जादूगर मेनन का शौर्य
के. के. (कृष्ण कुमार) मेनन का शुमार उन चुनिंदा अदाकारों में होता है जिनको बॉक्स ऑफिस की सफलता की ज़रूरत नहीं है. मसलन आज से साढ़े सोलह साल पहले जब फ़िज़ा में रेस (सैफ- कटरीना अभिनीत) और टशन (अक्षय, सैफ और करीना अभिनीत) फिल्मों के गीत छाए हुए थे, उस वक़्त रिलीज़ हुई फ़िल्म आलोचक समर ख़ान द्वारा निर्देशित शौर्य इस बात की एक नायाब मिसाल है कि ये फ़िल्म तो बॉक्स ऑफिस पर कोई ख़ास करिश्मा नहीं दिखा पाई थी और न ही मेनन उस फ़िल्म में मुख्य भूमिका में थे, मगर आज जब भी हम शौर्य का गाहे बगाहे ज़िक्र करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में जो एक बेहद साफ़ तस्वीर उभरती है वो सिर्फ़ मेनन की होती है. हमें न तो राहुल बोस याद हैं और न ही जावेद जाफरी. हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ एक क़ाबिल, जांबाज़ व तास्सूबी ब्रिगेडियर रूद्र प्रताप सिंह की भूमिका में मेनन ही याद रहते हैं.
और क्लाइमैक्स में कोर्ट मर्शियल का वो पूरा 15 मिनट से भी अधिक का अतुलनीय सीन जो मेनन को हमेशा के लिए दर्शकों के दिलों में जगह और इज़्ज़त दिला देता है. क्या हम मे से कोई भी मेनन के स्थान पर किसी और अदाकार की शौर्य में कल्पना भी कर सकता है, निश्चित रूप से हम सबका जवाब ‘नहीं’ होगा. केवल चेहरे के भांव, बॉडी लैंग्वेज और अपनी जादुई व खनकदार आवाज़ से ही सब कुछ साफ़ साफ़ बयाँ कर देते हैं. उनके दिल की कदूरत सबको नज़र आ जाती है. शायद इसलिए राहुल बोस (शौर्य फ़िल्म के मुख्य किरदार) को ये क़ुबूलने में कोई संकोच नहीं होता है कि मेनन छोटे किरदार में होने के बावजूद पूरी फ़िल्म पर छा जाते हैं और बाक़ी सारे कलाकारों की चमक फीकी पड़ जाती है.
ये मेनन का ही जादू है जो उन्हें सबसे अलग करता है. मेनन की संवाद अदायगी बहुत निराली और असरदार है. जब शौर्य में वे राहुल बोस से कहते हैं कि ‘इस वर्दी में आसमान कुछ अलग दिखता है’, तो ये बेहद साधारण सी लाइन भी उनकी जादुई आवाज़ व प्रसंग के चलते हम सब पर अपना असर छोड़ने में क़ामयाब रहती है. मसलन गब्बर द्वारा बोला गया मशहूर संवाद ‘कितने आदमी थे’, अगर क़ायदे से देखा जाए तो ये कोई मुक़म्मल लाइन नहीं है, अपितु एक साधारण सी पंक्ति है, लेकिन इसको असरदार बनाता है अमजद ख़ान का अतुलनीय अंदाज़ ए बयाँ और कहानी का प्रसंग. यही तो एक क़ाबिल अदाकार की शफ़ा होती है जो एक साधारण सी पंक्ति को भी ग़ैर साधारण बना देती है. मेनन द्वारा बोली गई ये पंक्ति व अन्य संवाद को और भी दिलचस्प और असरदार बनाते हैं राहुल बोस के एक्सप्रेशन्स. दृश्य की समाप्ति पर जब राहुल अपने काँपते हाथों से कप और प्लेट उठाते हैं, तो जो कप प्लेट के बीच कम्पन्न की जो ध्वनि है वो दर्शाती है कि किस क़दर मेनन ने राहुल के आत्मविश्वास को हिला दिया है. इस दृश्य में निर्देशक समर ख़ान ने ऑब्जेक्टिव कोरिलेटिव मेथड को अपनाते हुए इस दृश्य को मुक़म्मल किया है और मेनन को एक सशक्त अदाकार के रूप में प्रस्तुत भी किया है.
लेकिन हिन्दी सिनेमा में के. के. मेनन को अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा है. वे अपने संघर्ष के दिनों में सबसे पहले थिएटर से जुड़े और शुरुआती दिनों से ही नसीरुद्दीन शाह के मुरीद हो गए. इसके कुछ वक़्त बाद मेनन की पहली फ़िल्म नसीम (1995) में रिलीज़ हुई, जिसका निर्देशन किया था सईद अख़्तर मिर्ज़ा ने जो इससे पहले दूरदर्शन के लिए नुककड़ व अन्य धारावाहिकों कों निर्देशित कर चुके थे. राज्य सभा टीवी के लिए मोहम्मद इरफ़ान के साथ साक्षात्कार में मेनन बताते हैं कि 89 मिनट की इस छोटी सी फ़िल्म कों बड़ा बना रहे थे शायर क़ैफी आज़मी, कुलभूषण खरबन्दा, सुरेखा सीकरी और सलीम शाह. इसी फ़िल्म की छोटी सी भूमिका में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में मेनन ने भी क़ामयाबी हासिल की थी. नसीम ने साल 1995 का सर्वश्रेष्ठ निर्देशक व पटकथा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था. इसके बाद साल 1999 में आयी भोपाल एक्सप्रेस में भी मेनन ने शानदार अदाकारी का मुलाहेज़ा किया था मगर अभी भी उनको वो मुक़ाम नहीं मिल पाया था जिसके वे पात्र थे. संघर्ष और मायूसी बढ़ रही थी और अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित पांच फ़िल्म पर भी सेंसर बोर्ड ने रोक लगा दी थी और वो रोक आज भी जारी है.
लल्लनटॉप के लिए सौरभ द्विवेदी के साथ साक्षात्कार के दौरान मेनन इस बात का ख़ुलासा करते हैं कि मक़बूल फ़िल्म में मुख्य किरदार के लिए विशाल भारद्वाज की पहली पसंद मेनन ही थे, लेकिन कुछ कारणो के चलते बात नहीं बन पाई और फिर उस भूमिका को अदा किया मरहूम इरफ़ान ने. साल 2002 में आयी छल और 2004 में आयी दीवार भी कोई जादू नहीं कर पाई थी हालांकि मेनन को दीवार में ज़रूर नोटिस किया गया था. साल 2005 आते आते मेनन को हिन्दी सिनेमा में 10 साल हो चुके थे. वे अभी तक कोई करिश्मा दिखाने में असफल रहे थे. मगर वे हार कहाँ मानने वाले थे और इसी वर्ष से तस्वीर भी बदलना शुरू हो गई और उनके करियर में बड़ी तब्दीली आना शुरू हुई जब उनकी राम गोपाल वर्मा निर्देशित फ़िल्म सरकार (01 जुलाई, 2005) रिलीज़ हुई. फ़िल्म आलोचक ख़ालिद मोहम्मद बताते हैं कि राम गोपाल वर्मा ने उन्हें सरकार की रिलीज़ से पूर्व के. के. मेनन के कुछ चुनिंदा दृश्य दिखाए थे जिन्हे देखने के बाद ख़ालिद ये कहने के लिए बाध्य हो गए थे कि मेनन पूरी फ़िल्म पर भारी पड़ेगा और हुआ भी वैसा ही. अमिताभ, अभिषेक और ज़ाकिर जैसे सब कलाकारों को पीछे छोड़ते हुए मेनन ने सरकार को पूरी तरह से अपने नाम कर लिया. हर दृश्य में वे नवीनता लिए हुए थे. और वो दृश्य जहाँ उनका सीधा सामना अमिताभ से होता है. वो एक नए, नाक़ामयाब व संघर्षशील कलाकार के लिए बेहद ही मुश्किल दृश्य है लेकिन मेनन उस दृश्य कों बहुत सहजता और विश्वास के साथ न सिर्फ़ निभाते हैं बल्कि उस दृश्य को अपनी अनूठी संवाद अदायगी, बॉडी लैंग्वेज और अपनी आँखों से इस दृश्य को भी अपने नाम कर लेते हैं. उनकी आँखों में विद्रोह और अपनी माँ से अपनी हर ज़िद मनवा लेने वाले नन्हें बच्चे के भाव उनकी अदाकारी को कई पायदान ऊपर ले जाते हैं. साल 2005 में ही सुधीर मिश्रा निर्देशित हज़ारो ख्वाइशे ऐसी रिलीज़ होती है और हिन्दी सिनेमा में उनकी मज़बूत उपस्थिति को दर्ज करवा ही देती है.
जुलाई, 2006 में ओमकारा फ़िल्म का बीड़ी जलाइले हर जगह सुनाई दे रहा था और मेनन नज़र आ रहे थे मधुर की कॉर्पोरेट फ़िल्म में. यूँ तो मेनन के लिए फ़िल्म में करने को कुछ ख़ास नहीं था मगर वे अपना किरदार ईमानदारी से अदा करते हैं.
9 फ़रवरी, 2007 को रिलीज़ अनुराग कश्यप निर्देशित ब्लैक फ्राइडे में मेनन राकेश मरिया के किरदार में नज़र आये. इसमें कोई शक़ नहीं कि ये एक शानदार फ़िल्म थी और मेनन की अदाकारी ने इसे सभी के लिए ख़ास भी बना दिया था. चाहें इंटरोगेशन वाले दृश्य हो या गिरफ्तारी वाले, मेनन हर दृश्य को ख़ास बना देते हैं और फ़िल्म को सार्थक बनाने में मदद करते हैं. 11 मई, 2007 में रिलीज़ अनुराग बासु निर्देशित मल्टीस्टारर लाइफ इन ए मेट्रो में मेनन धर्मेंद्र, इरफ़ान, शरमन व अन्य को पीछे छोड़ते हुए एक मुश्किल किरदार को बहुत सहजता से अदा करते हैं. वे अपने चेहरे पर तनाव, थकान, चिढ़चिढ़ापन और नफ़रत के भाव बिना किसी ग़ैर ज़रूरी मशक़्क़त के ले आते हैं और अपने सीमित दृश्यों में ही वे दर्शकों के दिलों पर अपनी छाप छोड़ देते हैं. जब वे शिल्पा के सामने अपने कथित प्रेम प्रसंग को क़ुबूल करते हैं, तो उनकी अदाकारी देखने लायक होती है वहीं जब शिल्पा अपनी ग़लती क़ुबूल करती हैं तो कैसे एक सामान्य मर्द की तरह वे अपने चेहरे के भावों को बदलते हुए सभी दर्शकों को अपना दीवाना बना देते हैं.
2007 में वे नज़र आये पति पत्नी और वो में और अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज करवाते हैं. 22 अगस्त, 2008 को मेनन फिर एक मल्टीस्टारर फ़िल्म मुंबई मेरी जान में नज़र आते हैं जिसको निर्देशित किया था निशिकांत कामत ने. इस फ़िल्म में वे एक ऐसे युवा की भूमिका में हैं जो बेरोज़गार है, विचलित है और साल 2006 के बम धमाकों के लिए एक धर्म विशेष को ज़िम्मेदार मानता है और उनसे नफरत करता है. मगर जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है तो बड़ी ही तार्किकता के साथ उनकी नफ़रत ख़त्म हो जाती है. वहीं फ़िल्म का अंत होता है एक कैंटीन के दृश्य के साथ जहाँ टीवी पर आमिर ख़ान अभिनीत दिल चाहता है का गाना चल रहा है और मेनन व अन्य बतौर कलाकार आमिर की प्रशंसा कर रहे हैं. दरअसल, मेनन आमिर को बहुत पसंद करते हैं. बॉलीवुड हंगामा के फरिदून शहरयार और ट्रेड विश्लेषक कोमल नाहटा के साथ साक्षात्कारों में मेनन आमिर के विवेक, हिम्मत और दूरदर्शिता की तारीफ़ कर चुके हैं. वहीं साल 2008 में ही सलमान ख़ान अपने शो दस का दम के एक एपिसोड में मेनन का ज़िक्र व तारीफ़ करते हैं जिसमें बतौर मेहमान जीतेन्द्र व तुषार कपूर शामिल हुए थे. और जब कभी किसी कलाकार का ज़िक्र इतने बड़े पैमाने पर होता है जहाँ दर्शकों को अनुमान भी नहीं होता है कि ऐसी कोई चर्चा होने वाली है तो इससे पता चलता है कि उस कलाकार का क़द कितना बढ़ गया है.
साल 2009 के शुरुआत में रिलीज़ अनुराग कश्यप निर्देशित ग़ुलाल में उनके द्वारा निभाया गया डुक्की बना का किरदार उन्हें और चार क़दम आगे ले जाता है. फ़िल्म के शुरू में मेनन का 4:30 मिनट का प्रोलॉग, उनका संवाद ‘हमारी ज़मीन, हमारी इज़्ज़त, हमारी आन. हम वापिस नहीं ला पाएंगे’ ये लाइन बोलते हुए मेनन की आँखे क्या कुछ बयाँ नहीं कर देती हैं. यही तो वजह है जो उन्हें उनके समकालीन अदाकारों से अलग खड़ा कर देती है और उनका किरदार आज भी फिल्मों के मुरीदीन के दिलों में बसा हुआ है. साल 2009 में ही आयी द स्टोनमैन मर्डर में वे नज़र आये अरबाज़ ख़ान के. शूटिंग के दौरान दोनों काफ़ी अच्छे दोस्त बने मगर अरबाज़ मेनन के मुरीद बनने की रह पर आगे बढ़े. बात यहाँ तक पहुंची कि दबँग के खलनायक छेदी सिंह के लिए मेनन का नाम लगभग तय हो चुका था मगर किन्ही कारणों के चलते सलमान और मेनन का आमना सामना पर्दे पर होने से रह गया और उस किरदार को अदा किया सोनू सूद ने. विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित हैदर (02 अक्टूबर, 2014) में मेनन ने एक खलनायक की भूमिका को बखूबी अदा किया.
मेनन हिन्दी सिनेमा के एक नायाब रत्न हैं जिन्होंने अनगिनत किरदार अदा किए हैं और दर्शकों को अपना दीवाना बनाया है. स्पेशल ऑप्स में हिम्मत सिंह, राजा नटवरलाल में वर्धा यादव व अन्य फिल्मों और वैब सीरीज़ में उनकी अदाकारी अनूठी है और उन्हें एक सशक्त मक़ाम भी देती है. फ़र्ज़ी नाम की वेबसीरीज़ में वे मंसूर के किरदार में नज़र आते हैं और अपने हिस्से को अच्छे से अदा कर जाते हैं.वे एक शानदार कलाकार है. आज उनकी 58वीं सालगिरह पर हम सब उनको मुबारक़बाद पेश करते हैं और उनके उज्जवल भविष्य के लिए ख़ुदा से दुआ करते हैं.
सालगिरह मुबारक़ के.के..
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