इतिहास | गाँधी के निधन पर फ़ैज़ का वह संपादकीय
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बड़ी बेटी प्रो.सलीमा हाशमी. ए.एम.यू. के ओल्ड गेस्ट हाउस में उनसे जल्दी-जल्दी में हुई वह अच्छी-सी एक बातचीत. छोटी बहन मुनीज़ा के डॉक्टर बेटे अली हाशमी के साथ शीघ्रातिशीघ्र दिल्ली पहुंचने की उनकी वह उतावली-बेताबी. गाड़ी स्टार्ट हुई ही थी कि दिखा, सलीमा जी जल्दी-जल्दी खिड़की का शीशा नीचे उतार रही हैं. शीशे के नीचे तक आने से पहले ही गर्दन बाहर निकाली—जी, प्रेमकुमार जी, यह बात तो हमारी बातों में आने से रह ही गई. उनके ख़ुतूत की तरह ही एडिटोरियल्स भी उनके ज़ेहन, सोच और वजूद को समझने के लिए पढ़े जाने जरूरी हैं. मुझे नहीं मालूम कि आज यहां कितने लोग इस बात से वाक़िफ़ हैं कि जब गांधीजी की हत्या हुई तो उन्होंने एडिटोरियल लिखा था, उसका पढ़ने से ताल्लुक है. उसमें उनकी सारी सोच नुमाया होती है और यह भी कि वे वाहिद एडिटर-इंटेलेक्चुअल थे जो कि उस समय लाहौर से आकर गांधीजी के जनाज़े में शामिल हुए थे. यह एक स्टेटमेंट था—ही प्वाइंटेड आउट—उनके जद्दोज़हद को, उनके योगदान को और उनके मारे जाने पर अपने अफ़सोस को. आज की नस्ल को यह जानना चाहिए.
गाड़ी जा चुकी थी. मैं वहीं सड़क पर सकुचाया-सा चुप खड़ा था काफी देर. किसी और के आगे आने वाली पीढ़ी के बारे में, मैं भला कैसे और क्या कुछ कहता… ? तब तो और भी नहीं, जबकि मैं ख़ुद को अच्छा खासा पढ़ा-लिखा, सजग-सक्रिय मानने-प्रदर्शित करने वाला अध्यापक, तब तक इस अत्यंत महत्वपूर्ण ज्ञातव्य तथ्य से अवगत-परिचित नहीं था. मन में फ़ैज़ के लिए निरभ्र-से एक आदर का सहज भाव जागा. इसलिए कि भारत विभाजन के बाद के घृणा और वैमनस्य से भरे उन रक्तरंजित दिनों में अत्यंत विकट-विषम परिस्थितियों में फ़ैज़ भारत आए, गांधीजी की शव यात्रा में शामिल हुए और फिर 2 फरवरी, 1948 के ‘पाकिस्तान टाइम्स’ में लिखे अपने संपादकीय में उन्होंने गांधीजी की हत्या, उनके महत्व और योगदान के बारे में अपने भावों-विचारों को व्यक्त किया. वहीं खड़े-खड़े मैंने फ़ैज़ का निःशब्द शुक्रिया अदा किया— ‘धन्यवाद’ फ़ैज़ साहब. आपके उस आने ने साहित्य और साहित्यकार के ज़ेहन, सोच और वजूद की निस्सीमता, ऊंचाई, हिम्मत और विराट उदात्तता को प्रमाणित किया. दुनिया की तमाम-तमाम बातों-बंदिशों से उन्हें अलग और विशिष्ट सिद्ध किया.
उनके बाद यहां-वहां और न जाने कहां-कहां फ़ैज़ के लिखे उस संपादकीय को ढूंढ़ा, तलाश कराया. महीनों की लगातार कोशिशों के बावजूद वह हाथ नहीं लग पाया. अंततः सलीमा जी से निवेदन किया. कुछ महीने ज़रूर लगे, लेकिन उन्होंने डाक द्वारा वह संपादकीय मुझ तक पहुंचवा दिया. पढ़ा, तो लगा कि ऐसी ये ख़ास घटनाएं, सामग्री-ऐतिहासिक दस्तावेज़—अज्ञात या कुछ लोगों की जानकारी तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए. इसी भावना के साथ फ़ैज़ के उस संपादकीय का हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत है,
पाकिस्तान टाइम्स (02.02.1948)
राजा की मृत्यु पर ब्रिटिश परंपरा के अनुसार उद्घोष होता है ‘राजा दिवंगत हो गए हैं, राजा सदा जीवित रहें’. लगभग 25 वर्ष पहले महात्मा गांधी ने सी.आर. दास पर भावुक संपादकीय लिखते समय अपनी शानदार अंग्रेजी में उसी तर्ज पर शीर्षक दिया, ‘देशबंधु दिवंगत हो गए हैं, देशबंधु सदा जीवित रहें’. अगर हमने गांधीजी के लिए अपनी विनम्र श्रद्धांजलि हेतु यह शीर्षक चुना है, तो ऐसा इसलिए है कि हम पहले से ज्यादा आश्वस्त हैं कि इस पतित शताब्दी में वास्तव में बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो इस मानवता के सच्चे सेवक और गरीबों के मसीहा से ज्यादा अमरत्व प्रदान करने लायक हों. महात्मा गांधी द्वारा नश्वर शरीर को त्यागने के बाद व्यथित 48 घंटे इस निबंधकीय सार को लिखते समय बीत गए हैं. सदमे का पहला प्रभाव धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है और विलाप और दुख की धुंधली काली छाया के मध्य एक आशावादी अनुभूति, कि गांधी व्यर्थ में नहीं मरे, सामने चमक रही है. हो सकता है कि यह वर्तमान शुद्ध परिणाम की चोट में अपरिपक्व निष्कर्ष हो, किंतु यह बोलते हुए कि इस त्रासदी ने दुनिया की आत्मा को झकझोर दिया है, अगर हम इस व्यक्ति की अनंत अच्छाई को संजो के रखना चाहें तो हम इसके लिए क्षम्य हैं. कम से कम हम भारत में रहने वाले उन मित्रों को, जो हमारे बारे में संदेह रखते हैं, अत्यधिक ऊंची आवाज में बता दें कि गांधी का हमारे बीच से गुज़रना पाकिस्तान के लोगों के लिए भी उतना ही दुखदायी है, जितना कि भारत के लोगों के लिए.
हमने इस विस्तृत शहर लाहौर में लोगों की व्यथित नज़रें, नम आंखें एवं रुंधी हुई आवाज़ें इस सीमा तक ऐसे रूप में देखी हैं कि उनकी वास्तविकता पर विश्वास किया जा सकता है. हमने अपने साथी नागरिकों के स्वतः प्रकट दुःख को पवित्र हृदय की आह के रूप में देखा है. हमारे भारतीय मित्रों को ध्यान देना चाहिए और हम इसे अपनी पूर्ण सामर्थ्य एवं ज़ोर के साथ घोषित करते हैं कि हम पाकिस्तान में अच्छे भावों, मित्र भावों एवं सीमा पार से किसी भी आपसी सहयोग हेतु पर्याप्त मानवीय हैं. पूर्व में हम थोड़े-से आशावाद से ग्रसित रहे हैं- और ऐसा बहुत अच्छे कारण हेतु. भारत में भी उस महान त्रासदी के समय से ही गंभीर हार्दिक खोज जारी है, ऐसा हमारा विश्वास है. भारतीय सरकार भी एहसास कर रही है कि वे एक ज्वालामुखी पर बैठे हैं. और सबसे ऊपर बात यह है कि बंबई की एक छोटी-सी घटना, जिसमें कि हिंदू भीड़ ने पाकिस्तान विरोधी मंच के ऑफ़िस को तोड़कर इसके स्वागत-कक्ष व फर्नीचर व्यवस्था को टुकड़े-टुकड़े कर दिया, हमारे विश्वास में (यद्यपि एक त्रासद देरी के बाद) एक ऐसे तथ्य का एहसास है कि अंततः मुसलमान पापी नहीं है और न ही वे भारत के दुश्मन हैं.
हिंदुओं का एक बड़ा वर्ग पहचानता है कि सही दुश्मन कहां हैं और वे कौन-सा राजनीतिक लेबल धारण किए हुए हैं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है, लखनऊ में भारत के डिप्टी प्रधानमंत्री श्री सरदार पटेल ने वहां कुछ ही समय पूर्व कोयला मामले पर एकत्रित हुए राष्ट्रवादी मुसलमानों को फटकारा था और आर.एस.एस.एवं हिंदू महासभा की प्रशंसा में गीत गाए थे. ये संगठन वे हैं, जिन्होंने इतिहास के सबसे ज्यादा घिनौने अपराधी नाथूराम गोडसे को उत्पन्न किया. सरदार पटेल ने उनके प्रफुल्ल दंभ की चापलूसी की और कांग्रेस को भी उनकी ओर आसक्त होने हेतु प्रेरित किया. यद्यपि यह विरोधाभास प्रतीत होगा कि सरदार पटेल के प्रमुख श्री जवाहरलाल नेहरू ने त्रासदी के दो दिन पूर्व ही अमृतसर में आर.एस.एस. एवं हिंदू महासभा के बुलबुलों को एवं उनकी राजनीति को भारत देश के लिए महानतम हानि बताते हुए इस बिंदु को गंभीर रूप से लिया. पुनः, विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा गांधी के समक्ष सांप्रदायिक सद्भावना हेतु कार्य करने का वचन देने (जिसके कारण गांधी ने अपना अनशन तोड़ा था) के एक दिन बाद ही हिंदू महासभा के जाने-माने नेता देशपांडे एवं प्रो.रामसिंह ने शरारतपूर्ण स्वर में कहा कि मुसलमानों को भारत से निकाल दिया जाना चाहिए.
अगर भारत सरकार ने इस संबंध में सम्यक विचार किया होता और ऐसे सांप्रदायिक सैन्यमुखी नेताओं को नेस्तनाबूद करने के लिए क़दम उठाए होते, तो शायद महात्मा गांधी 125 वर्ष तक जिंदा रहते. दिल्ली में निरीह मुसलमानों के घरों में बम एवं दूसरे हथियार प्रयोग करने के बजाय यदि श्री पटेल साहब का ख़ुफ़िया विभाग गांधी के मूल्यवान जीवन की सुरक्षा पर ध्यान देता तो यह उपमहाद्वीप, और सारी दुनिया, इस भयंकर त्रासदी एवं विपदा से त्रस्त नहीं होती. इस त्रासदी से पूर्व की घटनाओं की विवेचना हमसे बहुत दूर थी, किंतु हम अत्यधिक वजनी कारणों से एहसास करने पर मजबूर हैं कि भारत में पांच करोड़ मुसलमानों की नियति शामिल है. हमारी मांग है कि भारतीय शक्तियों को उनके साथ स्वच्छ एवं निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए. अगर हम गांधीजी की मृत्यु के अवसर को अपने सहधर्म संबंधी रुचि को आगे बढ़ाने के लिए भुनाएंगे तो हम मानवीय होने से कुछ कम ही रहेंगे. किंतु उस महान आत्मा को इससे ज्यादा संतुष्टि एवं आनंद तभी प्राप्त होगा, यदि भारतीय मुसलमानों के साथ स्वच्छ एवं न्यायसंगत व्यवहार किया जाता है, क्योंकि इसी के लिए उन्होंने अपने जीवन को न्यौछावर कर दिया. इन असंख्य मुसलमानों के लिए महात्मा जी हमेशा आशा एवं हिम्मत के प्रतीक रहेंगे. यद्यपि आज वे शांत हो गए हैं, तो भी वे युगों-युगों तक जीवित रहेंगे.
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