कि आगे की नस्लों को न लिखना पड़े ‘कितने पाकिस्तान’

  • 3:34 pm
  • 6 January 2023

कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, पत्रकार, स्तंभकार, संपादक, स्क्रिप्ट राइटर और नौकरशाह, ये सभी भूमिकाएं किसी एक शख़्स की हों तो कोई भी पूछ सकता है – अच्छा, कितने कमलेश्वर!

उनके उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ का पहला पन्ना खोलते ही लिखा मिलता है, ‘इन बंद ‘कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है/ खिड़कियां खोलता हूं तो ज़हरीली हवा आती है!’ इसकी भूमिका के अंत में उन्होंने लिखा है कि, “मेरी दो मजबूरियां भी इसके लेखन से जुड़ी हैं. एक तो यह कि कोई नायक या महानायक सामने नहीं था, इसलिए मुझे समय को ही नायक-महानायक और खलनायक बनना पड़ा. और दूसरी मजबूरी यह कि इसे लिखते समय लगातार यह एहसास बना रहा कि जैसे यह मेरी पहली रचना हो… लगभग उसी अनकही बेचैनी और अपनी असमर्थता के बोध से मैं गुज़रता रहा… आख़िर इस उपन्यास को कहीं तो रुकना था. रुक गया. पर मन की जिरह अभी भी जारी है…”.

इस उपन्यास के कवर पर पीछे की तरफ़ कमलेश्वर की ही लिखी इबारत है, जो पढ़ते हुए लगता है कि किसी ने अपने लहू सने हाथों से दीवारों पर लिखी है, “यह उपन्यास मानवता के दरवाज़े पर इतिहास और समय की एक दस्तक है… इस उम्मीद के साथ कि भारत ही नहीं, दुनिया भर में एक के बाद एक दूसरे पाकिस्तान बनाने की लहू से लथपथ यह परंपरा अब ख़त्म हो….

सन् 1990 में उन्होंने ‘कितने पाकिस्तान’ लिखना शुरू किया था और ’99 में ख़त्म किया. कमलेश्वर के ही शब्दों में कहें तो ‘ख़त्म’ तो यह आज भी नहीं हुआ. ये वह दौर था, जिसमें मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों पर हलचल थी, राजीव गांधी पर जानलेवा आत्मघाती हमला, मंदिर आंदोलन का उफान, बाबरी ढांचा नष्ट होने, बंबई में सीरियल ब्लास्ट, पोकरन में परमाणु परीक्षण, कारगिल युद्ध और आतंकवादियों के इण्डियन एयरलाइंस की फ्लाइट के अपहरण जैसी घटनाएं हुईं. चैन से ज़िंदगी बसर करने के ख़्वाहिशमंद हर शख़्स के दिल में ख़ौफ़ की धुकधुकी थी.

इन सब के बीच ‘कितने पाकिस्तान’ का लिखना चलता रहा. जब यह उपन्यास छपकर आया तो हिंदी साहित्य के कई बड़े आलोचकों ने इसे लगभग ख़ारिज कर दिया. इसे असफल रचना ठहराते हुए कहा कि पाठक इसके क़रीब भी नहीं गुज़रेंगे. मगर उनकी भविष्यवाणी ग़लत निकली. हिंदी के बड़े पाठक वर्ग ने ‘कितने पाकिस्तान’ को हाथों-हाथ लिया. अब भी इस उपन्यास का नया संस्करण आता है तो देखते-देखते बिक जाता है. पीढ़ी दर पीढ़ी इस उपन्यास को शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है. कई भारतीय भाषा में इसका अनुवाद हुआ. उर्दू में जिन हिंदी कृतियों का ख़ूब लोकप्रियता मिली, उसमें ‘कितने पाकिस्तान’ का भी शुमार है. इस उपन्यास पर उन्हें 2003 का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला हालांकि बक़ौल कमलेश्वर, इस उपन्यास का इतना पढ़ा जाना ही उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है.

एक बार एक मुलाक़ात उन्होंने मुझसे कहा था कि काश! आने वाली पीढ़ियों के लेखकों को ऐसी रचनाएं न लिखनी पड़ें. किसी को 1947 का दंश न झेलना पड़े. उनका कहना था कि ‘कितने पाकिस्तान’ पर हुआ श्रम सार्थक तभी होगा, जब दोनों देशों के लोग विभाजनकारी मानसिकता से उबर जाएंगे और तवारीख़ के दोषियों को ख़ुद सज़ा देंगे. ज़हरीली हवा का आवागमन दोनों मुल्क़ों की अवाम को बेमौत मार रहा है, ऐसा वह कहते-मानते थे.

साधारण भाषा में लिखा गया यह असाधारण उपन्यास पठन-पाठन की दुनिया में अर्से तक प्रासंगिक रहेगा. शिल्प के लिहाज़ से ‘कितने पाकिस्तान’ एक प्रयोगधर्मी रचना है. कला ‘कला के लिए’ या ‘अवाम के लिए’ की बहस के बीच यह बीच का रास्ता नहीं ढूंढता और साफ़-साफ़, शिद्दत के साथ लोगों के साथ खड़ा मिलता है. यह सुकून नहीं बल्कि दर्द अथवा पीड़ा का बायस है – लिखने वाले के लिए और पढ़ने वाले के लिए भी.

उनके दूसरे चर्चित उपन्यास तीसरा आदमी, समुंदर में खोया हुआ आदमी, काली आंधी, आगामी अतीत, सुबह दोपहर शाम, रेगिस्तान, लौट हुए मुसाफिर, डाक बंगला और एक और चंद्रकांता हैं.

अदबी दुनिया में उनकी शुरुआती शिनाख़्त कहानीकार की है. उन्होंने क़रीब तीन सौ कहानियां लिखीं हैं. राजा निरबंसिया, सांस का दरिया, नीली झील, बयान, नागमणि, अपना एकांत, जॉर्ज पंचम की नाक, मुर्दों की दुनिया, नागमणि, कस्बे का आदमी, खोई हुई दिशाएं और स्मारक उनकी बहुप्रसिद्ध कहानियों में हैं.
सारिका, गंगा, नई कहानियां, कथा यात्रा, इंगित, विहान, श्री वर्षा पत्रिकाओं के वह संपादक रहे. सारिका में रहते हुए उन्होंने दूसरी भाषाओं में लिखे जा रहे महत्वपूर्ण कथा साहित्य से हिंदी पाठकों का परिचय कराया.

‘गंगा’ यों कथा पत्रिका थी लेकिन विषय-वस्तु के लिहाज़ से वह विविधता वाली पत्रिका थी. यह पत्रिका ‘गंगा स्नान’ भी कराती थी और जिसे यह स्नान कराया जाता था, वह स्नान कतई नहीं करना चाहता था! ‘गंगा स्नान’ स्लग वाले पत्रिका के नियमित स्तंभ में देश के नामी पत्रकारों-संपादकों को क़ायदे से ‘नहलाकर’ बाक़ायदा उनकी मैल उतारी जाती थी. तब के कतिपय संपादकों-पत्रकारों को गंगा का इंतज़ार इसलिए भी रहता था कि कहीं इस बार उन्हें तो नहीं धोया गया! कमलेश्वर ने इस पत्रिका को बेहद तीखी धार दी, बिल्कुल अपने मिजाज के अनुकूल.

लोगों को तब ख़ासी हैरानी हुई, जब कमलेश्वर ‘दैनिक जागरण’ के राष्ट्रीय संस्करण के संपादक हुए. हैरानी इसलिए कि कमलेश्वर का मिज़ाज और अख़बार का रूख़ दोनों ही जगज़ाहिर था. मगर दैनिक जागरण में काम करते हुए उन्होंने कोई वैचारिक समझौता नहीं किया. देश में बढ़ते संप्रदायिक तनाव के दिनों में कमलेश्वर की क़लम भी विरोध में और ज्यादा नुकीली हो गई. अख़बार के प्रबंधन की ओर से मिलने वाली हिदायतों के बावजूद वह अपनी धुन और तेवर के साथ जुटे रहे. बाद में उन्होंने इस आह्वान के साथ इस्तीफ़ा दे दिया कि फ़िरकापरस्त स्याही से वह अख़बार नहीं चलाएंगे. अरुण प्रकाश और कई और वरिष्ठ पत्रकारों ने उनके साथ सामूहिक इस्तीफा दे दिया. बाद में वह ‘दैनिक भास्कर’ के सलाहकार संपादक और जयपुर संस्करण के संपादक रहे. मगर जल्दी ही छोड़ आए. अलबत्ता वहां नियमित स्तंभ ज़रूर लिखते रहे.

बंबई रहते हुए कमलेश्वर 99 फ़िल्मों के संवाद, कहानी और पटकथाएं लिखीं. इनमें ‘मौसम’ और ‘आंधी’ को ख़ूब लोकप्रियता मिली. नाटक भी लिखे – अधूरी आवाज़, रेत पर लिखे नाम और हिंदुस्तान हमारा हैं. उन दिनों जब ‘दूरदर्शन’ देश का अकेला टेलीविज़न चैनल था, वह दूरदर्शन के लिए ‘परिक्रमा’ नाम से एक ख़ास कार्यक्रम तैयार करते थे. कमलेश्वर इसकी स्क्रिप्ट लिखते, निर्देशन करते और आवाज़ भी ख़ुद ही देते थे. वह आवाज़ उन दिनों महानगर के लोगों को ‘अपनी आवाज़’ लगती थी. परिक्रमा का प्रसारण दूसरे केंद्रों से भी होता था.

परिक्रमा की तर्ज पर उन्होंने कई मौलिक वृत्तचित्र तैयार किए, जो ख़ूब देखे जाते. कानपुर की तीन बहनों ने सामाजिक विसंगतियों के चलते सामूहिक आत्महत्या कर ली थी, जिसने देश भर में लोगों को भीतर तक झकझोर दिया था. कमलेश्वर ने इस पर डॉक्यूमेंट्री बनाई. इस प्रस्तुति में भी आवाज़ उन्हीं की थी. एक घंटा लंबे इस वृत्तचित्र में आवाज़ कई बार ऐसे डगमगाई कि देखने वालों को लगता कि टेलीविजन में पर्दे के पीछे से बोलने वाला शख़्स बस अब रोने ही वाला है. ख़ुद कमलेश्वर ने बातचीत में मुझे बताया था कि इसकी स्क्रिप्ट लिखने के दौरान वह कई बार रोए और वह घटना अब भी उन्हें थर्रा देती है.

वह दूरदर्शन के अतिरिक्त महानिदेशक भी रहे. नौकरशाह की भूमिका में भी उन्होंने जन- अपेक्षाओं के लिए अहम् काम किया.


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