बॉम्बे जयश्री : स्मृतियों के समंदर में डुबकी

मनुष्य के तौर पर हमारी स्मृतियाँ ही सबसे बड़ी पूँजी है. इस बात पर यक़ीन करते हुए कोई आगे बढ़े तो एक सवाल ज़रूर आ खड़ा होता है – कोई इंसान स्मृतियों के मामले में कितना समृद्ध हो सकता है? कर्नाटक शास्त्रीय संगीत की दुनिया में महत्वपूर्ण नाम विदुषी बॉम्बे जयश्री को हाल ही में संगीत कलानिधि सम्मान (2023) दिया गया. म्यूज़ियम ऑफ़ परफ़ॉर्मिंग आर्ट्स, चेन्नई की ओर से आयोजित बातचीत में उनको सुनते हुए स्मृतियों की अथाह गहराई में डुबकी लगाने का मौक़ा मिलता है. इस इंटरव्यू में अपनी माँ के साथ उन्होंने अपने उस्तादों को इतनी शिद्दत से याद किया है कि साक्षात कृतज्ञता की मूरत मालूम होती हैं. अपने हर गुरु को लेकर उनकी स्मृति बेहद सजग और साफ़ है. उनकी स्मृतियाँ पानी जितनी साफ़ और बरगद की छाँव की तरह सुकून देने वाली हैं.

बचपन, बॉम्बे और उस्तादों की हिदायतें

बॉम्बे जयश्री का जन्म कलकत्ता में एक तमिल परिवार में हुआ. 1960 के दशक में उनका जन्म उस परिवार में हुआ, जहाँ माता और पिता दोनों ही संगीतकार थे. छह वर्ष की उम्र में पिता एन.एन.सुब्रमण्यम के देहांत के बाद उनकी माँ सीतालक्ष्मी सुब्रमण्यम ने उन्हें संगीत की शुरुआती शिक्षा दी. जयश्री जब तीन साल की थीं, तब उनके माता-पिता कलकत्ता से बंबई (अब मुंबई) आकर माटुंगा में बस गए थे. जयश्री और उनके दो भाइयों के भरण-पोषण और शिक्षा के लिए उनकी माँ ने माटुंगा की एक छोटी से चाल में आस-पास की औरतों को संगीत सिखाने का काम किया. बंबई में 1980 के शुरुआती दशक का यह वो समय था, जब जयश्री माटुंगा के जिस इलाक़े में रहती थीं, उसमें इमारतों के नाम अलग-अलग रागों के नाम पर रखे गए थे. हर कलाकार की परवरिश में उसके घर वालों और माहौल की भूमिका भी अहम् होती है. जयश्री की माँ ने उनकी संगीत दीक्षा के लिए उस दौर के उत्कृष्ट गुरुओं को चुना. और उन सभी ने जयश्री को निखरने और विकसित होने में बहुत मदद की.

गुरुओं का आत्मीय स्मरण

बालामणि: बॉम्बे जयश्री की पहली औपचारिक गुरु टी.आर. बालामणि माटुंगा इलाक़े में ही रहती थीं. अस्सी के दशक में माटुंगा एक भीड़भाड़ वाला इलाका था. उनकी पहली गुरु इसी भीड़भाड़ वाले इलाके के एक बेहद छोटे से कमरे में रहती थीं. बालामणि को उनके विद्यार्थी प्यार से ‘टीचर’ कहते थे. टीचर बालामणि का व्यवस्थित प्रशिक्षण की हामी थीं. रियाज़ के साथ-साथ म्युज़िक नोटेशन लिखाने पर उनका इतना ज़ोर रहता था कि अगर कोई लिखने में थोड़ा भी आलस्य करता तो वो उसे ज़रूर टोकतीं. वह अपने शिष्यों को बंबई में होने वाली तमाम संगीत प्रतियोगिताओं के लिए तैयार करतीं. उनके शिष्य इन प्रतियोगिताओं से कई इनाम लेकर आते. जयश्री ने मद्रास जाने से पहले बालामणि से क़रीब बारह साल संगीत सीखा. शंकर महादेवन जैसे गायक और संगीतकार भी बालामणि के शिष्यों में हैं.

लालगुड़ी जयरमण: कर्नाटक संगीत के प्रतिष्ठित गायक और संगीत साधक लालगुड़ी जयरमण से जयश्री पहली बार एक संगीत सभा में मिली थीं. उन्हें जब पहली बार मंच पर प्रस्तुति देते देखा तो उनका मन लालगुड़ी जयरमण से मिलने का हुआ. उनकी संगीत यात्रा में यह पहली बार था, जब उन्होंने अपनी माँ पर दबाव बनाया कि वो लालगुड़ी जयरमण से बात करें और पूछे कि क्या वह उनको संगीत सिखाएंगे? संयोग से वो जयश्री के परिवार से वाक़िफ़ थे और उन्हें संगीत सिखाने के लिए सहर्ष राज़ी हो गए. लालगुड़ी जयरमण के घर पर संगीत की शिक्षा सुबह सात बजे शुरू हो जाती थी. ये वो समय होता था, जब लालगुड़ी जयरमण के घर में उनकी माँ पूजा कर रही होती थीं. पूजा के साथ ही घर में श्रुति बॉक्स बजता रहता था, गुरु लालगुड़ी जयरमण इस सात्विक और पवित्र माहौल में कुछ गाना शुरू करते.

बक़ौल जयश्री, सीखने और सिखाने के इस क्रम में अविस्मरणीय स्थिति तब आती, जब उन्हें लगता कि गाते-गाते उनके गुरु अचानक अदृश्य हो गए हैं. उनके गुरु अगर भैरवी गा रहे होते, तो लगता कमरे में रखी हर चीज़ भैरवी गा रही है. अपनी संगीत यात्रा में इस अनुभव को उन्होंने ख़ास तौर पर रेखांकित किया है. लालगुड़ी अपने समय के उन संगीत साधकों में से थे, जिन्होंने हर तरह के संगीत को सहर्ष स्वीकार किया. चाहे वो ग़जल हो, फ़िल्म संगीत या भजन, वह हर तरह के संगीत पर खुलकर बात करते. इंटरव्यू में जयश्री ने लालगुड़ी जी से जुड़ा हुआ एक बेहद रोचक प्रसंग बताया. एक बार शाम को अपने रियाज़ के लिए जब वो अपने गुरु के घर पहुँची तो उन्होंने देखा कि गुरु पूरी तन्मयता के साथ टेलीविज़न देख रहे थे. वो इतना डूबकर देख रहे थे कि उन्होंने पीछे से आ रही जयश्री को इशारे से बैठने को कहा. और इशारे से कहा कि वह भी टी.वी. देखें. टी.वी. के पर्दे पर माइकल जैकसन का प्रोग्राम चल रहा था.

जयश्री का सारा ध्यान टी.वी. के बजाय अपने गुरु के चेहरे पर था. उनके गुरु के चेहरे पर किसी बच्चे जैसा उत्साह था. किसी ख़ास आवेग में वो ख़ुशी के साथ माइकल जैकसन के नृत्य के बारे में घोषणा करते हुए बोले, “ये आदमी ख़ुद ही नृत्य में बदल गया है. ये आदमी लय बन गया है.” उनकी यह बात कला प्रशंसा पर सोचने के लिए भी कई रास्ते खोलती है. अगर हम भूल जाए कि लालगुड़ी जी एक बड़े गायक थे, तो जो चीज सबसे महत्वपूर्ण बनकर सामने आती है, वो है उनका नज़रिया और उत्साह, जो सिर्फ़ कलाकार होने के लिए ही नहीं, बल्कि मनुष्य होने के लिए भी ज़रूरी है .

हाल के कुछ सालों में कर्नाटक शास्त्रीय संगीतकार, एक्टिविस्ट और लेखक टी.एम.कृष्णा ने कर्नाटक संगीत की पारम्परिक शिक्षण परम्परा पर जो सवाल उठाए हैं, इस तरह के कई और सवाल जयश्री ने अपने संगीत यात्रा में ख़ुद गुरु की भूमिका में उतरने के बाद उठाए और अपने संगीत शिक्षण में कई मूलभूत परिवर्तन और प्रयोग भी किए.

लाइफ़ ऑफ़ पाई, माइकल डाना का फ़ोन और वो सात दिन

    लाइफ ऑफ़ पाई (2012) फ़िल्म के लिए बॉम्बे जयश्री की गाई हुई तमिल लोरी को सुनना ममत्व के सागर में गोते लगाना है. जिस तरह की आकारहीनता और रंगहीनता जल को जल बनाती है, उसी तरह लोरियाँ भी माँ को माँ बनाती हैं. हमारा देश ज़बानों का अज़ायबघर है. भारत के प्रति भाषा की दुनिया में अचरज का कारण सिर्फ़ ये ज़बानें ही नहीं हैं, बल्कि वो लोक गीत हैं जिनमें इन ज़बानों की असली ख़ुशबू बसती है. और इन लोक गीतों की जान है, भारत की तमाम अनाम माँओं के द्वारा गाई जाने वाली लोरियाँ. हिन्दुस्तान की अनगिनत ज़बानों में मिलने वाली ये लोरियाँ सिर्फ़ गीत नहीं है बल्कि अपनी संतान के लिए किसी आम हिन्दुस्तनी माँ की आत्मा की पुकार हैं.

    2012 में लाइफ ऑफ़ पाई के रिलीज़ होने से पहले जयश्री के पास फ़िल्म के म्युज़िक डायरेक्टर माइकल डाना का फ़ोन आया. पहली बातचीत में उन्होंने कहा कि वो यान मार्टेल की किताब भेज रहे हैं और वो इस फ़िल्म के लिए जयश्री की आवाज़ में तमिल में एक लोरी रिकॉर्ड करना चाहते हैं. इस फ़िल्म की पृष्ठभूमि में पोंडीचेरी है, इसलिए तमिल भाषा की लोरी उस पृष्ठभूमि को और सशक्त बनाती है. इस फ़िल्म को अगर ध्यान से देखें तो ये लोरी, पाई को अपनी माँ से भी जोड़ती है.ये लोरी पाई को अपनी माँ के तरफ से मिला सबसे सुंदर उपहार है. बॉम्बे जयश्री ने इस लोरी को ख़ुद लिखा भी है.

    जब इस लोरी की रिकॉर्डिंग शुरू हुई तो जयश्री की असली मशक़्क़त भी तभी शुरू हुई. जयश्री हर रोज़ अपनी ओर से हरसंभव बढ़िया कर रही थीं, माइकल को ये कोशिशें पसंद भी आ रही थी. पर कुछ था जिसकी कमी के चलते वह पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रहे थे. छठे दिन जब जयश्री गा रही थीं, तो माइकल ने उनको टोका और कहा की इस लोरी को गाते हुए ध्यान रखना कि बच्चा लोरी सुनते हुए सिर्फ़ सो ही नहीं रहा है बल्कि उसके अंदर एक ख़ास सुरक्षा का भाव भी है. सातवें दिन जब जयश्री रिकॉर्डिंग के लिए आईं और लोरी गाई तो माइकल को वो अंतर महसूस हुआ. आख़िरकार सातवें दिन लोरी की रिकॉर्डिंग खत्म हुई.

    बॉम्बे जयश्री की संगीत यात्रा को देखते हुए, यह कहना ज़रूरी नहीं लगता कि लाइफ़ ऑफ़ पाई के लिए ऑस्कर नॉमिनेशन मिला. यह याद करना भी बहुत ज़रूरी नहीं कि 2021 में उन्हें पद्मश्री सम्मान मिला. बल्कि जो कहना ज़रूरी लगता है, वो यह कि पिछले क़रीब तीस सालों में वह कई शिष्यों को संगीत में दीक्षित कर चुकी हैं और यह यात्रा अब भी निरंतर ज़ारी है. उनके शिष्यों में उनके प्रतिभवान गायक पुत्र अमृत रामनाथ, विजयश्री विट्टल और कीरथना वैद्यनाथन ख़ास तौर से उल्लेखनीय हैं.

    एक विशेष उद्देश्य के तहत वो हितम ट्रस्ट के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक रूप से असक्षम बच्चों को संगीत की शिक्षा दे रही हैं. इस तरह के प्रयासों में उन्होंने दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाकों के बच्चों को केंद्र में रखा है. पाठ्यक्रम निर्माण, बच्चों के लिए वर्कशॉप का आयोजन और संगीत के नए प्रतिभाओं को मंच देना, ये सभी काम इन प्रयासों में शामिल हैं. संगीत अगर साधना है तो उसकी साधक बॉम्बे जयश्री ने साधना को कई नए अर्थ दिए हैं. उनकी भावी संगीत यात्रा के लिए उन्हें अथाह शुभकामनाएं.

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