपन्यास करार दिया. एक तरह से यह राजेंद्र यादव का गिरिराज किशोर को अपनी शैली में ‘हार्दिक नमस्कार’ था. बल्कि उनकी कलम को. सामर्थ्य को भी!

‘पहला गिरमिटिया’ लिखने के लिए गिरिराज किशोर को दक्षिण अफ़्रीका, लंदन और मॉरीशस की कई यात्राएं करनी पड़ीं. इन महंगी यात्राओं के लिए आर्थिक संसाधनों का कतिपय राजनेताओं से सहयोग लेने के चलते उन्हें आरोपों के कटघरे में भी खड़ा किया गया लेकिन इतनी बड़ी रचना के आगे वे तमाम आरोप गौण हो गए. हालांकि तब ‘जनसत्ता’ में उन्होंने इस बाबत अपना पक्ष भी मजबूती से रखा. आख़िर में अहम रह गया ‘पहला गिरमिटिया’ का कालजयी प्रभाव और उसके दीर्घकालीन सरोकार. विस्तृत शोध, लंबी यात्राओं और निरंतर कलमघिसाई के बाद इसकी पांडुलिपि को अंतिम रूप गिरिराज किशोर ने 30 मई, 1998 में कानपुर में दिया. पांडुलिपि में आवश्यक संशोधन-सुधार के लिए उन्होंने इतिहास की गहरी समझ रखने वाले राजेंद्र यादव, नरेश सक्सेना, शैलेश मटियानी और प्रियंवद की मदद ली. उपन्यास की रचना प्रक्रिया के दौरान शैलेश मटियानी ने उनसे कहा था, ‘गिरिराज जी, गांधीजी की लाठी लगने की बात है, अगर छू गई तो उपन्यास पूरा हो जाएगा…!’

‘पहला गिरमिटिया’ का पहला संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था. बाद में लेखकों और भारतीय ज्ञानपीठ के बीच हुए वैचारिक मतभेद के चलते गिरिराज किशोर ने यह उपन्यास वहां से वापस ले लिया. इसमें उन्हें काफी मुश्किलें आई. उन्हें मनाने और अंततः सताने की कवायद की गई लेकिन लगभग लड़ाई और ज़िद के साथ वह डटे रहे और उपन्यास भारतीय ज्ञानपीठ से वापस ले ही लिया. तब से इसके कई संस्करण छपे. ताज़ा संस्करण ‘राजपाल एंड सन्ज़’ से है. गिरिराज किशोर के अनुसार महात्मा गांधी के जीवन के तीन पक्ष हैं – एक मोहनिया पक्ष, दूसरा मोहनदास पक्ष और तीसरा महात्मा गांधी पक्ष. उन्होंने ‘मोहनदास पक्ष’ चुना. जिसके बाद मोहनदास करमचंद गांधी भारत आकर महात्मा गांधी बने.

‘पहला गिरमिटिया’ के बाद गिरिराज किशोर ने कस्तूरबा गांधी पर लिखने का इरादा किया. बा, जो गांधी की पत्नी होने के साथ ही देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाली एक प्रतिबद्ध महिला भी थीं. बापू के बापू बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया में हमेशा नींव की ईंट बनी रही बा की ज़िंदगी के अनछुए पहलू और घर और देश की ज़िंम्मेदारियां साधने वाली उनकी शख़्सियत को उजागर करता है. उन्नीसवीं सदी के भारत में एक कम उम्र की लड़की का पत्नी रूप में होना और फिर धीरे-धीरे पत्नी होना सीखना, पति के साथ जुड़ी उसकी इच्छाएं, कामनाएं और फिर काल के प्रवाह में उस शख़्स से तालमेल जिसकी ऊंचाई उनके समकालीनों के लिए भी एक पहेली थी. यह यात्रा लगता है कई लोगों के हिस्से की थी, जिसे बा ने अकेले पूरा किया. यह उपन्यास इस यात्रा के हर पड़ाव को इतिहास की तरह रेखांकित करता है और कथा की तरह हमारी स्मृति का हिस्सा भी बनता है. उपन्यास ‘बा’ में हम ख़ुद बापू के भी एक भिन्न रूप से परिचित होते हैं. पति और पिता का उनका रूप. घर के भीतर वह व्यक्ति कैसा रहा होगा, जिसे इतिहास ने पहले देश और फिर पूरे विश्व का मार्गदर्शक बनते देखा, उपन्यास के कथा-फ़्रेम में यह महसूस करना भी एक अनुभव है.

बहरहाल गांधी के ‘गांधी’ बनने और कस्तूरबा के ‘बा’ बनने की ऐतिहासिक कथा इतनी यथार्थपरकता के साथ पहले कभी नहीं लिखी गई. जबकि महात्मा गांधी पर हज़ारों और कस्तूरबा गांधी पर सैकड़ों किताबें दुनिया की तमाम भाषाओं में लिखी गई हैं और लिखी जाती रहेंगी. लेकिन गिरिराज किशोर ने ‘पहला गिरमिटिया’ और ‘बा’ के ज़रिये हिन्दी में जो लिखा, वह गांधी और बा को समझने के लिए नायाब ऐतिहासिक-साहित्यिक दस्तावेज़ है.


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